क्या आप जानते हैं कि ग्लूटन आपकी सेहत के लिए खतरनाक है? क्या आप जानते हैं कि ग्लूटन होता क्या है और यह क्यों खतरनाक है? आइए जानते हैं इसके बारे में सबकुछ:क्या आप जानते हैं कि ग्लूटन आपकी सेहत के लिए खतरनाक है? क्या आप जानते हैं कि ग्लूटन होता क्या है और यह क्यों खतरनाक है? आइए जानते हैं इसके बारे में सबकुछ:
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हेल्थ के लिए खतरनाक है ग्लूटन, जानें नुकसान से लेकर बचाव तक सबकुछ
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बिना डॉक्टर की सलाह के दवा लेने की कभी न करें भूल, भुगतना पड़ सकता है बुरा अंजाम
रोग के इलाज के लिए दवाओं का उपयोग किया जाता है, लेकिन अगर दवाओं के उपयोग में सजग न रहें तो ये दर्द बढ़ाने का भी काम कर सकती हैं। दवा के मामले में किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए, एक्सपर्ट से बात कर जानकारी दे रहे हैं प्रसन्न और लोकेश के. भारती
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. राजकुमार, डायरेक्टर, पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट
डॉ. सुरंजीत चटर्जी, इंटरनल मेडिसिन एक्सपर्ट, अपोलो
डॉ. प्रसन्ना भट्ट सीनियर कंसल्टेंट, पीडियाट्रिक्स
डॉ. आनंद के. पाण्डेय
एचओडी, कार्डियॉलजी, मैक्स हॉस्पिटल
डॉ. एम. वली इंटरनल मेडिसिन एक्सपर्ट, सर गंगाराम
डॉ. वरुण वर्मा, सीनियर नेफ्रॉलजिस्ट, फोर्टिस हॉस्पिटल
32 साल के निरंजन शर्मा को जब भी सामान्य दर्द की शिकायत होती थी, वह पेन किलर ले लेते थे। बगैर किसी डॉक्टर की सलाह के वह लगातार 5-6 बरसों तक पेनकिलर लेते रहे। अचानक जब उनकी तबीयत काफी खराब हुई तो उन्हें हॉस्पिटल में ऐडमिट कराया गया। जांच के बाद पता चला कि किडनी में परेशानी है। डॉक्टरों ने बताया कि लंबे समय तक पेनकिलर खाने की वजह से उनकी किडनी पर बुरा असर पड़ा है। अब उनका इलाज चल रहा है, लेकिन बीमारी सामान्य दर्द से बड़ी हो गई है।
5 साल के आदित्य को दो साल पहले तेज बुखार हुआ था। उस समय डॉक्टर ने कोई दवा लिखी। बाद में जब भी उसे बुखार होता, पैरंट्स डॉक्टर से बगैर पूछे वही दवा उसे दे देते। एक बार बुखार आया तो ठीक ही नहीं हुआ, उलटे समस्या काफी बढ़ गई। डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि वह इन्फेक्शन से हु्ए बुखार की दवा ही हर बार दे रहे थे। बहरहाल, सही इलाज मिलने से किसी तरह आदित्य की जान तो बच गई, लेकिन गलत दवाओं के इस्तेमाल से वह मासूम कई गंभीर बीमारियों का शिकार हो गया। पैरंट्स की जेब पर भारी बोझ पड़ा, सो अलग।
25 साल के सनी को जब भी बुखार, सर्दी-जुकाम या कोई और परेशानी होती तो वह ऐंटीबायॉटिक ले लेते थे। कई बरसों तक वह लगातार ऐसा करते रहे। 2 साल पहले उनकी तबीयत काफी खराब हो गई। उन्हें घर के पास ही एक छोटे-से नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें काफी ऐंटीबायॉटिक दे दी। वहां उनकी हालत खराब होने लगी तो उन्हें दिल्ली के एम्स में भर्ती कराया गया। यहां इलाज के दौरान डॉक्टरों ने बताया कि जरूरत से ज्यादा ऐंटीबायॉटिक लेने से उनके शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता काफी कमजाोर हो गई है। ऐसे में लंबे इलाज के बाद वह सामान्य हो पाए।
ये तो महज कुछ उदाहरण हैं। ऐसे तमाम लोग आपको अपने आसपास मिल जाएंगे जिन्हें दवाओं के साइड इफेक्ट्स से गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ा है। अक्सर इससे लोग बड़ी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। दवाएं दर्द मिटाने और बीमारियों को दूर करने के लिए होती हैं, लेकिन बगैर डॉक्टर की सलाह के या सही मात्रा में न ली जाएं या फिर गलत दवाइयां ले ली जाएं तो ये बीमारियों को दूर करने की बजाय कई नई और गंभीर बीमारियों का कारण बन सकती हैं। दवा लेने से पहले और इस्तेमाल करने के दौरान कुछ खास बातों का ध्यान रखकर आप खुद को दवाओें के साइड इफेक्ट्स से होने वाले नुकसान से बचा सकते हैं।
खुद ही न बनें डॉक्टर
सेल्फ मेडिकेशन अच्छी बात नहीं है। डॉक्टर भी बीमार पड़ने पर अक्सर दूसरे डॉक्टर की सलाह जरूर लेता है। आमतौर पर छोटी-मोटी शारीरिक परेशानी जैसे कि बुखार, पेट दर्द, उलटी, दस्त, सर्दी-जुकाम आदि होने पर लोग खुद या फिर किसी से पूछकर दवा ले लेते हैं। यहां तक कि लक्षण बताकर दवा की दुकान से भी दवा लेकर खा लेते हैं। बुखार के लिए पैरासिटामोल, दर्द के लिए कोई पेनकिलर, सर्दी-जुकाम के लिए ऐंटीबायॉटिक दवाओं का इस्तेमाल भारत में बेहद आम है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। सामान्य-सी नजर आने वाली बीमारी के पीछे ऐसे कारण हो सकते हैं जिनके बारे में आपको नहीं पता। जैसे सरदर्द थकावट या तनाव की वजह से भी हो सकती है, लेकिन यह ब्रेन हैमरेज से पहले की स्थिति भी हो सकता है। सीने में दर्द का हमेशा यह मतलब नहीं होता कि हार्ट अटैक ही होगा, यह गैस की परेशानी भी हो सकती है। पेट में दर्द कुछ गलत खाने-पीने से हो सकता है तो किडनी की समस्या होने पर भी हो सकता है या फिर पथरी की स्थिति में भी। ऐसे में समस्या की वजह जाने बगैर दवा के इस्तेमाल से फायदे से ज्यादा नुकसान की आशंका रहती है। परेशानी किस वजह से हो रही है, इसके बारे में सही तरीके से कोई डॉक्टर ही बता सकता है इसलिए सबसे बेहतर है कि परेशानी चाहे छोटी ही क्यों न हो, हमेशा डॉक्टर से सलाह लेकर ही दवा लें। और हां, डॉक्टर भी क्वॉलिफाइड होना चाहिए।
संभलकर लें दवाइयां, नुकसान बहुत हैं
सर्दी-जुकाम या दस्त या जख्मों की स्थिति में डॉक्टर से बिना पूछे ऐंटीबायॉटिक न लें और डॉक्टर ने जितनी डोज़ बताई है, उतनी ही लें। न उससे ज्यादा, न कम। कोर्स बीच में छोड़ देने यानी पूरी डोज़ न लेने पर भी ऐंटीबायॉटिक शरीर के लिए काफी हानिकारक साबित हो सकती है। इससे आपकी इम्यूनिटी कम हो सकती है। शरीर के लिए उपयोगी बैक्टीरिया काम करना बंद कर सकते हैं। यहां एक बात ध्यान देने लायक है कि बॉडी की अपनी भी इम्यूनिटी होती है। इसलिए जब बीमार पड़ें तो फौरन ही ऐंटीबायॉटिक लेना शुरू न करें। शुरू में इंफेक्शन से लड़ने के लिए शरीर पर भरोसा करना चाहिए। जब शरीर इंफेक्शन से छुटकारा लेने में खुद सफल न हो पाए, तब ही डॉक्टर को भी ऐंटीबायॉटिक की सलाह देनी चाहिए।
ऐंटीबायॉटिक के नुकसान
- हमारे शरीर में खरबों बैक्टीरिया रहते हैं। अमूमन हमें इनसे परेशानी नहीं होती। हां, कभी-कभी ये शरीर के किसी खास भाग में पहुंच जाते हैं तो समस्या होती है।
- जब हम बार-बार ऐंटीबायॉटिक खाते हैं तो कई बैक्टीरिया इन ऐंटीबायॉटिक्स के लिए रेजिस्टेंस डिवेलर कर लेते हैं। फिर इन पर इस ऐंटीबायॉटिक का असर नहीं होता।
- ऐंटीबायॉटिक के अनियंत्रित उपयोग का ही परिणाम है कि एमॉक्सिलिसीन (Amoxicilline) भारत में अब बैक्टीरिया से फैलने वाले बीमारी में प्रभावी नहीं रहा जबकि पश्चिमी देशों में यह आज भी खूब कारगर है। हमारे देश में 40-50 साल पहले तक यह दवा खूब प्रभावी थी। यह तो एक उदाहरण है, कई दूसरी मेडिसिन का भी असर अब कम होने लगा है।
कौन लिखेगा ऐंटीबायॉटिक
जब भी डॉक्टर के पास जाएं तो ध्यान में रखें कि जो डॉक्टर जिस फील्ड का एक्सपर्ट है, वह उन्हीं रोगों के लिए ऐंटीबायॉटिक लिख सकता है। मसलन: ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर आंख, कान और गला से संबंधित इंफेक्शन के लिए ऐंटीबायॉटिक लिख सकते हैं। अगर किसी को किडनी से जुड़ा इंफेक्शन है तो उसके लिए नेफ्रॉलजिस्ट सही डॉक्टर है। टीबी इंफेक्शन के लिए टीबी के स्पेशलिस्ट डॉक्टर ही सही ऐंटीबायॉटिक्स लिख सकते हैं। वहीं विदेशों में और अपने देश के कुछ बड़े प्राइवेट अस्पतालों में पावरफुल ऐंटीबायॉटिक लिखने के लिए MBBS/ MD/ DM जैसी डिग्री वाले डॉक्टरों को ID (इंफेक्शंस डिजीज) एक्सपर्ट से इनकी अनुमति लेनी पड़ती है।
पेनकिलर का दर्द
पेनकिलर का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल घातक हो सकता है। एक अनुमान के मुताबिक एक हजार से ज्यादा पेनकिलर टैब्लेट खा चुके इंसान को किडनी की समस्या हो सकती है। पेनकिलर लगातार लेते रहने से किडनी और लिवर पर बुरा असर पड़ सकता है। कुछ मामलों में इस वजह से पेट में ब्लीडिंग भी हो सकती है। इससे लिवर में पैदा होने वाले एंजाइम को लेकर समस्या हो सकती है।
कफ सीरप से नींद और नशा
कफ और खांसी की स्थिति में लोग डॉक्टर से बिना पूछे कफ सीरप ले लेते हैं, इससे बचना चाहिए। ज्यादातर कफ सीरप में नींद लाने वाले पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसके ज्यादा इस्तेमाल से नींद और नशे जैसी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। अमूमन कफ सीरप में 5 से 15 फीसदी तक अल्कोहल मौजूद रहता है। कई लोग इसे इतना लेते हैं कि एडिक्ट हो जाते हैं।
एसिडिटी की दवा भी घातक
एसिडिटी होने की स्थिति में कई तरह की दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इन दवाओं का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल शरीर के अंदर जरूरी एसिड की मात्रा को कम कर सकता है। इससे खाना पचने में दिक्कत होती है और इम्यून सिस्टम के लिए भी समस्या पैदा हो सकती है।
बर्थ कंट्रोल पिल्स का पंगा
गर्भनिरोधक गोलियों को लंबे समय तक ज्यादा मात्रा और बार-बार लेने से समस्या हो सकती है। यहां तक कि कई बार इससे गर्भधारण करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए खुद से ऐसी दवाइयां न लें। अगर डॉक्टदर के कहने पर ले रहे हैं तो समय-समय डॉक्टर से सलाह लेते रहें।
परेशानियों से बचाव के लिए क्या करें
मेडिसिन की डोज ज्यादा नहीं लें डॉक्टर जो डोज लेने के लिए कहे, उतनी ही मात्रा में दवा लें। ज्यादा मात्रा में दवा लेने का मतलब यह नहीं है कि आपकी परेशानी जल्द ठीक हो जाएगी, बल्कि नुकसान ज्यादा होगा। ज्यादा मात्रा में दवा का इस्तेमाल शरीर के लिए काफी नुकसानदेह है।
साइड इफेक्ट्स की रखें जानकारी
आप जो भी दवा लेते हैं, उसके साइड इफेक्ट के बारे में डॉक्टर से जरूर पता करें। इसकी जानकारी दवा के रैपर या बॉटल पर लिखी होती है। कुछ लोगों को कई मेडिसिन से एलर्जी होती है। ऐसे में सावधानी पूर्वक मेडिसिन का इस्तेमाल करना चाहिए। जब डॉक्टर के पास जाएं तो उन्हें बताएं कि आपको किन दवाओं से एलर्जी है।
क्या आप जानते हैं...
एक्सपायरी डेट का चक्कर
आमतौर पर दवा कंपनी एक्सपायरी डेट दवा के असल में खराब होने से कुछ पहले की प्रिंट करती है। ऐसे में अगर कभी आपने हाल ही (10 से 20 दिन) में एक्सपायर हुई कोई दवा गलती से खा ली है तो इसका आपके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ने की कम आशंका होती है। लेकिन इंसुलिन जैसी जीवनरक्षक दवाएं एक्सपायरी डेट के बाद खाने पर जानलेवा भी साबित हो सकती हैं। कोशिश करें कि एक्सपायरी डेट वाली दवाओं का इस्तेमाल न करें। अगर गलती से कभी ऐसा हो जाए तो किसी भी तरह की परेशानी से बचने के लिए फौरन डॉक्टर से मिलें।
पैरासिटामोल सेफ,लेकिन...
पैरासिटामोल को बाकी मेडिसिन की तुलना में सबसे सेफ माना जाता है, लेकिन इस मेडिसिन की ओवरडोज भी मुसीबत का सबब बन सकती है। अमूमन ऐसी दवाओं पर डोज लिखी होती है, उसी के अनुसार इन्हें लें। 500mg से ज्यादा और दिनभर में 2000mg से ज्यादा मात्रा में पैरासिटामोल लेने पर परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
कब माना जाए ओवरडोज
कोई भी मेडिसिन डॉक्टर के बताए समय या मात्रा से ज्यादा लेना ओवरडोज की कैटिगरी में आता है। उदाहरण के तौर पर अगर कोई दवा एक हफ्ते खाने के लिए दी गई है तो एक हफ्ते बाद उसे बंद कर देना चाहिए। अगर उसके बाद भी दो-तीन दिन या उससे ज्यादा दिनों तक जारी रखते हैं तो उसे ओवरडोज माना जाएगा। इसी तरह डॉक्टर जितनी मात्रा में मेडिसिन लेने को बोलें, उससे ज्यादा मात्रा में उसे न लें।
मेडिसिन के साइड इफेक्ट्स
- कब्ज
- पेट खराब होना, जी मिचलाना
- सिरदर्द
- चक्कर आना
- भूख न लगना
- डायरिया
- सिरदर्द
- चक्कर आना
- नींद न आना घबराहट और बेचैनी
- आलस और सुस्ती
- गला और मुंह सूखना
- सेक्शुअल प्रॉब्लम यानी
यौन समस्याएं
समझें शब्दावली
AC: खाने से पहले, PC: खाने के बाद
OD: दिन में एक बार BD/BDS: दिन में दो बार
TD/TDS: दिन में तीन बार
QD/QDS: दिन में चार बार
Tab: टैबलेट
Cap: कैप्सूल
Amp: इंजेक्शन रूप में
Ad Lib: जितनी जरूरत हो, उतना ही लें
G or Gm: ग्राम
Gtt: ड्रॉप्स
Mg: मिलिग्राम
Ml: मिलीलीटर
PO: मुंह से
साइड इफेक्ट्स हो रहे हैं, यह कैसे पता लगेगा?
आमतौर पर मेडिसिन के साइड इफेक्ट्स होने पर शरीर पर दाने निकल आते हैं। इसके अलावा, आलस और सुस्ती, डायरिया, गला-मुंह सूखना, घबराहट और बेचैनी जैसे लक्षण भी दवाओं के साइड इफेक्ट्स के हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में फौरन अपने डॉक्टर से मिलना सही होगा। यहां एक बात का और ध्यान रखें कि ऐसे लक्षण दूसरी बीमारियों के भी हो सकते हैं। इसलिए डॉक्टर की राय अहम है।
बच्चों के मामले में बरतें ज्यादा सावधानी
- बच्चे हों या बड़े, सभी में बीमारियों की सबसे बड़ी वजह वायरस होते हैं।
- सीधे कहें तो आम बीमारियों में 10 में से 7-8 मामले वायरस की ही देन होते हैं। मसलन, सर्दी, खांसी, बुखार आदि।
- आमतौर पर ऐसे में बच्चों को ऐंटीबायॉटिक देने का चलन है, लेकिन यह काम नहीं करता।
- दरअसल, अगर मामला वायरस का है तो ऐंटीबायॉटिक देने का कोई मतलब ही नहीं है। यह वायरस को खत्म नहीं कर सकता।
- डॉक्टर की सलाह है कि 3 साल से बड़े किसी बच्चे को बुखार हो गया है तो 2 से 3 दिनों तक पैरासिटामॉल दे सकते हैं।
- कुछ दवाइयों के लेबल पर उम्र और वजन के हिसाब से डोज लिखी होती है। इनका उपयोग हम अमूमन घरों में करते भी हैं, मसलन Crocin या Calpol, लेकिन डोज का ध्यान रखें। लेबल पर डोज लिखने का मतलब है कि लोग छोटी परेशानियों के लिए डॉक्टर के चक्कर कम लगाए। अगर बुखार 2-3 दिनों में ठीक नहीं हुआ तो डॉक्टर से जरूर मिलना चाहिए।
- अगर किसी दवाई पर डोज नहीं लिखी है तो इसका सीधा-सा मतलब है कि वह दवाई डॉक्टर से पूछकर ही लेनी चाहिए।
- अगर खांसी आदि है तो जरूरी नहीं कि दवाई ही दें। तुलसी पत्तों का रस और शहद मिलाकर दे सकते हैं या कोई अन्य प्रभावी घरेलू उपाय कर सकते हैं।
- अगर समस्या नवजात (एक से दो साल के बच्चे जो तकलीफ बता नहीं सकते) को है तो छोटी परेशानी में भी डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
- बच्चे जल्दी ठीक हो जाएं इसलिए कई डॉक्टर भी ऐंटीबायॉटिक खूब लिखते हैं। कई बार तो पैरंट्स खुद ही डॉक्टर पर ऐंटीबायॉटिक लिखने का दबाव बनाते हैं। यह सही नहीं है। बेवजह ऐंटीबायॉटिक का सेवन स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है।
अहम सवाल और उनके जवाब
क्या कभी भी डॉक्टर की सलाह के बगैर दवा नहीं ले सकते?
बिल्कुल। अगर आसपास कोई बड़ा डॉक्टर न हो तो किसी नजदीकी डॉक्टर से प्राइमरी एडवाइस ले लें। ऐसा भी न हो तो होम्योपैथ या आयुर्वेद के डॉक्टर का सहारा ले सकते हैं।
जिस बीमारी की (बुखार, पेट खराब, खांसी, पेट दर्द) डॉक्टर ने एक बार दवा लिख दी है, क्या वह दोबारा इस्तेमाल नहीं कर सकते?
नहीं करनी चाहिए। बुखार कई तरह का होता है। वहीं पेटदर्द, सिर दर्द या दूसरी शारीरिक परेशानियों के भी कारण अलग-अलग हो सकते हैं। ऐसे में उस बीमारी के लिए पहले लिखी गई दवा लेने की गलती न करें।
क्या दवा दुकानदार से पूछकर दवा ली जा सकती है?
दवा दुकान वाले ने न मेडिकल की पढ़ाई की होती है और न ही वे बीमारियों और उनके इलाज के एक्सपर्ट होते हैं। लोगों को मेडिसिन देने की वजह से वह अनुमान या अनुभव के आधार पर दवा लेने की सलाह देता है, जो जानलेवा भी साबित हो सकता है। अमूमन ऐसा भी देखा गया है कि केमिस्ट किसी भी तरह की समस्या के लिए ऐंटीबायॉटिक दे देते हैं। इसलिए भी बचना जरूरी है।
दवा कब लेनी चाहिए, खाली पेट या खाने
के बाद?
डॉक्टर जिस समय दवा लेने की सलाह दें, उसी समय लेना बेहतर होगा। जिन दवा से पेट में तकलीफ हो सकती है, उन्हें खाना खाने के बाद लेने की सलाह दी जाती है। जिनका शरीर में फौरन घुलना फायदेमंद होता है, उन्हें खाली पेट लेने की सलाह दी जाती है, लेकिन इसके बारे में फैसला डॉक्टर ही कर सकते हैं।
क्या ऐंटीबायॉटिक और पेनकिलर बार-बार और लगातार लेने से सेक्स लाइफ पर कोई असर पड़ता है?
ऐंटीबायॉटिक और पेनकिलर बार-बार लेने से सीधे सेक्स लाइफ पर कोई असर नहीं होता। हां, यह मुमकिन है कि लगातार ऐंटीबायॉटिक्स लेने से कुछ वक्त के लिए कमजोरी महसूस हो। इस कमजोरी की वजह से कभी-कभी इंसान की सेक्स लाइफ पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। वैसे कुछ दवाइयां सेक्स लाइफ को डिस्टर्ब कर सकती हैं। इनमें बीपी की दवाइयां, मिर्गी के इलाज में दी जाने वाली दवाइयां, डिप्रेशन की दवाएं, ऐंटी एंड्रोजन (पुरुष हॉर्मोन कम करने वाली दवाइयां) खासतौर पर शामिल हैं। कभी-कभी कुछ आयुर्वेदिक दवाइयां भी इंसान की कामेच्छा पर विपरीत असर डाल सकती हैं।
दवा बिस्कुट खाकर ले सकते हैं?
कोशिश करनी चाहिए कि पूरा खाना खाने के बाद ही दवा लें। लेकिन अगर मरीज कुछ खाने में असमर्थ हो तो बिस्कुट या ब्रेड खाकर दवा ले सकते हैं।
दवा चाय के साथ ले सकते हैं?
कोई भी दवा लेने के लिए सादा पानी सबसे बेहतर विकल्प है। डॉक्टर अमूमन यह भी बता देते हैं कि दवा को सामान्य पानी या गुनगुने पानी के साथ लेना है। दरअसल, चाय या कॉफी जैसी चीजें दवा की घुलनशीलता को प्रभावित कर सकती हैं। इसलिए दवा इनके साथ लेने से बचें।
खाना खाने के कितनी देर या खाने से कितनी देर पहले लें दवा?
दवा लेने की दो स्थिति होती है: खाली पेट (एंप्टी स्टोमक) और खाना खाने के बाद। खाली पेट दवा लेने के लिए इसलिए कही जाती है, ताकि शरीर उसका अवशोषण सही ढंग से करे। अगर डॉक्टर ने किसी पेशंट को खाली पेट दवा लेने के लिए कहा है तो कम से कम 15 से 20 मिनट पहले दवा जरूर लें। जहां तक खाने के बाद की बात है तो जब पेट पूरा भरा हो उस समय दवा लेने से उसका पूरा अवशोषण नहीं हो पाता। इसलिए खाने और दवा लेने में आधा घंटा से एक घंटे का अंतर जरूर रखें। वैसे यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि खाना और दवा लेने के अंतराल का निर्धारण डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही करें, साथ ही यह दवा किस तरह की है इस पर निर्भर करता है।
इन दवाओं के भी हैं साइड इफेक्ट्स
आयुर्वेदिक दवाएं
सामान्यतौर पर आयुर्वेदिक दवाओं को सबसे सेफ माना जाता है क्योंकि इसमें जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन जरूरत से ज्यादा मात्रा में लेने पर इनके भी साइड इफेक्ट्स हैं। आयुर्वेदिक दवाओं के ज्यादा इस्तेमाल पर सूजन, एलर्जी, पाचन तंत्र में परेशानी, लिवर और पेट को नुकसान जैसी कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
होम्योपैथिक दवाएं
लोगों में ऐसी धारणा है कि होम्योपैथिक दवाओं का साइड इफेक्ट नहीं होता, लेकिन डॉक्टर की तरफ से बताई गई समयसीमा से ज्यादा समय तक अगर इनका इस्तेमाल किया जाए तो इसके भी नुकसान हैं। दवा के नुकसान करने पर दाने निकल आते हैं। ऐसे लक्षण दिखने पर Nux V30 का इस्तेमाल करना फायदेमंद साबित हो सकता है, लेकिन इसके लिए भी डॉक्टर की सलाह जरूर लें।
लंबे समय तक चलनेवाली दवाएं
किसी भी दवा को जरूरी न होने पर ज्यादा समय तक नहीं लेना चाहिए, लेकिन कैंसर, अर्थराइटिस, एड्स जैसी बीमारियों के होने पर मजबूरी में लंबे समय तक मेडिसिन लेनी पड़ सकती हैं। ये जीवनरक्षक दवाएं जान बचाने का काम तो करती है, लेकिन लंबे समय तक लेने पर इनके साइड इफेक्ट्स भी होते हैं। इनके इस्तेमाल के बाद अक्सर पेटदर्द, सरदर्द, चक्कर आना, जी मिचलाना, उलटी जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा बाल उड़ने जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। ऐसे में आप डॉक्टर से सलाह ले सकते हैं कि कैसे नुकसान को कम से कम किया जाए।
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. राजकुमार, डायरेक्टर, पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट
डॉ. सुरंजीत चटर्जी, इंटरनल मेडिसिन एक्सपर्ट, अपोलो
डॉ. प्रसन्ना भट्ट सीनियर कंसल्टेंट, पीडियाट्रिक्स
डॉ. आनंद के. पाण्डेय
एचओडी, कार्डियॉलजी, मैक्स हॉस्पिटल
डॉ. एम. वली इंटरनल मेडिसिन एक्सपर्ट, सर गंगाराम
डॉ. वरुण वर्मा, सीनियर नेफ्रॉलजिस्ट, फोर्टिस हॉस्पिटल
32 साल के निरंजन शर्मा को जब भी सामान्य दर्द की शिकायत होती थी, वह पेन किलर ले लेते थे। बगैर किसी डॉक्टर की सलाह के वह लगातार 5-6 बरसों तक पेनकिलर लेते रहे। अचानक जब उनकी तबीयत काफी खराब हुई तो उन्हें हॉस्पिटल में ऐडमिट कराया गया। जांच के बाद पता चला कि किडनी में परेशानी है। डॉक्टरों ने बताया कि लंबे समय तक पेनकिलर खाने की वजह से उनकी किडनी पर बुरा असर पड़ा है। अब उनका इलाज चल रहा है, लेकिन बीमारी सामान्य दर्द से बड़ी हो गई है।
5 साल के आदित्य को दो साल पहले तेज बुखार हुआ था। उस समय डॉक्टर ने कोई दवा लिखी। बाद में जब भी उसे बुखार होता, पैरंट्स डॉक्टर से बगैर पूछे वही दवा उसे दे देते। एक बार बुखार आया तो ठीक ही नहीं हुआ, उलटे समस्या काफी बढ़ गई। डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि वह इन्फेक्शन से हु्ए बुखार की दवा ही हर बार दे रहे थे। बहरहाल, सही इलाज मिलने से किसी तरह आदित्य की जान तो बच गई, लेकिन गलत दवाओं के इस्तेमाल से वह मासूम कई गंभीर बीमारियों का शिकार हो गया। पैरंट्स की जेब पर भारी बोझ पड़ा, सो अलग।
25 साल के सनी को जब भी बुखार, सर्दी-जुकाम या कोई और परेशानी होती तो वह ऐंटीबायॉटिक ले लेते थे। कई बरसों तक वह लगातार ऐसा करते रहे। 2 साल पहले उनकी तबीयत काफी खराब हो गई। उन्हें घर के पास ही एक छोटे-से नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें काफी ऐंटीबायॉटिक दे दी। वहां उनकी हालत खराब होने लगी तो उन्हें दिल्ली के एम्स में भर्ती कराया गया। यहां इलाज के दौरान डॉक्टरों ने बताया कि जरूरत से ज्यादा ऐंटीबायॉटिक लेने से उनके शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता काफी कमजाोर हो गई है। ऐसे में लंबे इलाज के बाद वह सामान्य हो पाए।
ये तो महज कुछ उदाहरण हैं। ऐसे तमाम लोग आपको अपने आसपास मिल जाएंगे जिन्हें दवाओं के साइड इफेक्ट्स से गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ा है। अक्सर इससे लोग बड़ी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। दवाएं दर्द मिटाने और बीमारियों को दूर करने के लिए होती हैं, लेकिन बगैर डॉक्टर की सलाह के या सही मात्रा में न ली जाएं या फिर गलत दवाइयां ले ली जाएं तो ये बीमारियों को दूर करने की बजाय कई नई और गंभीर बीमारियों का कारण बन सकती हैं। दवा लेने से पहले और इस्तेमाल करने के दौरान कुछ खास बातों का ध्यान रखकर आप खुद को दवाओें के साइड इफेक्ट्स से होने वाले नुकसान से बचा सकते हैं।
खुद ही न बनें डॉक्टर
सेल्फ मेडिकेशन अच्छी बात नहीं है। डॉक्टर भी बीमार पड़ने पर अक्सर दूसरे डॉक्टर की सलाह जरूर लेता है। आमतौर पर छोटी-मोटी शारीरिक परेशानी जैसे कि बुखार, पेट दर्द, उलटी, दस्त, सर्दी-जुकाम आदि होने पर लोग खुद या फिर किसी से पूछकर दवा ले लेते हैं। यहां तक कि लक्षण बताकर दवा की दुकान से भी दवा लेकर खा लेते हैं। बुखार के लिए पैरासिटामोल, दर्द के लिए कोई पेनकिलर, सर्दी-जुकाम के लिए ऐंटीबायॉटिक दवाओं का इस्तेमाल भारत में बेहद आम है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। सामान्य-सी नजर आने वाली बीमारी के पीछे ऐसे कारण हो सकते हैं जिनके बारे में आपको नहीं पता। जैसे सरदर्द थकावट या तनाव की वजह से भी हो सकती है, लेकिन यह ब्रेन हैमरेज से पहले की स्थिति भी हो सकता है। सीने में दर्द का हमेशा यह मतलब नहीं होता कि हार्ट अटैक ही होगा, यह गैस की परेशानी भी हो सकती है। पेट में दर्द कुछ गलत खाने-पीने से हो सकता है तो किडनी की समस्या होने पर भी हो सकता है या फिर पथरी की स्थिति में भी। ऐसे में समस्या की वजह जाने बगैर दवा के इस्तेमाल से फायदे से ज्यादा नुकसान की आशंका रहती है। परेशानी किस वजह से हो रही है, इसके बारे में सही तरीके से कोई डॉक्टर ही बता सकता है इसलिए सबसे बेहतर है कि परेशानी चाहे छोटी ही क्यों न हो, हमेशा डॉक्टर से सलाह लेकर ही दवा लें। और हां, डॉक्टर भी क्वॉलिफाइड होना चाहिए।
संभलकर लें दवाइयां, नुकसान बहुत हैं
सर्दी-जुकाम या दस्त या जख्मों की स्थिति में डॉक्टर से बिना पूछे ऐंटीबायॉटिक न लें और डॉक्टर ने जितनी डोज़ बताई है, उतनी ही लें। न उससे ज्यादा, न कम। कोर्स बीच में छोड़ देने यानी पूरी डोज़ न लेने पर भी ऐंटीबायॉटिक शरीर के लिए काफी हानिकारक साबित हो सकती है। इससे आपकी इम्यूनिटी कम हो सकती है। शरीर के लिए उपयोगी बैक्टीरिया काम करना बंद कर सकते हैं। यहां एक बात ध्यान देने लायक है कि बॉडी की अपनी भी इम्यूनिटी होती है। इसलिए जब बीमार पड़ें तो फौरन ही ऐंटीबायॉटिक लेना शुरू न करें। शुरू में इंफेक्शन से लड़ने के लिए शरीर पर भरोसा करना चाहिए। जब शरीर इंफेक्शन से छुटकारा लेने में खुद सफल न हो पाए, तब ही डॉक्टर को भी ऐंटीबायॉटिक की सलाह देनी चाहिए।
ऐंटीबायॉटिक के नुकसान
- हमारे शरीर में खरबों बैक्टीरिया रहते हैं। अमूमन हमें इनसे परेशानी नहीं होती। हां, कभी-कभी ये शरीर के किसी खास भाग में पहुंच जाते हैं तो समस्या होती है।
- जब हम बार-बार ऐंटीबायॉटिक खाते हैं तो कई बैक्टीरिया इन ऐंटीबायॉटिक्स के लिए रेजिस्टेंस डिवेलर कर लेते हैं। फिर इन पर इस ऐंटीबायॉटिक का असर नहीं होता।
- ऐंटीबायॉटिक के अनियंत्रित उपयोग का ही परिणाम है कि एमॉक्सिलिसीन (Amoxicilline) भारत में अब बैक्टीरिया से फैलने वाले बीमारी में प्रभावी नहीं रहा जबकि पश्चिमी देशों में यह आज भी खूब कारगर है। हमारे देश में 40-50 साल पहले तक यह दवा खूब प्रभावी थी। यह तो एक उदाहरण है, कई दूसरी मेडिसिन का भी असर अब कम होने लगा है।
कौन लिखेगा ऐंटीबायॉटिक
जब भी डॉक्टर के पास जाएं तो ध्यान में रखें कि जो डॉक्टर जिस फील्ड का एक्सपर्ट है, वह उन्हीं रोगों के लिए ऐंटीबायॉटिक लिख सकता है। मसलन: ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर आंख, कान और गला से संबंधित इंफेक्शन के लिए ऐंटीबायॉटिक लिख सकते हैं। अगर किसी को किडनी से जुड़ा इंफेक्शन है तो उसके लिए नेफ्रॉलजिस्ट सही डॉक्टर है। टीबी इंफेक्शन के लिए टीबी के स्पेशलिस्ट डॉक्टर ही सही ऐंटीबायॉटिक्स लिख सकते हैं। वहीं विदेशों में और अपने देश के कुछ बड़े प्राइवेट अस्पतालों में पावरफुल ऐंटीबायॉटिक लिखने के लिए MBBS/ MD/ DM जैसी डिग्री वाले डॉक्टरों को ID (इंफेक्शंस डिजीज) एक्सपर्ट से इनकी अनुमति लेनी पड़ती है।
पेनकिलर का दर्द
पेनकिलर का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल घातक हो सकता है। एक अनुमान के मुताबिक एक हजार से ज्यादा पेनकिलर टैब्लेट खा चुके इंसान को किडनी की समस्या हो सकती है। पेनकिलर लगातार लेते रहने से किडनी और लिवर पर बुरा असर पड़ सकता है। कुछ मामलों में इस वजह से पेट में ब्लीडिंग भी हो सकती है। इससे लिवर में पैदा होने वाले एंजाइम को लेकर समस्या हो सकती है।
कफ सीरप से नींद और नशा
कफ और खांसी की स्थिति में लोग डॉक्टर से बिना पूछे कफ सीरप ले लेते हैं, इससे बचना चाहिए। ज्यादातर कफ सीरप में नींद लाने वाले पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसके ज्यादा इस्तेमाल से नींद और नशे जैसी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। अमूमन कफ सीरप में 5 से 15 फीसदी तक अल्कोहल मौजूद रहता है। कई लोग इसे इतना लेते हैं कि एडिक्ट हो जाते हैं।
एसिडिटी की दवा भी घातक
एसिडिटी होने की स्थिति में कई तरह की दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इन दवाओं का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल शरीर के अंदर जरूरी एसिड की मात्रा को कम कर सकता है। इससे खाना पचने में दिक्कत होती है और इम्यून सिस्टम के लिए भी समस्या पैदा हो सकती है।
बर्थ कंट्रोल पिल्स का पंगा
गर्भनिरोधक गोलियों को लंबे समय तक ज्यादा मात्रा और बार-बार लेने से समस्या हो सकती है। यहां तक कि कई बार इससे गर्भधारण करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए खुद से ऐसी दवाइयां न लें। अगर डॉक्टदर के कहने पर ले रहे हैं तो समय-समय डॉक्टर से सलाह लेते रहें।
परेशानियों से बचाव के लिए क्या करें
मेडिसिन की डोज ज्यादा नहीं लें डॉक्टर जो डोज लेने के लिए कहे, उतनी ही मात्रा में दवा लें। ज्यादा मात्रा में दवा लेने का मतलब यह नहीं है कि आपकी परेशानी जल्द ठीक हो जाएगी, बल्कि नुकसान ज्यादा होगा। ज्यादा मात्रा में दवा का इस्तेमाल शरीर के लिए काफी नुकसानदेह है।
साइड इफेक्ट्स की रखें जानकारी
आप जो भी दवा लेते हैं, उसके साइड इफेक्ट के बारे में डॉक्टर से जरूर पता करें। इसकी जानकारी दवा के रैपर या बॉटल पर लिखी होती है। कुछ लोगों को कई मेडिसिन से एलर्जी होती है। ऐसे में सावधानी पूर्वक मेडिसिन का इस्तेमाल करना चाहिए। जब डॉक्टर के पास जाएं तो उन्हें बताएं कि आपको किन दवाओं से एलर्जी है।
क्या आप जानते हैं...
एक्सपायरी डेट का चक्कर
आमतौर पर दवा कंपनी एक्सपायरी डेट दवा के असल में खराब होने से कुछ पहले की प्रिंट करती है। ऐसे में अगर कभी आपने हाल ही (10 से 20 दिन) में एक्सपायर हुई कोई दवा गलती से खा ली है तो इसका आपके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ने की कम आशंका होती है। लेकिन इंसुलिन जैसी जीवनरक्षक दवाएं एक्सपायरी डेट के बाद खाने पर जानलेवा भी साबित हो सकती हैं। कोशिश करें कि एक्सपायरी डेट वाली दवाओं का इस्तेमाल न करें। अगर गलती से कभी ऐसा हो जाए तो किसी भी तरह की परेशानी से बचने के लिए फौरन डॉक्टर से मिलें।
पैरासिटामोल सेफ,लेकिन...
पैरासिटामोल को बाकी मेडिसिन की तुलना में सबसे सेफ माना जाता है, लेकिन इस मेडिसिन की ओवरडोज भी मुसीबत का सबब बन सकती है। अमूमन ऐसी दवाओं पर डोज लिखी होती है, उसी के अनुसार इन्हें लें। 500mg से ज्यादा और दिनभर में 2000mg से ज्यादा मात्रा में पैरासिटामोल लेने पर परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
कब माना जाए ओवरडोज
कोई भी मेडिसिन डॉक्टर के बताए समय या मात्रा से ज्यादा लेना ओवरडोज की कैटिगरी में आता है। उदाहरण के तौर पर अगर कोई दवा एक हफ्ते खाने के लिए दी गई है तो एक हफ्ते बाद उसे बंद कर देना चाहिए। अगर उसके बाद भी दो-तीन दिन या उससे ज्यादा दिनों तक जारी रखते हैं तो उसे ओवरडोज माना जाएगा। इसी तरह डॉक्टर जितनी मात्रा में मेडिसिन लेने को बोलें, उससे ज्यादा मात्रा में उसे न लें।
मेडिसिन के साइड इफेक्ट्स
- कब्ज
- पेट खराब होना, जी मिचलाना
- सिरदर्द
- चक्कर आना
- भूख न लगना
- डायरिया
- सिरदर्द
- चक्कर आना
- नींद न आना घबराहट और बेचैनी
- आलस और सुस्ती
- गला और मुंह सूखना
- सेक्शुअल प्रॉब्लम यानी
यौन समस्याएं
समझें शब्दावली
AC: खाने से पहले, PC: खाने के बाद
OD: दिन में एक बार BD/BDS: दिन में दो बार
TD/TDS: दिन में तीन बार
QD/QDS: दिन में चार बार
Tab: टैबलेट
Cap: कैप्सूल
Amp: इंजेक्शन रूप में
Ad Lib: जितनी जरूरत हो, उतना ही लें
G or Gm: ग्राम
Gtt: ड्रॉप्स
Mg: मिलिग्राम
Ml: मिलीलीटर
PO: मुंह से
साइड इफेक्ट्स हो रहे हैं, यह कैसे पता लगेगा?
आमतौर पर मेडिसिन के साइड इफेक्ट्स होने पर शरीर पर दाने निकल आते हैं। इसके अलावा, आलस और सुस्ती, डायरिया, गला-मुंह सूखना, घबराहट और बेचैनी जैसे लक्षण भी दवाओं के साइड इफेक्ट्स के हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में फौरन अपने डॉक्टर से मिलना सही होगा। यहां एक बात का और ध्यान रखें कि ऐसे लक्षण दूसरी बीमारियों के भी हो सकते हैं। इसलिए डॉक्टर की राय अहम है।
बच्चों के मामले में बरतें ज्यादा सावधानी
- बच्चे हों या बड़े, सभी में बीमारियों की सबसे बड़ी वजह वायरस होते हैं।
- सीधे कहें तो आम बीमारियों में 10 में से 7-8 मामले वायरस की ही देन होते हैं। मसलन, सर्दी, खांसी, बुखार आदि।
- आमतौर पर ऐसे में बच्चों को ऐंटीबायॉटिक देने का चलन है, लेकिन यह काम नहीं करता।
- दरअसल, अगर मामला वायरस का है तो ऐंटीबायॉटिक देने का कोई मतलब ही नहीं है। यह वायरस को खत्म नहीं कर सकता।
- डॉक्टर की सलाह है कि 3 साल से बड़े किसी बच्चे को बुखार हो गया है तो 2 से 3 दिनों तक पैरासिटामॉल दे सकते हैं।
- कुछ दवाइयों के लेबल पर उम्र और वजन के हिसाब से डोज लिखी होती है। इनका उपयोग हम अमूमन घरों में करते भी हैं, मसलन Crocin या Calpol, लेकिन डोज का ध्यान रखें। लेबल पर डोज लिखने का मतलब है कि लोग छोटी परेशानियों के लिए डॉक्टर के चक्कर कम लगाए। अगर बुखार 2-3 दिनों में ठीक नहीं हुआ तो डॉक्टर से जरूर मिलना चाहिए।
- अगर किसी दवाई पर डोज नहीं लिखी है तो इसका सीधा-सा मतलब है कि वह दवाई डॉक्टर से पूछकर ही लेनी चाहिए।
- अगर खांसी आदि है तो जरूरी नहीं कि दवाई ही दें। तुलसी पत्तों का रस और शहद मिलाकर दे सकते हैं या कोई अन्य प्रभावी घरेलू उपाय कर सकते हैं।
- अगर समस्या नवजात (एक से दो साल के बच्चे जो तकलीफ बता नहीं सकते) को है तो छोटी परेशानी में भी डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
- बच्चे जल्दी ठीक हो जाएं इसलिए कई डॉक्टर भी ऐंटीबायॉटिक खूब लिखते हैं। कई बार तो पैरंट्स खुद ही डॉक्टर पर ऐंटीबायॉटिक लिखने का दबाव बनाते हैं। यह सही नहीं है। बेवजह ऐंटीबायॉटिक का सेवन स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है।
अहम सवाल और उनके जवाब
क्या कभी भी डॉक्टर की सलाह के बगैर दवा नहीं ले सकते?
बिल्कुल। अगर आसपास कोई बड़ा डॉक्टर न हो तो किसी नजदीकी डॉक्टर से प्राइमरी एडवाइस ले लें। ऐसा भी न हो तो होम्योपैथ या आयुर्वेद के डॉक्टर का सहारा ले सकते हैं।
जिस बीमारी की (बुखार, पेट खराब, खांसी, पेट दर्द) डॉक्टर ने एक बार दवा लिख दी है, क्या वह दोबारा इस्तेमाल नहीं कर सकते?
नहीं करनी चाहिए। बुखार कई तरह का होता है। वहीं पेटदर्द, सिर दर्द या दूसरी शारीरिक परेशानियों के भी कारण अलग-अलग हो सकते हैं। ऐसे में उस बीमारी के लिए पहले लिखी गई दवा लेने की गलती न करें।
क्या दवा दुकानदार से पूछकर दवा ली जा सकती है?
दवा दुकान वाले ने न मेडिकल की पढ़ाई की होती है और न ही वे बीमारियों और उनके इलाज के एक्सपर्ट होते हैं। लोगों को मेडिसिन देने की वजह से वह अनुमान या अनुभव के आधार पर दवा लेने की सलाह देता है, जो जानलेवा भी साबित हो सकता है। अमूमन ऐसा भी देखा गया है कि केमिस्ट किसी भी तरह की समस्या के लिए ऐंटीबायॉटिक दे देते हैं। इसलिए भी बचना जरूरी है।
दवा कब लेनी चाहिए, खाली पेट या खाने
के बाद?
डॉक्टर जिस समय दवा लेने की सलाह दें, उसी समय लेना बेहतर होगा। जिन दवा से पेट में तकलीफ हो सकती है, उन्हें खाना खाने के बाद लेने की सलाह दी जाती है। जिनका शरीर में फौरन घुलना फायदेमंद होता है, उन्हें खाली पेट लेने की सलाह दी जाती है, लेकिन इसके बारे में फैसला डॉक्टर ही कर सकते हैं।
क्या ऐंटीबायॉटिक और पेनकिलर बार-बार और लगातार लेने से सेक्स लाइफ पर कोई असर पड़ता है?
ऐंटीबायॉटिक और पेनकिलर बार-बार लेने से सीधे सेक्स लाइफ पर कोई असर नहीं होता। हां, यह मुमकिन है कि लगातार ऐंटीबायॉटिक्स लेने से कुछ वक्त के लिए कमजोरी महसूस हो। इस कमजोरी की वजह से कभी-कभी इंसान की सेक्स लाइफ पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। वैसे कुछ दवाइयां सेक्स लाइफ को डिस्टर्ब कर सकती हैं। इनमें बीपी की दवाइयां, मिर्गी के इलाज में दी जाने वाली दवाइयां, डिप्रेशन की दवाएं, ऐंटी एंड्रोजन (पुरुष हॉर्मोन कम करने वाली दवाइयां) खासतौर पर शामिल हैं। कभी-कभी कुछ आयुर्वेदिक दवाइयां भी इंसान की कामेच्छा पर विपरीत असर डाल सकती हैं।
दवा बिस्कुट खाकर ले सकते हैं?
कोशिश करनी चाहिए कि पूरा खाना खाने के बाद ही दवा लें। लेकिन अगर मरीज कुछ खाने में असमर्थ हो तो बिस्कुट या ब्रेड खाकर दवा ले सकते हैं।
दवा चाय के साथ ले सकते हैं?
कोई भी दवा लेने के लिए सादा पानी सबसे बेहतर विकल्प है। डॉक्टर अमूमन यह भी बता देते हैं कि दवा को सामान्य पानी या गुनगुने पानी के साथ लेना है। दरअसल, चाय या कॉफी जैसी चीजें दवा की घुलनशीलता को प्रभावित कर सकती हैं। इसलिए दवा इनके साथ लेने से बचें।
खाना खाने के कितनी देर या खाने से कितनी देर पहले लें दवा?
दवा लेने की दो स्थिति होती है: खाली पेट (एंप्टी स्टोमक) और खाना खाने के बाद। खाली पेट दवा लेने के लिए इसलिए कही जाती है, ताकि शरीर उसका अवशोषण सही ढंग से करे। अगर डॉक्टर ने किसी पेशंट को खाली पेट दवा लेने के लिए कहा है तो कम से कम 15 से 20 मिनट पहले दवा जरूर लें। जहां तक खाने के बाद की बात है तो जब पेट पूरा भरा हो उस समय दवा लेने से उसका पूरा अवशोषण नहीं हो पाता। इसलिए खाने और दवा लेने में आधा घंटा से एक घंटे का अंतर जरूर रखें। वैसे यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि खाना और दवा लेने के अंतराल का निर्धारण डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही करें, साथ ही यह दवा किस तरह की है इस पर निर्भर करता है।
इन दवाओं के भी हैं साइड इफेक्ट्स
आयुर्वेदिक दवाएं
सामान्यतौर पर आयुर्वेदिक दवाओं को सबसे सेफ माना जाता है क्योंकि इसमें जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन जरूरत से ज्यादा मात्रा में लेने पर इनके भी साइड इफेक्ट्स हैं। आयुर्वेदिक दवाओं के ज्यादा इस्तेमाल पर सूजन, एलर्जी, पाचन तंत्र में परेशानी, लिवर और पेट को नुकसान जैसी कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
होम्योपैथिक दवाएं
लोगों में ऐसी धारणा है कि होम्योपैथिक दवाओं का साइड इफेक्ट नहीं होता, लेकिन डॉक्टर की तरफ से बताई गई समयसीमा से ज्यादा समय तक अगर इनका इस्तेमाल किया जाए तो इसके भी नुकसान हैं। दवा के नुकसान करने पर दाने निकल आते हैं। ऐसे लक्षण दिखने पर Nux V30 का इस्तेमाल करना फायदेमंद साबित हो सकता है, लेकिन इसके लिए भी डॉक्टर की सलाह जरूर लें।
लंबे समय तक चलनेवाली दवाएं
किसी भी दवा को जरूरी न होने पर ज्यादा समय तक नहीं लेना चाहिए, लेकिन कैंसर, अर्थराइटिस, एड्स जैसी बीमारियों के होने पर मजबूरी में लंबे समय तक मेडिसिन लेनी पड़ सकती हैं। ये जीवनरक्षक दवाएं जान बचाने का काम तो करती है, लेकिन लंबे समय तक लेने पर इनके साइड इफेक्ट्स भी होते हैं। इनके इस्तेमाल के बाद अक्सर पेटदर्द, सरदर्द, चक्कर आना, जी मिचलाना, उलटी जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा बाल उड़ने जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। ऐसे में आप डॉक्टर से सलाह ले सकते हैं कि कैसे नुकसान को कम से कम किया जाए।
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वर्ल्ड कैंसर डे: कैंसर को करें किल, बचाव और इलाज की पूरी जानकारी
कैंसर को करें किल
कैंसर का नाम पहले कभी-कभी सुनने को मिलता था, लेकिन अब बहुतों को यह अपने शिकंजे में ले रहा है। हालांकि अच्छी बात यह है कि अब इलाज पहले से ज्यादा सटीक, आसान और सस्ता हो गया है। एक्सपर्ट्स से बात करके कैंसर से बचाव और सही इलाज के बारे में जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह...
वर्ल्ड कैंसर डे 4 फरवरी
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. ललित कुमार, प्रफेसर और हेड, मेडिकल ऑन्कोलजी, एम्स
डॉ. अंशुमान कुमार, डायरेक्टर, सर्जिकल ऑन्कोलजी, धर्मशिला कैंसर हॉस्पिटल
डॉ. जी. बी. शर्मा, सीनियर कंसल्टंट, मेडिकल ऑन्कोलजी, ऐक्शन कैंसर हॉस्पिटल
डॉ. सुरेंद्र के. डबास, डायरेक्टर, सर्जिकल ऑन्कोलजी, बी. एल. कपूर हॉस्पिटल
डॉ. अभिषेक बंसल, कंसल्टंट, इंटरवेंशनल रेडियॉलजी, राजीव गांधी कैंसर हॉस्पिटल
क्या है कैंसर?
हमारे शरीर के सभी अंग सेल से बने होते हैं। ये सेल्स लगातार डिवाइड होते रहते हैं लेकिन कई बार ये बेकाबू होकर बंटने लगते हैं तो शरीर में गांठ (ट्यूमर) बन जाती है। यह गांठ 2 तरह की हो सकती हैं: बिनाइन और मैलिग्नेंट। बिनाइन गाठ खतरनाक नहीं होती, जबकि मैलिग्नेंट गांठ कैंसर में बदल जाती है।
कब जाएं डॉक्टर के पास
शरीर में कोई भी असामान्य लक्षण दिखने पर फौरन डॉक्टर को दिखाएं। ये लक्षण हो सकते हैं:
- अगर सोने और जागने का वक्त बदल गया हो
- मुंह खोलने, चबाने या निगलने में दिक्कत हो रही हो
- लगातार कब्ज रहती हो या 3 हफ्ते या ज्यादा से एसिडिटी लगातार बनी हुई हो (हर एसिडिटी कैंसर नहीं होती, पर यह एक लक्षण हो सकता है)
- 3 हफ्ते से ज्यादा लंबे समय से खांसी हो
- मुंह में या फिर शरीर में कहीं भी जख्म हो और 3 हफ्ते से ज्यादा वक्त से भरा नहीं हो
- बार-बार बुखार हो रहा हो या सभी इलाज के बाद भी बुखार 3 हफ्ते तक ठीक न हो रहा हो
- हीमोग्लोबिन यानी एचबी बेहद कम हो जाना
- शरीर में कहीं भी गांठ हो और वह बढ़ रही हो (दर्द न हो तो भी दिखाएं क्योंकि कैंसर में दर्द बहुत बाद की स्टेज में होता है)
- बलगम, पेशाब, शौच, इंटरकोर्स या पीरियड्स के बीच में बार-बार खून आना
- आवाज़ में बदलाव आ रहा हो, आवाज़ भारी हो रही हो
नोट: ये लक्षण दिखने के बाद भी 90 फीसदी चांस हैं कि कैंसर न हो लेकिन अगर कैंसर होगा तो शुरुआती स्टेज में बीमारी की जानकारी मिल जाए तो बेहतर इलाज मुमकिन है।
किस डॉक्टर को दिखाएं ?
शुरुआती जांच के लिए फैमिली डॉक्टर के पास भी जा सकते हैं लेकिन कैंसर का इलाज उसी डॉक्टर से कराएं, जिसके पास डीएम ऑन्कोलजी (जो एमडी के आगे की डिग्री है) या एम. सीएच. सर्जिकल ऑन्कोलजी (जोकि एमएस से आगे की डिग्री है) की डिग्री हो।
कितनी स्टेज होती हैं कैंसर की ?
कैंसर की 4 स्टेज होती हैं
स्टेज 1: यह शुरुआती स्टेज है और कैंसर जिस अंग का है, उसी में रहता है। साइज करीब 2 इंच तक होता है।
स्टेज 2: यह भी शुरुआती स्टेज है। कैंसर अगर उसी अंग में हो लेकिन साइज बढ़कर 5 इंच तक हो गया हो तो इस स्टेज का कैंसर कहलाएगा। स्टेज 1 और 2 में इलाज के बहुत अच्छे आसार होते हैं।
स्टेज 3: इसे इंटरमीडिएट स्टेज कहते हैं। इसमें कैंसर अंग विशेष से निकलकर आसपास के अंगों तक फैल जाता है। इलाज मुश्किल होता है लेकिन संभावनाएं रहती हैं।
स्टेज 4: शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल चुका है। ऐसे में आमतौर पर इलाज मुमकिन नहीं होता।
कैंसर का इलाज
कैंसर के इलाज में आमतौर पर 3 तरीके इस्तेमाल होते हैं: सर्जरी, कीमोथेरपी और रेडियोथेरपी लेकिन अब इंटरवेंशनल ऑन्कॉलजी का भी असर काफी अच्छा देखा जा रहा है।
1. सर्जरी: यह कैंसर का बेस्ट इलाज है। यह गलतफहमी है कि चाकू लगने से कैंसर फैलता है। सर्जरी में कामयाबी के आसार बहुत ज्यादा और रिस्क लगभग जीरो होता है।
2. कीमोथेरपी:इसमें मरीज को दवाएं दी जाती हैं, जो कैंसर सेल को मारती हैं। दिक्कत यह है कि ये कैंसर के साथ-साथ नॉर्मल सेल को भी मार देती हैं। इसके साइड इफेक्ट्स जैसे कि बाल झड़ना, उलटी होना, कमजोरी होना आदि भी काफी होते हैं। कीमोथेरपी 3-3 हफ्ते के अंतराल पर दी जाती है। कितनी कीमो दी जाएंगी, यह मरीज की स्थिति पर निर्भर करता है।
3. रेडियोथेरपी:कैंसर के सेल मारने के लिए मशीन की मदद से ट्यूमर पर कंट्रोल्ड रेडिएशन डाला जाता है। एक दिन में करीब 15-20 मिनट लगते हैं और हफ्ते में 5 दिन तक रेडियोथेरपी की जाती है। इस थेरपी में कई बार मुंह का सूखना, डायरिया, स्किन का काला होना जैसे साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं।
4. इंटरवेंशनल ऑन्कॉलजी: इसमें बिना चीरा लगाए सूई की मदद से सीधे कैंसर में दवा डाली जाती है या उसे जला दिया जाता है। लिवर से जुड़े कैंसर में यह ज्यादा असरदार है।
कब कौन-सी थेरपी?
आमतौर पर स्टेज 1 और स्टेज 2 में सर्जरी की जाती है, जबकि स्टेज 3 और स्टेज 4 में सर्जरी, कीमो और रेडिएशन में से किन्हीं दो का कॉम्बिनेशन इस्तेमाल किया जाता है। कौन-से दो तरीके इस्तेमाल होंगे, यह मरीज की हालत देखकर डॉक्टर तय करते हैं।
मुमकिन है बचाव
1. तंबाकू-शराब से तौबा
पुरुषों में सबसे ज्यादा कैंसर मुंह, गले और फेफड़ों का कैंसर होता है। इन तीनों ही कैंसर की सबसे बड़ी वजह तंबाकू है, फिर चाहे बीड़ी-सिगरेट हो या गुटखा। स्मोकिंग से प्रोस्टेट, किडनी, ब्रेस्ट और सर्विक्स कैंसर के भी चांस बढ़ जाते हैं। पुरुषों में करीब 50 फीसदी और महिलाओं में 20 फीसदी कैंसर की वजह तंबाकू होता है। अगर कोई शख्स 10 साल तक रोजाना 10-12 सिगरेट पीता है तो वह कैंसर का शिकार हो सकता है। अगर आपके आसपास कोई बीड़ी-सिगरेट पीता है तो उसका नुकसान आपको भी हो सकता है। ज्यादा शराब भी खतरनाक है। कोशिश करें कि इससे दूर रहें। कुछ स्टडी रोजाना एक पेग से ज्यादा तो खतरनाक मानती हैं तो कुछ जरा-सी मात्रा में शराब लेने को नुकसानदेह कहती हैं। ऐसे में तंबाकू और शराब से दूरी ही बेहतर है।
2. तनाव को टाटा
अगर आप तनाव में रहते हैं या फिर नाखुश रहते हैं तो शरीर से ऐसे केमिकल निकलते हैं, जो कैंसर की वजह बन सकते हैं। जिंदगी में पॉजिटिव सोच बनाए रखना बहुत जरूरी। एक-दो दिन के लिए दुखी रहने से फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर कुछ महीने या बरसों तक दुखी रहें या तनाव में रहें तो कैंसर की आशंका बढ़ती है। खुश रहने के अलावा रोजाना 6-7 घंटे की अच्छी नींद भी बहुत जरूरी है। ऐसा करने से शरीर कैंसर से लड़ने की क्षमता हासिल करता है।
3. पलूशन का ढूंढें सलूशन
2018 में दिल्ली के सर गंगाराम हॉस्पिटल में एक स्टडी की गई जिसमें पाया गया कि मार्च 2012 से जून 2018 के बीच अस्पताल में आनेवाले लंग कैंसर के कुल 150 मरीजों में से 76 स्मोकर और 74 नॉन-स्मोकर थे यानी 50 फीसदी मरीज वे थे, जो बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते थे। इसकी एक बड़ी वजह दिल्ली-एनसीआर में बढ़ रहे एयर पलूशन को भी माना जा रहा है। ऐसे में कोशिश करें कि उन इलाकों से न गुजरें, जहां हेवी ट्रैफिक रहता है। सर्दियों में ज्यादा स्मॉग के समय बाहर निकलना हो तो N95 मास्क लगाएं। घर में हवा को साफ करने वाले पौधे जैसे कि मनी प्लांट, मदर-इन-लॉ टंग आदि लगाएं। घर के अंदर वर्टिकल गार्डन बनवाएं। इसके अलावा, प्लास्टिक के बर्तनों में खाने-पीने की चीजें गर्म करने से बचें। बार-बार गर्म करने से प्लास्टिक कंटेनर्स के केमिकल्स टूटकर खाने-पीने की चीजों में मिलने लगते हैं जो आगे जाकर कैंसर का कारण भी बन सकते हैं।
4. ऐक्टिव रहें, फिट रहें
रोजाना कम-से-कम 30-45 मिनट एक्सरसाइज जरूर करें। कुछ और नहीं कर सकते तो तेज रफ्तार से सैर ही करें लेकिन ऐक्टिव रहें। हो सके तो घर से बाहर जाकर रोजाना 1 घंटा खेलें। दरअसल, अगर शरीर में फैट ज्यादा होता है तो फैट में मौजूद एंजाइम मेल हॉर्मोन को फीमेल हॉर्मोन एस्ट्रोजिन में बदल देते हैं। फीमेल हॉर्मोन ज्यादा बढ़ने पर ब्लड कैंसर, प्रोस्टेट, ब्रेस्ट कैंसर और सर्विक्स (यूटरस) कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। हाई कैलरी, प्रीजर्व्ड या जंक फूड, नॉन-वेज ज्यादा लेने से समस्या और बढ़ जाती है। पित्जा, बर्गर, चिप्स जैसे जंक और फैटी फूड ज्यादा खाने और फाइबर (सब्जियां, फल आदि) कम खाने से शरीर में टॉक्सिंस यानी जहरीले पदार्थ जमा हो जाते हैं। इसके अलावा, फसलों को उगाने में ज्यादा केमिकल खाद और पेस्टिसाइड का इस्तेमाल, फल-सब्जियों ताजा दिखाने के लिए उन्हें रंग (फॉर्मेलिन) में रंगना, अदरक को एसिड में धोना, चिकन के जरिए हेवी मेटल्स का शरीर में पहुंचना आदि वजहों से शरीर में कैंसर की आशंका बढ़ रही है। बेहतर है कि ज्यादा-से-ज्यादा हरी सब्जियां और फल लें। इनमें फाइबर और एंटी-ऑक्सिडेंट होते हैं। एंटी-ऑक्सिडेंट बुढ़ापे की प्रक्रिया को धीमा कर कैंसर सेल्स को मारने में मदद करते हैं।
5. इन्फेक्शन से बचें
हेपटाइटिस बी, हेपटाइटिस सी, एचपीवी जैसे इन्फेक्शन कैंसर की वजह सकते हैं। हेपटाइटिस सी के इन्फेक्शन से लिवर का कैंसर और एचपीवी से महिलाओं में सर्वाइकल और पुरुषों में मुंह का कैंसर हो सकता है। इनकी रोकथाम के लिए वैक्सीन भी लगवा सकते हैं। हेपटाइटिस बी की रोकथाम के लिए हेप्ट बी वैक्सीन और सर्वाइकल कैंसर की रोकथाम के लिए एचपीवी वैक्सीन लगाई जाती है। हेपटाइटिस बी का टीका किसी भी उम्र में लगवा सकते हैं जबकि सर्वाइकल कैंसर का टीका सेक्स शुरू करने से पहले यानी करीब 8-18 साल की लड़कियों में लगवाना बेहतर है। हालांकि बाद में भी लगवा सकती हैं लेकिन अगर महिला सेक्सुअली ऐक्टिव है और वायरस पहले ही लपेटे में ले चुका हो तो वैक्सीन असर नहीं करेगी।
जल्दी पता लगाने के लिए कौन-से टेस्ट कराएं
हमारे देश में कैंसर के करीब 75-80 फीसदी मामले अडवांस स्टेज के होते हैं। इसकी दो बड़ी वजहें हैः पहली, लोगों को जानकारी कम होना और यह मानना कि उन्हें कैंसर नहीं हो सकता। दूसरी, डॉक्टरों का पूरी जांच किए बिना, दूसरी बीमारी समझ इलाज करते रहना। शुरुआती स्टेज में पता लग जाए तो कैंसर का इलाज मुमकिन है। इसके लिए कुछ बातों का ख्याल रखें।
ब्रेस्ट कैंसर के लिए
- सभी महिलाएं 30 साल की उम्र के बाद हर महीने खुद ब्रेस्ट की अच्छी तरह जांच करें। बेहतर है कि इसके लिए पीरियड्स शुरू होने से 7वां दिन तय करें। 40 साल की उम्र में डॉक्टर से जांच कराएं या मेमोग्राफी कराएं। गड़बड़ी नहीं है तो 2 साल में फिर कराएं। फैमिली हिस्ट्री है तो 20 साल की उम्र से ही खुद जांच करनी शुरू करें और 35 साल की उम्र में एमआरआई करा लें। दरअसल, कम उम्र में ब्रेस्ट ठोस होता है और ऐसे में मेमोग्राफी की बजाय एमआरआई कराना बेहतर है।
- अगर नानी, मां या बहन को ब्रेस्ट कैंसर हुआ है तो ब्रेस्ट कैंसर जीन टेस्ट (BRCA) करा लेना चाहिए। इसे किसी भी उम्र में करा सकते हैं। ब्रेका-1 में गड़बड़ी होने पर कैंसर की आशंका 80 फीसदी तक और ब्रेका-2 में गड़बड़ी होने पर आशंका 50 फीसदी तक बढ़ जाती है। ये दोनों टेस्ट करीब 26 हजार रुपये में हो जाते हैं और जिंदगी में एक ही बार कराने होते हैं। टेस्ट पॉजिटिव आता है तो डॉक्टर की सलाह से लाइफस्टाइल सुधार कर कैंसर की आशंका को कम किया जा सकता है। इसी टेस्ट से हॉलिवुड एक्ट्रेस एंजलिना जोली को कैंसर की आशंका का पता चला और उन्होंने अपने ब्रेस्ट को सर्जरी कर हटवा दिया। कुछ एक्सपर्ट उनके इस कदम को गलत भी मानते हैं।
सर्वाइकल कैंसर के लिए
शादी के तीन साल के बाद पेप स्मियर टेस्ट कराएं। 3 साल लगातार कराने के बाद हर 3 साल में एक बार कराएं।
मुंह-गले के कैंसर के लिए
पान-गुटखा खाते हैं या शराब-सिगरेट पीते हैं तो 30 साल के बाद हर साल एक बार ईएनटी स्पेशलिस्ट या फिर हेड/नेक सर्जन से अपने मुंह और गले की जांच करा लें।
लंग्स के कैंसर के लिए
अगर कोई 15-20 साल से स्मोक कर रहा है और खांसी भी है तो उसे फेफड़ों का सीटी स्कैन करा लेना चाहिए। अगर रिस्क नहीं है तो भी 40 साल की उम्र में एक बार फेफड़ों का एक्स-रे या सीटी स्कैन करा लेना चाहिए।
प्रोस्टेट कैंसर के लिए
50 साल की उम्र में पुरुषों को पीएसए टेस्ट करा लेना चाहिए। हर 2 साल या डॉक्टर के बताए अनुसार रिपीट कराएं। अगर प्रोस्टेट कैंसर की फैमिली हिस्ट्री है या पेशाब संबंधी परेशानी है तो 40 साल की उम्र में ही यह टेस्ट करा लें।
कोलोन (आंत) कैंसर के लिए
अगर पॉटी में खून आ रहा है तो स्टूल ऑकल्ट ब्लड टेस्ट कराएं। कोई गड़बड़ी निकलने पर कोलोनोस्कोपी करा सकते हैं, जिससे कैंसर की जानकारी मिल जाती है।
इलाज में नया क्या
हाल के बरसों में कैंसर के इलाज में कई तकनीक आई हैं। इनमें खास हैं...
सर्जरी: अब बड़े अस्पतालों में रोबॉटिक सर्जरी की जाती है। यह थ्री-डायमेंशन सर्जरी है यानी इसमें लंबाई-चौड़ाई के साथ कट की गहराई भी नजर आती है। इसमें खून कम निकलता है और गलती की गुंजाइश भी कम होती है। रोबॉट में लगे कैमरों की मदद से सर्जरी ज्यादा सटीक हो पाती है। मरीज जल्दी घर जा सकता है। आम सर्जरी के मुकाबले इसमें एक-डेढ़ लाख रुपये ज्यादा खर्च आता है।
HIPEC: हाइपरथर्मिक इंट्रापेरिटोनिअल कीमोथेरपी को पेट, ओवरी और कोलोन के कैंसर में इस्तेमाल किया जाता ह। इसमें 42 डिग्री गर्म पानी के साथ कीमो दी जाती है जिससे कैंसर सेल ज्यादा तेजी से मरते हैं। इसके जरिए दवा सीधे सीधे ट्यूमर में डाली जाती है। इसका असर ज्यादा है और साइड इफेक्ट्स काफी कम हैं। आम कीमोथेरपी के मुकाबले इसमें एक-डेढ़ रुपये तक खर्च ज्यादा आता है।
टारगेटिड थेरपी: आम कीमो सारे सेल्स को मारती है जबकि टारगेटिड थेरपी में दवा सिर्फ कैंसर सेल्स को ही टारगेट करती है। लंग्स, किडनी और कोलोन कैंसर में यह खासकर असरदार है। यह टैब्लेट और इंजेक्शन, दोनों तरीकों से दी जाती है। कैंसर के प्रकार और स्टेज के अनुसार इसकी कीमत 5000 रुपये से लेकर 1.5 लाख रुपये प्रति महीना तक हो सकती है।
इम्यूनोथेरपी: इसमें दवा की मदद से कैंसर एंटीजन के खिलाफ एंटी-बॉडीज़ तैयार की जाती हैं। यह टारगेटिड थेरपी का ही एक हिस्सा है और स्टेज 4 के कैंसर में मरीज की उम्र बढ़ाने में मददगार है। एक बार कैंसर होने के बाद दोबारा होने से रोकने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। कैंसर के प्रकार और स्टेज के अनुसार इसका एक महीने का खर्च 20 हजार से लेकर 5 लाख रुपये तक हो सकता है।
पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट: पहले एक तरह के कैंसर के सभी मरीजों का एक जैसा इलाज किया जाता था, जबकि अब मरीज की स्थिति, दूसरी बीमारियों और किसी दवा के उस पर असर के अनुसार पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट भी तैयार किया जाता है। इसकी कीमत 30-60 हजार रुपये महीने पड़ती है।
जीन प्रोफाइलिंग: इसे जीन मैपिंग भी कहा जाता है। इसमें जीन्स की स्टडी की जाती है और देखा जाता है कि उस जीन की खराबी की आशंका कितनी है। ब्रेस्ट कैंसर होने की आंशका का पता लगाने के लिए किया जाने वाला ब्रेका टेस्ट जीन मैपिंग ही है। दूसरे कैंसरों के लिए जीन मैपिंग के अभी खास नतीजे नहीं आए हैं।
TACE और TARE थेरपी: ट्रांसआर्टिरियल कीमोएंबोलाइजेशन और ट्रांसआर्टिरियल रेडियोएंबोलाइजेशन, इंटरवेंशनल ऑन्कॉलजी ट्रीटमेंट की कैटिगरी में आते हैं। इन्हें खासतौर पर लिवर के कैंसर के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 3 सेंटीमीटर से बड़े ट्यूमर के लिए TACE और TARE तकनीक इस्तेमाल की जाती है। इसमें एंजियोग्राफी करके सीधे ट्यूमर के अंदर दवा डाली जाती है। इस तरह बिना सर्जरी के ट्यूमर खत्म हो जाता है। इसके साइड इफेक्ट्स भी काफी कम हैं। एक सीटिंग का खर्च करीब 1 लाख रुपये पड़ता है। आमतौर पर 1 या 2 सिटिंग की जरूरत होती है।
ट्यूमर एब्लेशन थेरपी: इसमें सूई डालकर रेडियोफ्रिक्वेंस या माइक्रोवेव किरणों की मदद से सीधे कैंसर को जला दिया जाता है। लंग्स, लिवर और किडनी के कैंसर में यह तकनीक ज्यादा असरदार है। एक सिटिंग की कीमत करीब 1 लाख रुपये होती है और आमतौर पर एक सिटिंग इलाज के लिए पर्याप्त होती है।
प्रोटॉन थेरपी: कैंसर सेल्स को खत्म करने के लिए किए जाने वाले रेडिएशन में अब प्रोटॉन का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है, जिसे प्रोटॉन थेरपी का नाम दिया गया है। यह तरीका ज्यादा सटीक तरीके से कैंसर सेल्स को खत्म करता है और साइड इफेक्ट भी कम हैं लेकिन इसकी कीमतें काफी ज्यादा हैं। इस पर करीब 20 लाख रुपये का खर्च आता है। अपने देश में यह तकनीक फिलहाल सिर्फ चेन्नै में अपोलो प्रोटोन कैंसर सेंटर में इस्तेमाल हो रही है।
टेस्ट
टोमोसिंथेसिस: कैंसर की पहचान के लिए टोमोसिंथेसिस (Tomosynthesis) तकनीक का सहारा लिया जाता है। टोमोसिंथेसिस में थ्री-डी पिक्चर आती है और कैंसर के बारे में बेहतर अनुमान लगाया जा सकता है। इसकी कीमत करीब 10-12 हजार रुपये होती है।
लिक्विड बायोप्सी: अब ब्लड टेस्ट से भी कैंसर और उसके असर आदि का पता लगाया जा सकता है। अगर कैंसर सेल ब्लड में आ रहे हैं तो इससे पता लग सकता है। लंग कैंसर में ज्यादा फायदेमंद है। इसकी कीमत करीब 30 से 40 हजार रुपये होती है।
यह हक भी जरूरी
डॉ. ललित कुमार और डॉ. अंशुमान का कहना है कि अगर किसी मरीज का कैंसर चौथी स्टेज में पहुंच जाए और उसके ठीक होने की उम्मीद लगभग न हो तो जबरन कीमोथेरपी या दूसरे इलाज कराने के बजाय मरीज को आखिरी दिन शांति और सुकून से बिताने दें। यह अहम है कि उसके जितने दिन बचे हैं, वे अच्छे गुजरें। जबरन दवा देने के बजाय डॉक्टर मरीज के दर्द को कम करने की कोशिश करें। इस दौरान घरवाले भी मरीज की पसंद और खुशी का ख्याल रखें। इससे मरीज के आखिरी दिन सुकून से बीतेंगे और घरवालों पर भी पैसे का फिजूल बोझ नहीं पड़ेगा।
कैंसर का नाम पहले कभी-कभी सुनने को मिलता था, लेकिन अब बहुतों को यह अपने शिकंजे में ले रहा है। हालांकि अच्छी बात यह है कि अब इलाज पहले से ज्यादा सटीक, आसान और सस्ता हो गया है। एक्सपर्ट्स से बात करके कैंसर से बचाव और सही इलाज के बारे में जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह...
वर्ल्ड कैंसर डे 4 फरवरी
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. ललित कुमार, प्रफेसर और हेड, मेडिकल ऑन्कोलजी, एम्स
डॉ. अंशुमान कुमार, डायरेक्टर, सर्जिकल ऑन्कोलजी, धर्मशिला कैंसर हॉस्पिटल
डॉ. जी. बी. शर्मा, सीनियर कंसल्टंट, मेडिकल ऑन्कोलजी, ऐक्शन कैंसर हॉस्पिटल
डॉ. सुरेंद्र के. डबास, डायरेक्टर, सर्जिकल ऑन्कोलजी, बी. एल. कपूर हॉस्पिटल
डॉ. अभिषेक बंसल, कंसल्टंट, इंटरवेंशनल रेडियॉलजी, राजीव गांधी कैंसर हॉस्पिटल
क्या है कैंसर?
हमारे शरीर के सभी अंग सेल से बने होते हैं। ये सेल्स लगातार डिवाइड होते रहते हैं लेकिन कई बार ये बेकाबू होकर बंटने लगते हैं तो शरीर में गांठ (ट्यूमर) बन जाती है। यह गांठ 2 तरह की हो सकती हैं: बिनाइन और मैलिग्नेंट। बिनाइन गाठ खतरनाक नहीं होती, जबकि मैलिग्नेंट गांठ कैंसर में बदल जाती है।
कब जाएं डॉक्टर के पास
शरीर में कोई भी असामान्य लक्षण दिखने पर फौरन डॉक्टर को दिखाएं। ये लक्षण हो सकते हैं:
- अगर सोने और जागने का वक्त बदल गया हो
- मुंह खोलने, चबाने या निगलने में दिक्कत हो रही हो
- लगातार कब्ज रहती हो या 3 हफ्ते या ज्यादा से एसिडिटी लगातार बनी हुई हो (हर एसिडिटी कैंसर नहीं होती, पर यह एक लक्षण हो सकता है)
- 3 हफ्ते से ज्यादा लंबे समय से खांसी हो
- मुंह में या फिर शरीर में कहीं भी जख्म हो और 3 हफ्ते से ज्यादा वक्त से भरा नहीं हो
- बार-बार बुखार हो रहा हो या सभी इलाज के बाद भी बुखार 3 हफ्ते तक ठीक न हो रहा हो
- हीमोग्लोबिन यानी एचबी बेहद कम हो जाना
- शरीर में कहीं भी गांठ हो और वह बढ़ रही हो (दर्द न हो तो भी दिखाएं क्योंकि कैंसर में दर्द बहुत बाद की स्टेज में होता है)
- बलगम, पेशाब, शौच, इंटरकोर्स या पीरियड्स के बीच में बार-बार खून आना
- आवाज़ में बदलाव आ रहा हो, आवाज़ भारी हो रही हो
नोट: ये लक्षण दिखने के बाद भी 90 फीसदी चांस हैं कि कैंसर न हो लेकिन अगर कैंसर होगा तो शुरुआती स्टेज में बीमारी की जानकारी मिल जाए तो बेहतर इलाज मुमकिन है।
किस डॉक्टर को दिखाएं ?
शुरुआती जांच के लिए फैमिली डॉक्टर के पास भी जा सकते हैं लेकिन कैंसर का इलाज उसी डॉक्टर से कराएं, जिसके पास डीएम ऑन्कोलजी (जो एमडी के आगे की डिग्री है) या एम. सीएच. सर्जिकल ऑन्कोलजी (जोकि एमएस से आगे की डिग्री है) की डिग्री हो।
कितनी स्टेज होती हैं कैंसर की ?
कैंसर की 4 स्टेज होती हैं
स्टेज 1: यह शुरुआती स्टेज है और कैंसर जिस अंग का है, उसी में रहता है। साइज करीब 2 इंच तक होता है।
स्टेज 2: यह भी शुरुआती स्टेज है। कैंसर अगर उसी अंग में हो लेकिन साइज बढ़कर 5 इंच तक हो गया हो तो इस स्टेज का कैंसर कहलाएगा। स्टेज 1 और 2 में इलाज के बहुत अच्छे आसार होते हैं।
स्टेज 3: इसे इंटरमीडिएट स्टेज कहते हैं। इसमें कैंसर अंग विशेष से निकलकर आसपास के अंगों तक फैल जाता है। इलाज मुश्किल होता है लेकिन संभावनाएं रहती हैं।
स्टेज 4: शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल चुका है। ऐसे में आमतौर पर इलाज मुमकिन नहीं होता।
कैंसर का इलाज
कैंसर के इलाज में आमतौर पर 3 तरीके इस्तेमाल होते हैं: सर्जरी, कीमोथेरपी और रेडियोथेरपी लेकिन अब इंटरवेंशनल ऑन्कॉलजी का भी असर काफी अच्छा देखा जा रहा है।
1. सर्जरी: यह कैंसर का बेस्ट इलाज है। यह गलतफहमी है कि चाकू लगने से कैंसर फैलता है। सर्जरी में कामयाबी के आसार बहुत ज्यादा और रिस्क लगभग जीरो होता है।
2. कीमोथेरपी:इसमें मरीज को दवाएं दी जाती हैं, जो कैंसर सेल को मारती हैं। दिक्कत यह है कि ये कैंसर के साथ-साथ नॉर्मल सेल को भी मार देती हैं। इसके साइड इफेक्ट्स जैसे कि बाल झड़ना, उलटी होना, कमजोरी होना आदि भी काफी होते हैं। कीमोथेरपी 3-3 हफ्ते के अंतराल पर दी जाती है। कितनी कीमो दी जाएंगी, यह मरीज की स्थिति पर निर्भर करता है।
3. रेडियोथेरपी:कैंसर के सेल मारने के लिए मशीन की मदद से ट्यूमर पर कंट्रोल्ड रेडिएशन डाला जाता है। एक दिन में करीब 15-20 मिनट लगते हैं और हफ्ते में 5 दिन तक रेडियोथेरपी की जाती है। इस थेरपी में कई बार मुंह का सूखना, डायरिया, स्किन का काला होना जैसे साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं।
4. इंटरवेंशनल ऑन्कॉलजी: इसमें बिना चीरा लगाए सूई की मदद से सीधे कैंसर में दवा डाली जाती है या उसे जला दिया जाता है। लिवर से जुड़े कैंसर में यह ज्यादा असरदार है।
कब कौन-सी थेरपी?
आमतौर पर स्टेज 1 और स्टेज 2 में सर्जरी की जाती है, जबकि स्टेज 3 और स्टेज 4 में सर्जरी, कीमो और रेडिएशन में से किन्हीं दो का कॉम्बिनेशन इस्तेमाल किया जाता है। कौन-से दो तरीके इस्तेमाल होंगे, यह मरीज की हालत देखकर डॉक्टर तय करते हैं।
मुमकिन है बचाव
1. तंबाकू-शराब से तौबा
पुरुषों में सबसे ज्यादा कैंसर मुंह, गले और फेफड़ों का कैंसर होता है। इन तीनों ही कैंसर की सबसे बड़ी वजह तंबाकू है, फिर चाहे बीड़ी-सिगरेट हो या गुटखा। स्मोकिंग से प्रोस्टेट, किडनी, ब्रेस्ट और सर्विक्स कैंसर के भी चांस बढ़ जाते हैं। पुरुषों में करीब 50 फीसदी और महिलाओं में 20 फीसदी कैंसर की वजह तंबाकू होता है। अगर कोई शख्स 10 साल तक रोजाना 10-12 सिगरेट पीता है तो वह कैंसर का शिकार हो सकता है। अगर आपके आसपास कोई बीड़ी-सिगरेट पीता है तो उसका नुकसान आपको भी हो सकता है। ज्यादा शराब भी खतरनाक है। कोशिश करें कि इससे दूर रहें। कुछ स्टडी रोजाना एक पेग से ज्यादा तो खतरनाक मानती हैं तो कुछ जरा-सी मात्रा में शराब लेने को नुकसानदेह कहती हैं। ऐसे में तंबाकू और शराब से दूरी ही बेहतर है।
2. तनाव को टाटा
अगर आप तनाव में रहते हैं या फिर नाखुश रहते हैं तो शरीर से ऐसे केमिकल निकलते हैं, जो कैंसर की वजह बन सकते हैं। जिंदगी में पॉजिटिव सोच बनाए रखना बहुत जरूरी। एक-दो दिन के लिए दुखी रहने से फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर कुछ महीने या बरसों तक दुखी रहें या तनाव में रहें तो कैंसर की आशंका बढ़ती है। खुश रहने के अलावा रोजाना 6-7 घंटे की अच्छी नींद भी बहुत जरूरी है। ऐसा करने से शरीर कैंसर से लड़ने की क्षमता हासिल करता है।
3. पलूशन का ढूंढें सलूशन
2018 में दिल्ली के सर गंगाराम हॉस्पिटल में एक स्टडी की गई जिसमें पाया गया कि मार्च 2012 से जून 2018 के बीच अस्पताल में आनेवाले लंग कैंसर के कुल 150 मरीजों में से 76 स्मोकर और 74 नॉन-स्मोकर थे यानी 50 फीसदी मरीज वे थे, जो बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते थे। इसकी एक बड़ी वजह दिल्ली-एनसीआर में बढ़ रहे एयर पलूशन को भी माना जा रहा है। ऐसे में कोशिश करें कि उन इलाकों से न गुजरें, जहां हेवी ट्रैफिक रहता है। सर्दियों में ज्यादा स्मॉग के समय बाहर निकलना हो तो N95 मास्क लगाएं। घर में हवा को साफ करने वाले पौधे जैसे कि मनी प्लांट, मदर-इन-लॉ टंग आदि लगाएं। घर के अंदर वर्टिकल गार्डन बनवाएं। इसके अलावा, प्लास्टिक के बर्तनों में खाने-पीने की चीजें गर्म करने से बचें। बार-बार गर्म करने से प्लास्टिक कंटेनर्स के केमिकल्स टूटकर खाने-पीने की चीजों में मिलने लगते हैं जो आगे जाकर कैंसर का कारण भी बन सकते हैं।
4. ऐक्टिव रहें, फिट रहें
रोजाना कम-से-कम 30-45 मिनट एक्सरसाइज जरूर करें। कुछ और नहीं कर सकते तो तेज रफ्तार से सैर ही करें लेकिन ऐक्टिव रहें। हो सके तो घर से बाहर जाकर रोजाना 1 घंटा खेलें। दरअसल, अगर शरीर में फैट ज्यादा होता है तो फैट में मौजूद एंजाइम मेल हॉर्मोन को फीमेल हॉर्मोन एस्ट्रोजिन में बदल देते हैं। फीमेल हॉर्मोन ज्यादा बढ़ने पर ब्लड कैंसर, प्रोस्टेट, ब्रेस्ट कैंसर और सर्विक्स (यूटरस) कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। हाई कैलरी, प्रीजर्व्ड या जंक फूड, नॉन-वेज ज्यादा लेने से समस्या और बढ़ जाती है। पित्जा, बर्गर, चिप्स जैसे जंक और फैटी फूड ज्यादा खाने और फाइबर (सब्जियां, फल आदि) कम खाने से शरीर में टॉक्सिंस यानी जहरीले पदार्थ जमा हो जाते हैं। इसके अलावा, फसलों को उगाने में ज्यादा केमिकल खाद और पेस्टिसाइड का इस्तेमाल, फल-सब्जियों ताजा दिखाने के लिए उन्हें रंग (फॉर्मेलिन) में रंगना, अदरक को एसिड में धोना, चिकन के जरिए हेवी मेटल्स का शरीर में पहुंचना आदि वजहों से शरीर में कैंसर की आशंका बढ़ रही है। बेहतर है कि ज्यादा-से-ज्यादा हरी सब्जियां और फल लें। इनमें फाइबर और एंटी-ऑक्सिडेंट होते हैं। एंटी-ऑक्सिडेंट बुढ़ापे की प्रक्रिया को धीमा कर कैंसर सेल्स को मारने में मदद करते हैं।
5. इन्फेक्शन से बचें
हेपटाइटिस बी, हेपटाइटिस सी, एचपीवी जैसे इन्फेक्शन कैंसर की वजह सकते हैं। हेपटाइटिस सी के इन्फेक्शन से लिवर का कैंसर और एचपीवी से महिलाओं में सर्वाइकल और पुरुषों में मुंह का कैंसर हो सकता है। इनकी रोकथाम के लिए वैक्सीन भी लगवा सकते हैं। हेपटाइटिस बी की रोकथाम के लिए हेप्ट बी वैक्सीन और सर्वाइकल कैंसर की रोकथाम के लिए एचपीवी वैक्सीन लगाई जाती है। हेपटाइटिस बी का टीका किसी भी उम्र में लगवा सकते हैं जबकि सर्वाइकल कैंसर का टीका सेक्स शुरू करने से पहले यानी करीब 8-18 साल की लड़कियों में लगवाना बेहतर है। हालांकि बाद में भी लगवा सकती हैं लेकिन अगर महिला सेक्सुअली ऐक्टिव है और वायरस पहले ही लपेटे में ले चुका हो तो वैक्सीन असर नहीं करेगी।
जल्दी पता लगाने के लिए कौन-से टेस्ट कराएं
हमारे देश में कैंसर के करीब 75-80 फीसदी मामले अडवांस स्टेज के होते हैं। इसकी दो बड़ी वजहें हैः पहली, लोगों को जानकारी कम होना और यह मानना कि उन्हें कैंसर नहीं हो सकता। दूसरी, डॉक्टरों का पूरी जांच किए बिना, दूसरी बीमारी समझ इलाज करते रहना। शुरुआती स्टेज में पता लग जाए तो कैंसर का इलाज मुमकिन है। इसके लिए कुछ बातों का ख्याल रखें।
ब्रेस्ट कैंसर के लिए
- सभी महिलाएं 30 साल की उम्र के बाद हर महीने खुद ब्रेस्ट की अच्छी तरह जांच करें। बेहतर है कि इसके लिए पीरियड्स शुरू होने से 7वां दिन तय करें। 40 साल की उम्र में डॉक्टर से जांच कराएं या मेमोग्राफी कराएं। गड़बड़ी नहीं है तो 2 साल में फिर कराएं। फैमिली हिस्ट्री है तो 20 साल की उम्र से ही खुद जांच करनी शुरू करें और 35 साल की उम्र में एमआरआई करा लें। दरअसल, कम उम्र में ब्रेस्ट ठोस होता है और ऐसे में मेमोग्राफी की बजाय एमआरआई कराना बेहतर है।
- अगर नानी, मां या बहन को ब्रेस्ट कैंसर हुआ है तो ब्रेस्ट कैंसर जीन टेस्ट (BRCA) करा लेना चाहिए। इसे किसी भी उम्र में करा सकते हैं। ब्रेका-1 में गड़बड़ी होने पर कैंसर की आशंका 80 फीसदी तक और ब्रेका-2 में गड़बड़ी होने पर आशंका 50 फीसदी तक बढ़ जाती है। ये दोनों टेस्ट करीब 26 हजार रुपये में हो जाते हैं और जिंदगी में एक ही बार कराने होते हैं। टेस्ट पॉजिटिव आता है तो डॉक्टर की सलाह से लाइफस्टाइल सुधार कर कैंसर की आशंका को कम किया जा सकता है। इसी टेस्ट से हॉलिवुड एक्ट्रेस एंजलिना जोली को कैंसर की आशंका का पता चला और उन्होंने अपने ब्रेस्ट को सर्जरी कर हटवा दिया। कुछ एक्सपर्ट उनके इस कदम को गलत भी मानते हैं।
सर्वाइकल कैंसर के लिए
शादी के तीन साल के बाद पेप स्मियर टेस्ट कराएं। 3 साल लगातार कराने के बाद हर 3 साल में एक बार कराएं।
मुंह-गले के कैंसर के लिए
पान-गुटखा खाते हैं या शराब-सिगरेट पीते हैं तो 30 साल के बाद हर साल एक बार ईएनटी स्पेशलिस्ट या फिर हेड/नेक सर्जन से अपने मुंह और गले की जांच करा लें।
लंग्स के कैंसर के लिए
अगर कोई 15-20 साल से स्मोक कर रहा है और खांसी भी है तो उसे फेफड़ों का सीटी स्कैन करा लेना चाहिए। अगर रिस्क नहीं है तो भी 40 साल की उम्र में एक बार फेफड़ों का एक्स-रे या सीटी स्कैन करा लेना चाहिए।
प्रोस्टेट कैंसर के लिए
50 साल की उम्र में पुरुषों को पीएसए टेस्ट करा लेना चाहिए। हर 2 साल या डॉक्टर के बताए अनुसार रिपीट कराएं। अगर प्रोस्टेट कैंसर की फैमिली हिस्ट्री है या पेशाब संबंधी परेशानी है तो 40 साल की उम्र में ही यह टेस्ट करा लें।
कोलोन (आंत) कैंसर के लिए
अगर पॉटी में खून आ रहा है तो स्टूल ऑकल्ट ब्लड टेस्ट कराएं। कोई गड़बड़ी निकलने पर कोलोनोस्कोपी करा सकते हैं, जिससे कैंसर की जानकारी मिल जाती है।
इलाज में नया क्या
हाल के बरसों में कैंसर के इलाज में कई तकनीक आई हैं। इनमें खास हैं...
सर्जरी: अब बड़े अस्पतालों में रोबॉटिक सर्जरी की जाती है। यह थ्री-डायमेंशन सर्जरी है यानी इसमें लंबाई-चौड़ाई के साथ कट की गहराई भी नजर आती है। इसमें खून कम निकलता है और गलती की गुंजाइश भी कम होती है। रोबॉट में लगे कैमरों की मदद से सर्जरी ज्यादा सटीक हो पाती है। मरीज जल्दी घर जा सकता है। आम सर्जरी के मुकाबले इसमें एक-डेढ़ लाख रुपये ज्यादा खर्च आता है।
HIPEC: हाइपरथर्मिक इंट्रापेरिटोनिअल कीमोथेरपी को पेट, ओवरी और कोलोन के कैंसर में इस्तेमाल किया जाता ह। इसमें 42 डिग्री गर्म पानी के साथ कीमो दी जाती है जिससे कैंसर सेल ज्यादा तेजी से मरते हैं। इसके जरिए दवा सीधे सीधे ट्यूमर में डाली जाती है। इसका असर ज्यादा है और साइड इफेक्ट्स काफी कम हैं। आम कीमोथेरपी के मुकाबले इसमें एक-डेढ़ रुपये तक खर्च ज्यादा आता है।
टारगेटिड थेरपी: आम कीमो सारे सेल्स को मारती है जबकि टारगेटिड थेरपी में दवा सिर्फ कैंसर सेल्स को ही टारगेट करती है। लंग्स, किडनी और कोलोन कैंसर में यह खासकर असरदार है। यह टैब्लेट और इंजेक्शन, दोनों तरीकों से दी जाती है। कैंसर के प्रकार और स्टेज के अनुसार इसकी कीमत 5000 रुपये से लेकर 1.5 लाख रुपये प्रति महीना तक हो सकती है।
इम्यूनोथेरपी: इसमें दवा की मदद से कैंसर एंटीजन के खिलाफ एंटी-बॉडीज़ तैयार की जाती हैं। यह टारगेटिड थेरपी का ही एक हिस्सा है और स्टेज 4 के कैंसर में मरीज की उम्र बढ़ाने में मददगार है। एक बार कैंसर होने के बाद दोबारा होने से रोकने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। कैंसर के प्रकार और स्टेज के अनुसार इसका एक महीने का खर्च 20 हजार से लेकर 5 लाख रुपये तक हो सकता है।
पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट: पहले एक तरह के कैंसर के सभी मरीजों का एक जैसा इलाज किया जाता था, जबकि अब मरीज की स्थिति, दूसरी बीमारियों और किसी दवा के उस पर असर के अनुसार पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट भी तैयार किया जाता है। इसकी कीमत 30-60 हजार रुपये महीने पड़ती है।
जीन प्रोफाइलिंग: इसे जीन मैपिंग भी कहा जाता है। इसमें जीन्स की स्टडी की जाती है और देखा जाता है कि उस जीन की खराबी की आशंका कितनी है। ब्रेस्ट कैंसर होने की आंशका का पता लगाने के लिए किया जाने वाला ब्रेका टेस्ट जीन मैपिंग ही है। दूसरे कैंसरों के लिए जीन मैपिंग के अभी खास नतीजे नहीं आए हैं।
TACE और TARE थेरपी: ट्रांसआर्टिरियल कीमोएंबोलाइजेशन और ट्रांसआर्टिरियल रेडियोएंबोलाइजेशन, इंटरवेंशनल ऑन्कॉलजी ट्रीटमेंट की कैटिगरी में आते हैं। इन्हें खासतौर पर लिवर के कैंसर के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 3 सेंटीमीटर से बड़े ट्यूमर के लिए TACE और TARE तकनीक इस्तेमाल की जाती है। इसमें एंजियोग्राफी करके सीधे ट्यूमर के अंदर दवा डाली जाती है। इस तरह बिना सर्जरी के ट्यूमर खत्म हो जाता है। इसके साइड इफेक्ट्स भी काफी कम हैं। एक सीटिंग का खर्च करीब 1 लाख रुपये पड़ता है। आमतौर पर 1 या 2 सिटिंग की जरूरत होती है।
ट्यूमर एब्लेशन थेरपी: इसमें सूई डालकर रेडियोफ्रिक्वेंस या माइक्रोवेव किरणों की मदद से सीधे कैंसर को जला दिया जाता है। लंग्स, लिवर और किडनी के कैंसर में यह तकनीक ज्यादा असरदार है। एक सिटिंग की कीमत करीब 1 लाख रुपये होती है और आमतौर पर एक सिटिंग इलाज के लिए पर्याप्त होती है।
प्रोटॉन थेरपी: कैंसर सेल्स को खत्म करने के लिए किए जाने वाले रेडिएशन में अब प्रोटॉन का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है, जिसे प्रोटॉन थेरपी का नाम दिया गया है। यह तरीका ज्यादा सटीक तरीके से कैंसर सेल्स को खत्म करता है और साइड इफेक्ट भी कम हैं लेकिन इसकी कीमतें काफी ज्यादा हैं। इस पर करीब 20 लाख रुपये का खर्च आता है। अपने देश में यह तकनीक फिलहाल सिर्फ चेन्नै में अपोलो प्रोटोन कैंसर सेंटर में इस्तेमाल हो रही है।
टेस्ट
टोमोसिंथेसिस: कैंसर की पहचान के लिए टोमोसिंथेसिस (Tomosynthesis) तकनीक का सहारा लिया जाता है। टोमोसिंथेसिस में थ्री-डी पिक्चर आती है और कैंसर के बारे में बेहतर अनुमान लगाया जा सकता है। इसकी कीमत करीब 10-12 हजार रुपये होती है।
लिक्विड बायोप्सी: अब ब्लड टेस्ट से भी कैंसर और उसके असर आदि का पता लगाया जा सकता है। अगर कैंसर सेल ब्लड में आ रहे हैं तो इससे पता लग सकता है। लंग कैंसर में ज्यादा फायदेमंद है। इसकी कीमत करीब 30 से 40 हजार रुपये होती है।
यह हक भी जरूरी
डॉ. ललित कुमार और डॉ. अंशुमान का कहना है कि अगर किसी मरीज का कैंसर चौथी स्टेज में पहुंच जाए और उसके ठीक होने की उम्मीद लगभग न हो तो जबरन कीमोथेरपी या दूसरे इलाज कराने के बजाय मरीज को आखिरी दिन शांति और सुकून से बिताने दें। यह अहम है कि उसके जितने दिन बचे हैं, वे अच्छे गुजरें। जबरन दवा देने के बजाय डॉक्टर मरीज के दर्द को कम करने की कोशिश करें। इस दौरान घरवाले भी मरीज की पसंद और खुशी का ख्याल रखें। इससे मरीज के आखिरी दिन सुकून से बीतेंगे और घरवालों पर भी पैसे का फिजूल बोझ नहीं पड़ेगा।
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रोज इतनी देर सेंकेंगे धूप तो शरीर के कई रोग हो जाएंगे दूर
जब कोहरे की चादर में से सूरज की लाली दिखती है तो उसमें नहाने को जी करता है। दरअसल, धूप के बहुत फायदे हैं। वहीं धूप के साथ अगर शरीर की मालिश हो जाए तो क्या कहने, लेकिन धूप कितनी चाहिए, कब चाहिए, मालिश कैसे करें, कौन-सा तेल उपयोग करना है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब एक्सपर्ट्स से बात कर दे रहे हैं नरेश तनेजाजब कोहरे की चादर में से सूरज की लाली दिखती है तो उसमें नहाने को जी करता है। दरअसल, धूप के बहुत फायदे हैं। वहीं धूप के साथ अगर शरीर की मालिश हो जाए तो क्या कहने, लेकिन धूप कितनी चाहिए, कब चाहिए, मालिश कैसे करें, कौन-सा तेल उपयोग करना है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब एक्सपर्ट्स से बात कर दे रहे हैं नरेश तनेजा
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टॉप 6 डाइटिशन से जानें, कैसे बनाए रखें खुद को फिट ऐंड हेल्दी
खुद को फिट रखने के लिए लोग डाइटिशन की सलाह लेना पसंद करते हैं। आज हम आपको बता रहे हैं कि डाइटिशन खुद कैसी डायट फॉलो करते हैं।खुद को फिट रखने के लिए लोग डाइटिशन की सलाह लेना पसंद करते हैं। आज हम आपको बता रहे हैं कि डाइटिशन खुद कैसी डायट फॉलो करते हैं।
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सुपरफूड, क्या खूब!
सुपर फूड का फायदा तभी है, जब हम इन्हें बैलेंस्ड डाइट के साथ लें। ऐसा न हो कि इनके चक्कर में हम बैलेंस्ड डाइट न लें। साथ ही, आपके इलाके में जो फूड आइटम आसानी से उपलब्ध हैं, उन्हें ज्यादा लें। सुपर फूड बदल-बदल कर खाएं ताकि सभी का फायदा शरीर को मिल सके।सुपर फूड का फायदा तभी है, जब हम इन्हें बैलेंस्ड डाइट के साथ लें। ऐसा न हो कि इनके चक्कर में हम बैलेंस्ड डाइट न लें। साथ ही, आपके इलाके में जो फूड आइटम आसानी से उपलब्ध हैं, उन्हें ज्यादा लें। सुपर फूड बदल-बदल कर खाएं ताकि सभी का फायदा शरीर को मिल सके।
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वुमन सेफ्टी: मोबाइल ऐप्स और डिवाइसेस
महिलाएं सुरक्षित हों, इसके लिए जरूरी है कि वे खुद सजग और चौकस रहें, लेकिन ऐसे तमाम ऐप्स और हेल्पलाइन भी हैं जो बुरे वक्त में काम आते हैं। इसके अलावा बाजार में उपलब्ध छोटी डिवाइसेस भी सुरक्षा के मामले में महिलाओं के खूब काम आती हैं। जानकारी दे रही हैं
दर्शनी प्रिय
केसः 1
अलर्ट बटन से मिली थी मदद
वेणी हरि बेहद निडर महिला हैं। वैसे तो इनका डेस्क जॉब है, लेकिन काम के सिलसिले में वह अक्सर ट्रैवल करती रहती हैं। एक बार ऑटो और बस स्ट्राइक की वजह से इन्हें काफी दूर पैदल चलकर घर जाना पड़ा। जब चलते हुए वह काफी दूर निकल गईं तो उन्हें महसूस हुआ कि एक शख्स उनका पीछा कर रहा है और अश्लील इशारे भी कर रहा है। अपने आसपास किसी को न देखकर पहले तो घबराईं, लेकिन फिर हिम्मत से काम लेते हुए झट से अपने मोबाइल पर 'अलर्ट बटन-की' दबा दी। नतीजा यह हुआ कि पुलिस फौरन ही मौके पर पहुंच गई और उनकी मदद की।
केस: 2
तेज हॉर्न ने बचाई जान
प्रीति पचौली आज की मॉडर्न महिला हैं और दिल्ली में अपना क्लिनिक चलाती हैं। एक बार देर रात काम से घर लौट रही थीं कि अचानक एक सुनसान रास्ते में, एक मोड़ पर कुछ लड़के बाइक पर शराब के नशे में पीछा करने लगे। उनकी कार की बोनट पर शराब की बोतलें फेंकी। इससे प्रीति कुछ डर गईं लेकिन फिर खुद को संभाल लिया। कार की स्पीड बढ़ाते हुए तेज-तेज हॉर्न बजाते हुए दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसी बीच सेफ्टीपिन ऐप के जरिए मदद भी मांग ली।
अपराधी अब पहले से ज्यादा चालाक हो गए हैं। ऐसे में उनका मुकाबला करने के लिए आपको ज्यादा चालाक और अलर्ट बनने की जरूरत है। हमले या खतरे की स्थिति में महिलाओं को बचाने में सक्षम कई गैजट और डिवाइसेज भी अब बाजार में आ गए हैं, जिनकी पुख्ता जानकारी आपको संभावित खतरों से बचा सकती है और आप अपराधियों को सबक भी सिखा सकते हैं। गैजट फ्रेंडली बनकर आप अपराध के खिलाफ मजबूती से खड़े हो सकती हैं।
कारगर हैं सेफ्टी ऐप्स
अब लड़कियां अपनी सुरक्षा के लिए परिवार, पुलिस या प्रशासन पर निर्भर रहने की बजाए खुद पर ज्यादा भरोसा कर रही हैं। बिना किसी सहारे के खुद अपनी ताकत बनतीं महिलाओं को बाजार ने भी जमकर साथ दिया है। आज बाजार में कई तरह के सेफ्टी उपकरण उपलब्ध हैं, जिनका इस्तेमाल कर महिलाएं खुद को सुरक्षित रख सकती हैं। हम यहां कुछ ऐप्स की चर्चा कर रहे हैं।
My Safetypin
महिलाओं की सुरक्षा के मामले में सेफ्टीपिन एक बेहतर विकल्प है। इसे महिला सुरक्षा को ध्यान में रखकर खासतौर से डिजाइन किया गया है। यह बेसिक फीचर्स जैसे: जीपीएस ट्रैकिंग, जरूरी फोन नंबर, डायरेक्शन- टु-सेफ लोकेशन आदि से लैस है। यह ऐप यूजर्स को अनसेफ एरिया की जानकारी फौरन देता है। किसी भी खतरे की स्थिति में यह यूजर्स को सेफ लोकेशन के बारे में समय रहते पिन करता है। इसलिए इसका नाम सेफ्टीपिन है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Raksha
यह ऐप खासा पॉप्युलर है। इसमें एक खास तरह का बटन होता है, जिसे दबाते ही अपनों तक खतरे का मेसेज फौरन पहुंच जाता है। वे मेसेज भेजने वाले का लोकेशन भी देख सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसके लिए जरूरी नहीं है कि आपका मोबाइल नेटवर्क काम कर रहा हो। जहां नेटवर्क उपलब्ध नहीं होता यह वहां भी काम करता है। इसके लिए सिर्फ इतना करना है कि 3 सेकंड के लिए वॉल्यूम-की को दबाकर रखना है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Himmat Plus
महिलाओं की सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस ने हिम्मत ऐप लॉन्च किया है। इसके लिए यूजर को दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर खुद को रजिस्टर करना होता है। इसकी खास बात यह है कि खतरे की स्थिति में यदि यूजर ऐप से अलर्ट भेजता है तो दिल्ली पुलिस के कंट्रोल रूम में उसका लोकेशन, खतरे की जानकारी, उस समय का ऑडियो जैसी सूचनाएं पहुंच जाती हैं। ऐसे में पुलिस मदद मांगने वाले के पास तुरंत पहुंचती है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Smart 24x7
विभिन्न राज्यों की पुलिस ने महिलाओं और बुजुर्गों की सेफ्टी को ध्यान में रखते हुए स्मार्ट 24x7 ऐप को हाथों-हाथ लिया है। इसमें यूजर को सिर्फ पैनिक बटन दबाकर सहायता लेनी होती है। किसी भी तरह के खतरे की स्थिति में यह ऐप तुरंत पैनिक अलर्ट पहले से फीड कॉन्टेक्ट नंबरों को देता है। यह न सिर्फ खतरे का संदेश भेजता है बल्कि पैनिक सिचुएशन की रिकॉर्डिंग और फोटो भी साझा करता है। इसका अपना कॉल सेंटर भी है जो यूजर के मूवमेंट को ट्रैक करता है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Shake2Safety
यह ऐप इस्तेमाल के लिहाज से एकदम परफेक्ट है। इसमें अपने स्मार्टफोन को बस जोर से हिलाना होता है या पावर बटन को 4 बार जल्दी-जल्दी दबाना होता है। ऐसे में यह पहले से सेव्ड नंबरों पर खतरे का अलर्ट भेज देता है। इसकी खासियत यह है कि ऐप बिना इंटरनेट के और यहां तक कि मोबाइल स्क्रीन लॉक होने पर भी काम करता है। इस ऐप का इस्तेमाल दुर्घटना, फिजिकल असॉल्ट, रॉबरी या किसी प्राकृतिक आपदा के दौरान भी मदद मांगने के लिए किया जा सकता है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Women Safety
यदि आप किसी असुरक्षित स्थान पर फंस गई हैं तो इस ऐप का सिर्फ एक बटन दबाकर खतरे की सूचना और लोकेशन डिटेल्स भेज सकती हैं। इसमें स्थिति की गंभीरता के आधार पर तीन रंगों (लाल, पीला और नारंगी) के बटन दिए गए हैं। लाल पैनिक के समय, हरा रंग स्टेटस अपडेट करने और नारंगी रंग एहतियात की स्थिति बताने के लिए है। अपनी जरूरत के अनुसार आप कोई भी बटन इस्तेमाल कर सकते हैं। यह ऐप पैनिक सिचुएशन में गूगल मैप के साथ लोकेशन की सारी डिटेल्स तो भेजता ही है, साथ ही फ्रंट और रियर कैमरा से पिक्चर खींचकर सीधे सर्वर पर अपलोड कर देता है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड, फ्री: हां
सेफ्टी डिवाइस का साथ
महिलाओं को खतरे की स्थिति में मदद पहुंचाने के लिए कंपनियों ने सेफ्टी के लिए मार्केट में विभिन्न तरह की डिवाइसेज लॉन्च की हैं। इन्हें आसानी से कैरी किया जा सकता है। अकेले यात्रा करते समय, किसी सुनसान या अनजान इलाके में जाते समय आसानी से पर्स या कपड़ो में छिपाकर इन्हें ले जाया जा सकता है।
1. स्मार्ट ट्रैकिंग वॉच
यह किसी भी व्यक्ति की एकदम सही लोकेशन ट्रैक कर लेता है। इसे यूजर अपनी कलाई पर पहन सकता है। इस डिवाइस की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें मौजूद क्लाउड सर्विस के जरिए दुनिया के किसी भी हिस्से से चंद सेकंड में ही ट्रैक किया जा सकता है। इस घड़ी को सबसे पहले Yepzon कंपनी ने पेश किया था। पिछले कुछ समय में कई कंपनियों ने यह डिवाइस लॉन्च की है।
कीमत: 2 से 5 हजार रुपये
2. बचाएगी सीटी
एमजॉन ने प्रोजेक्ट 'रेप विसल' को पहले प्रोजेक्ट के तौर पर लॉन्च किया है। यह खास तरह की सीटी है जो एक चाबी के छल्ले की तरह दिखती है और खतरे की स्थिति में 120 डेसिबल तक का शोर पैदा कर सकती है ताकि लोगों का ध्यान खींच सके। इसकी खासियत यह है कि जब इसकी बैटरी खत्म हो जाती है तो यह आम सीटी की तरह भी काम आती है।
कीमत: 330 रुपये
3. पेपर स्प्रे पिस्टल
पेपर स्प्रे पिस्टल को कानूनी रूप से वैधता मिली हुई है। यह विमिन सेल्फ डिफेंस अप्लायंसेज में आता है। अन्य पेपर स्प्रे की तरह इसे सिर्फ आंखों पर ही मारने की जरूरत नहीं पड़ती। शरीर के किसी भी हिस्से पर छिड़कने से यह तेज खुजली पैदा करती है, जिससे अपराधी की पकड़ कुछ समय के लिए ढीली पड़ जाती है और शिकार खतरे से बच कर आसानी से निकल जाता है। इसे यूज करते समय ध्यान रखना पड़ता है कि इसे सिर्फ 2 बार छिड़कना है। लगातार छिड़कने से सिर्फ 6 सेकंड में पूरी बोतल खाली हो जाती है।
कीमत: 6,000 रुपये
4. सेफ्टी-टॉर्च
यह रीचार्जेबल टॉर्च महिलाओं के लिए एक अहम सुरक्षा कवच है। इसमें LED फ्लैश लाइट होती है जो अपराधी की आंखों को चकाचौंध कर देती है। जिस पर इसका यूज किया जाता है उसे कुछ समय तक कुछ साफ-साफ दिखाई नहीं देता। इस समय का उपयोग भागने या अपराधी को धराशायी करने में किया जा सकता है।
कीमत: 500 से 790 रुपये
5. सेफ्टी रॉड
बेहतरीन मानी जाने वाली यह डिवाइस हमलावर को दर्द वाले खतरनाक झटके देती है। इस रॉड की मदद से अपराधियों को मिनटों में धूल चटाई जा सकती है। इसे अपने पर्स या बैग में आसानी से रखा जा सकता है।
कीमत: 700 रुपये
6. खास डिवाइस वाला स्मार्ट पेंडेंट
यह कोई साधारण लॉकेट नहीं होता। गोल-सा दिखने वाला यह छोटा लॉकेट सेफर (SAFER) के नाम से ऐमजॉन पर उपलब्ध है। इसे मोबाइल से कनेक्ट किया जा सकता है। खतरे की हालत में इस लॉकेट पर लगी डिवाइस को बस दो बार दबाना होता है। खतरे की स्थिति में यह फौरन ही आपके परिवार और दोस्तों तक अलर्ट पहुंचा देता है।
कीमत: 1899 रुपये
7. लिपस्टिक जैसी फ्लैशलाइट
लिपस्टिक जैसी दिखने वाली 5 इंच लंबी यह सुरक्षा डिवाइस महिलाओं के लिए बेहद उपयोगी है। छोटे आकार की वजह से इसे आसानी से कहीं भी रखा जी सकती है। यह डिवाइस रिचार्जेबल बैटरी के साथ आती है। मुसीबत में आप अपराधी की आंखों पर फ्लैशलाइट मारकर बचकर निकल सकती हैं या मदद का जुगाड़ कर सकती है।
कीमत: 799 रुपये
8. काम का 'रिवॉल्वर'
अंडे के आकार की यह एक छोटी-सी डिवाइस 'रिवाल्वर' नाम से प्रचलित है। इसके बटन को 2 बार दबाने से यह तत्काल पहले से स्टोर नंबरों पर खतरे में होने का संदेश भेज देती है।
कीमत: 6545 रुपये
विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी भी हादसे के तीन फैक्टर्स होते हैं: अपराधी, शिकार और मौका। इनमें से अगर एक भी न हो तो हादसा नहीं होता। इनमें सबसे आसान, लेकिन जरूरी है मौका देने से बचना। इसके बाद आता है खुद को शिकार बनने से रोकना और अंतिम है अपराधी से निबटना। जानते हैं कि आप अपराधी को मौका देने और शिकार होने से कैसे बच सकती
हैं आप।
आंकड़ों के अनुसार ज्यादातर सेक्शुअल अटैक उन महिलाओं पर होते हैं, जिनकी बॉडी लैंग्वेज से कॉन्फिडेंस नहीं झलकता। अपराधी उन महिलाओं को शिकार ज्यादा बनाते हैं जो आसान टारगेट होती हैं। ऐसे में जब भी सड़क पर अकेली निकलें भरपूर आत्मविश्वास के साथ रहें। सिर झुकाकर चलने की बजाय सतर्क रहें और सामने देखते हुए चलें। अगर किसी इलाके या रास्ते के बारे में नहीं जानतीं तो भी अनजान लोगों के सामने इसे उजागर न करें।
सड़क पर बरतें सावधानी
- चाहे कितनी भी मजबूरी क्यों न हो अनजान लोगों से लिफ्ट न लें। व्यस्त, लेकिन खतरनाक जगहों पर ट्रैफिक की उलटी दिशा में, यानी उस ओर चलें जिस ओर ट्रैफिक आपको सामने से आता दिखे। ऐसे में पीछे से हमला नहीं हो सकेगा। कई बार लड़कियां बाहर की तरफ बैग टांगकर चलती हैं। इससे बाइक वालों को छीना-झपटी का मौका मिल जाता है। थैला उस तरफ लटकाएं, जिधर फुटपाथ हो। सड़क पर रास्ता पूछने वाले कई मिलेंगे, लेकिन उससे दूरी बनाकर रखें। अगर कोई पीछा करता दिखता है तो जो भी घर सामने दिखे, उसकी कॉल बेल बजा दें और सारी स्थिति के बारे में बताएं। झिझकें बिल्कुल नहीं।
- किसी अनजान शहर में हों तो होटल के फ्रंट डेस्क के जरिए टैक्सी मंगाएं। ऐसे में आपके अलावा किसी और को भी जानकारी होगी कि गाड़ी कहां से आई है। स्टेशन या एयरपोर्ट पर ऑटो या टैक्सी प्री-पेड बूथ से लें तो बेहतर रहेगा।
- ऐसी बस में न चढ़ें, जिसमें सिर्फ ड्राइवर और कंडक्टर हों या फिर महज 4-5 लोग ही हों। जिस ऑटो में पहले से पैसेंजर बैठे हों, उसमें न बैठें। शेयर्ड कैब की सर्विस लें तो हमेशा सतर्क रहें।
- कैब या ऑटोवाले से भीड़वाले रास्तों पर ही चलने को कहें। रास्ता लंबा बेशक हो, लेकिन जाना-पहचाना होना चाहिए। साथ ही, अंधेरे वाली जगहों से बचें। अपराधी ज्यादातर ऐसी ही जगहों पर अपना शिकार तलाशते हैं, ताकि बचकर भागने में आसानी हो।
- गाड़ी में सेंट्रल लॉक लगाकर ड्राइव करें। एसी है तो हमेशा शीशे चढ़ाकर रखें।
- अपनी सोसाइटी में भी रात के वक्त बेसमेंट में कार पार्क करने से बचें। वहां मोबाइल काम करना बंद कर सकता है। ऐसे में गाड़ी ऐसी जगह पार्क करें, जहां भरपूर रोशनी हो।
- अगर सड़क पर गाड़ी खराब हो जाए तो पहले अपने घरवालों को अपनी स्थिति और लोकेशन के बारे में बताएं, फिर कार हेल्पलाइन वालों को फोन करें।
पार्टी के दौरान रहें सजग
अनजान लोगों से रहें दूर: अनजान लोगों के साथ नजदीकी न बढ़ाएं। डांस के दौरान लड़कों के ज्यादा करीब न जाएं, चाहे
वे आपके जानकार ही क्यों न हों।
शॉपिंग मॉल या बीच पर
शॉपिंग मॉल के ट्रायल रूप में कपड़े चेंज करते हुए आसपास गौर से देखें। कोई भी दरार या संदिग्ध कील या लाइट आदि दिखने पर कपड़े चेंज न करें। बीच पर कुछ सावधानी जरूरी है। स्विम सूट घर से या होटल से कपड़ों के नीचे पहनकर ही निकलें तो बेहतर है।
केसः 1
अलर्ट बटन से मिली थी मदद
वेणी हरि बेहद निडर महिला हैं। वैसे तो इनका डेस्क जॉब है, लेकिन काम के सिलसिले में वह अक्सर ट्रैवल करती रहती हैं। एक बार ऑटो और बस स्ट्राइक की वजह से इन्हें काफी दूर पैदल चलकर घर जाना पड़ा। जब चलते हुए वह काफी दूर निकल गईं तो उन्हें महसूस हुआ कि एक शख्स उनका पीछा कर रहा है और अश्लील इशारे भी कर रहा है। अपने आसपास किसी को न देखकर पहले तो घबराईं, लेकिन फिर हिम्मत से काम लेते हुए झट से अपने मोबाइल पर 'अलर्ट बटन-की' दबा दी। नतीजा यह हुआ कि पुलिस फौरन ही मौके पर पहुंच गई और उनकी मदद की।
केस: 2
तेज हॉर्न ने बचाई जान
प्रीति पचौली आज की मॉडर्न महिला हैं और दिल्ली में अपना क्लिनिक चलाती हैं। एक बार देर रात काम से घर लौट रही थीं कि अचानक एक सुनसान रास्ते में, एक मोड़ पर कुछ लड़के बाइक पर शराब के नशे में पीछा करने लगे। उनकी कार की बोनट पर शराब की बोतलें फेंकी। इससे प्रीति कुछ डर गईं लेकिन फिर खुद को संभाल लिया। कार की स्पीड बढ़ाते हुए तेज-तेज हॉर्न बजाते हुए दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसी बीच सेफ्टीपिन ऐप के जरिए मदद भी मांग ली।
अपराधी अब पहले से ज्यादा चालाक हो गए हैं। ऐसे में उनका मुकाबला करने के लिए आपको ज्यादा चालाक और अलर्ट बनने की जरूरत है। हमले या खतरे की स्थिति में महिलाओं को बचाने में सक्षम कई गैजट और डिवाइसेज भी अब बाजार में आ गए हैं, जिनकी पुख्ता जानकारी आपको संभावित खतरों से बचा सकती है और आप अपराधियों को सबक भी सिखा सकते हैं। गैजट फ्रेंडली बनकर आप अपराध के खिलाफ मजबूती से खड़े हो सकती हैं।
कारगर हैं सेफ्टी ऐप्स
अब लड़कियां अपनी सुरक्षा के लिए परिवार, पुलिस या प्रशासन पर निर्भर रहने की बजाए खुद पर ज्यादा भरोसा कर रही हैं। बिना किसी सहारे के खुद अपनी ताकत बनतीं महिलाओं को बाजार ने भी जमकर साथ दिया है। आज बाजार में कई तरह के सेफ्टी उपकरण उपलब्ध हैं, जिनका इस्तेमाल कर महिलाएं खुद को सुरक्षित रख सकती हैं। हम यहां कुछ ऐप्स की चर्चा कर रहे हैं।
My Safetypin
महिलाओं की सुरक्षा के मामले में सेफ्टीपिन एक बेहतर विकल्प है। इसे महिला सुरक्षा को ध्यान में रखकर खासतौर से डिजाइन किया गया है। यह बेसिक फीचर्स जैसे: जीपीएस ट्रैकिंग, जरूरी फोन नंबर, डायरेक्शन- टु-सेफ लोकेशन आदि से लैस है। यह ऐप यूजर्स को अनसेफ एरिया की जानकारी फौरन देता है। किसी भी खतरे की स्थिति में यह यूजर्स को सेफ लोकेशन के बारे में समय रहते पिन करता है। इसलिए इसका नाम सेफ्टीपिन है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Raksha
यह ऐप खासा पॉप्युलर है। इसमें एक खास तरह का बटन होता है, जिसे दबाते ही अपनों तक खतरे का मेसेज फौरन पहुंच जाता है। वे मेसेज भेजने वाले का लोकेशन भी देख सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसके लिए जरूरी नहीं है कि आपका मोबाइल नेटवर्क काम कर रहा हो। जहां नेटवर्क उपलब्ध नहीं होता यह वहां भी काम करता है। इसके लिए सिर्फ इतना करना है कि 3 सेकंड के लिए वॉल्यूम-की को दबाकर रखना है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Himmat Plus
महिलाओं की सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस ने हिम्मत ऐप लॉन्च किया है। इसके लिए यूजर को दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर खुद को रजिस्टर करना होता है। इसकी खास बात यह है कि खतरे की स्थिति में यदि यूजर ऐप से अलर्ट भेजता है तो दिल्ली पुलिस के कंट्रोल रूम में उसका लोकेशन, खतरे की जानकारी, उस समय का ऑडियो जैसी सूचनाएं पहुंच जाती हैं। ऐसे में पुलिस मदद मांगने वाले के पास तुरंत पहुंचती है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Smart 24x7
विभिन्न राज्यों की पुलिस ने महिलाओं और बुजुर्गों की सेफ्टी को ध्यान में रखते हुए स्मार्ट 24x7 ऐप को हाथों-हाथ लिया है। इसमें यूजर को सिर्फ पैनिक बटन दबाकर सहायता लेनी होती है। किसी भी तरह के खतरे की स्थिति में यह ऐप तुरंत पैनिक अलर्ट पहले से फीड कॉन्टेक्ट नंबरों को देता है। यह न सिर्फ खतरे का संदेश भेजता है बल्कि पैनिक सिचुएशन की रिकॉर्डिंग और फोटो भी साझा करता है। इसका अपना कॉल सेंटर भी है जो यूजर के मूवमेंट को ट्रैक करता है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
फ्री: हां
Shake2Safety
यह ऐप इस्तेमाल के लिहाज से एकदम परफेक्ट है। इसमें अपने स्मार्टफोन को बस जोर से हिलाना होता है या पावर बटन को 4 बार जल्दी-जल्दी दबाना होता है। ऐसे में यह पहले से सेव्ड नंबरों पर खतरे का अलर्ट भेज देता है। इसकी खासियत यह है कि ऐप बिना इंटरनेट के और यहां तक कि मोबाइल स्क्रीन लॉक होने पर भी काम करता है। इस ऐप का इस्तेमाल दुर्घटना, फिजिकल असॉल्ट, रॉबरी या किसी प्राकृतिक आपदा के दौरान भी मदद मांगने के लिए किया जा सकता है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड
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Women Safety
यदि आप किसी असुरक्षित स्थान पर फंस गई हैं तो इस ऐप का सिर्फ एक बटन दबाकर खतरे की सूचना और लोकेशन डिटेल्स भेज सकती हैं। इसमें स्थिति की गंभीरता के आधार पर तीन रंगों (लाल, पीला और नारंगी) के बटन दिए गए हैं। लाल पैनिक के समय, हरा रंग स्टेटस अपडेट करने और नारंगी रंग एहतियात की स्थिति बताने के लिए है। अपनी जरूरत के अनुसार आप कोई भी बटन इस्तेमाल कर सकते हैं। यह ऐप पैनिक सिचुएशन में गूगल मैप के साथ लोकेशन की सारी डिटेल्स तो भेजता ही है, साथ ही फ्रंट और रियर कैमरा से पिक्चर खींचकर सीधे सर्वर पर अपलोड कर देता है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड, फ्री: हां
सेफ्टी डिवाइस का साथ
महिलाओं को खतरे की स्थिति में मदद पहुंचाने के लिए कंपनियों ने सेफ्टी के लिए मार्केट में विभिन्न तरह की डिवाइसेज लॉन्च की हैं। इन्हें आसानी से कैरी किया जा सकता है। अकेले यात्रा करते समय, किसी सुनसान या अनजान इलाके में जाते समय आसानी से पर्स या कपड़ो में छिपाकर इन्हें ले जाया जा सकता है।
1. स्मार्ट ट्रैकिंग वॉच
यह किसी भी व्यक्ति की एकदम सही लोकेशन ट्रैक कर लेता है। इसे यूजर अपनी कलाई पर पहन सकता है। इस डिवाइस की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें मौजूद क्लाउड सर्विस के जरिए दुनिया के किसी भी हिस्से से चंद सेकंड में ही ट्रैक किया जा सकता है। इस घड़ी को सबसे पहले Yepzon कंपनी ने पेश किया था। पिछले कुछ समय में कई कंपनियों ने यह डिवाइस लॉन्च की है।
कीमत: 2 से 5 हजार रुपये
2. बचाएगी सीटी
एमजॉन ने प्रोजेक्ट 'रेप विसल' को पहले प्रोजेक्ट के तौर पर लॉन्च किया है। यह खास तरह की सीटी है जो एक चाबी के छल्ले की तरह दिखती है और खतरे की स्थिति में 120 डेसिबल तक का शोर पैदा कर सकती है ताकि लोगों का ध्यान खींच सके। इसकी खासियत यह है कि जब इसकी बैटरी खत्म हो जाती है तो यह आम सीटी की तरह भी काम आती है।
कीमत: 330 रुपये
3. पेपर स्प्रे पिस्टल
पेपर स्प्रे पिस्टल को कानूनी रूप से वैधता मिली हुई है। यह विमिन सेल्फ डिफेंस अप्लायंसेज में आता है। अन्य पेपर स्प्रे की तरह इसे सिर्फ आंखों पर ही मारने की जरूरत नहीं पड़ती। शरीर के किसी भी हिस्से पर छिड़कने से यह तेज खुजली पैदा करती है, जिससे अपराधी की पकड़ कुछ समय के लिए ढीली पड़ जाती है और शिकार खतरे से बच कर आसानी से निकल जाता है। इसे यूज करते समय ध्यान रखना पड़ता है कि इसे सिर्फ 2 बार छिड़कना है। लगातार छिड़कने से सिर्फ 6 सेकंड में पूरी बोतल खाली हो जाती है।
कीमत: 6,000 रुपये
4. सेफ्टी-टॉर्च
यह रीचार्जेबल टॉर्च महिलाओं के लिए एक अहम सुरक्षा कवच है। इसमें LED फ्लैश लाइट होती है जो अपराधी की आंखों को चकाचौंध कर देती है। जिस पर इसका यूज किया जाता है उसे कुछ समय तक कुछ साफ-साफ दिखाई नहीं देता। इस समय का उपयोग भागने या अपराधी को धराशायी करने में किया जा सकता है।
कीमत: 500 से 790 रुपये
5. सेफ्टी रॉड
बेहतरीन मानी जाने वाली यह डिवाइस हमलावर को दर्द वाले खतरनाक झटके देती है। इस रॉड की मदद से अपराधियों को मिनटों में धूल चटाई जा सकती है। इसे अपने पर्स या बैग में आसानी से रखा जा सकता है।
कीमत: 700 रुपये
6. खास डिवाइस वाला स्मार्ट पेंडेंट
यह कोई साधारण लॉकेट नहीं होता। गोल-सा दिखने वाला यह छोटा लॉकेट सेफर (SAFER) के नाम से ऐमजॉन पर उपलब्ध है। इसे मोबाइल से कनेक्ट किया जा सकता है। खतरे की हालत में इस लॉकेट पर लगी डिवाइस को बस दो बार दबाना होता है। खतरे की स्थिति में यह फौरन ही आपके परिवार और दोस्तों तक अलर्ट पहुंचा देता है।
कीमत: 1899 रुपये
7. लिपस्टिक जैसी फ्लैशलाइट
लिपस्टिक जैसी दिखने वाली 5 इंच लंबी यह सुरक्षा डिवाइस महिलाओं के लिए बेहद उपयोगी है। छोटे आकार की वजह से इसे आसानी से कहीं भी रखा जी सकती है। यह डिवाइस रिचार्जेबल बैटरी के साथ आती है। मुसीबत में आप अपराधी की आंखों पर फ्लैशलाइट मारकर बचकर निकल सकती हैं या मदद का जुगाड़ कर सकती है।
कीमत: 799 रुपये
8. काम का 'रिवॉल्वर'
अंडे के आकार की यह एक छोटी-सी डिवाइस 'रिवाल्वर' नाम से प्रचलित है। इसके बटन को 2 बार दबाने से यह तत्काल पहले से स्टोर नंबरों पर खतरे में होने का संदेश भेज देती है।
कीमत: 6545 रुपये
विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी भी हादसे के तीन फैक्टर्स होते हैं: अपराधी, शिकार और मौका। इनमें से अगर एक भी न हो तो हादसा नहीं होता। इनमें सबसे आसान, लेकिन जरूरी है मौका देने से बचना। इसके बाद आता है खुद को शिकार बनने से रोकना और अंतिम है अपराधी से निबटना। जानते हैं कि आप अपराधी को मौका देने और शिकार होने से कैसे बच सकती
हैं आप।
आंकड़ों के अनुसार ज्यादातर सेक्शुअल अटैक उन महिलाओं पर होते हैं, जिनकी बॉडी लैंग्वेज से कॉन्फिडेंस नहीं झलकता। अपराधी उन महिलाओं को शिकार ज्यादा बनाते हैं जो आसान टारगेट होती हैं। ऐसे में जब भी सड़क पर अकेली निकलें भरपूर आत्मविश्वास के साथ रहें। सिर झुकाकर चलने की बजाय सतर्क रहें और सामने देखते हुए चलें। अगर किसी इलाके या रास्ते के बारे में नहीं जानतीं तो भी अनजान लोगों के सामने इसे उजागर न करें।
सड़क पर बरतें सावधानी
- चाहे कितनी भी मजबूरी क्यों न हो अनजान लोगों से लिफ्ट न लें। व्यस्त, लेकिन खतरनाक जगहों पर ट्रैफिक की उलटी दिशा में, यानी उस ओर चलें जिस ओर ट्रैफिक आपको सामने से आता दिखे। ऐसे में पीछे से हमला नहीं हो सकेगा। कई बार लड़कियां बाहर की तरफ बैग टांगकर चलती हैं। इससे बाइक वालों को छीना-झपटी का मौका मिल जाता है। थैला उस तरफ लटकाएं, जिधर फुटपाथ हो। सड़क पर रास्ता पूछने वाले कई मिलेंगे, लेकिन उससे दूरी बनाकर रखें। अगर कोई पीछा करता दिखता है तो जो भी घर सामने दिखे, उसकी कॉल बेल बजा दें और सारी स्थिति के बारे में बताएं। झिझकें बिल्कुल नहीं।
- किसी अनजान शहर में हों तो होटल के फ्रंट डेस्क के जरिए टैक्सी मंगाएं। ऐसे में आपके अलावा किसी और को भी जानकारी होगी कि गाड़ी कहां से आई है। स्टेशन या एयरपोर्ट पर ऑटो या टैक्सी प्री-पेड बूथ से लें तो बेहतर रहेगा।
- ऐसी बस में न चढ़ें, जिसमें सिर्फ ड्राइवर और कंडक्टर हों या फिर महज 4-5 लोग ही हों। जिस ऑटो में पहले से पैसेंजर बैठे हों, उसमें न बैठें। शेयर्ड कैब की सर्विस लें तो हमेशा सतर्क रहें।
- कैब या ऑटोवाले से भीड़वाले रास्तों पर ही चलने को कहें। रास्ता लंबा बेशक हो, लेकिन जाना-पहचाना होना चाहिए। साथ ही, अंधेरे वाली जगहों से बचें। अपराधी ज्यादातर ऐसी ही जगहों पर अपना शिकार तलाशते हैं, ताकि बचकर भागने में आसानी हो।
- गाड़ी में सेंट्रल लॉक लगाकर ड्राइव करें। एसी है तो हमेशा शीशे चढ़ाकर रखें।
- अपनी सोसाइटी में भी रात के वक्त बेसमेंट में कार पार्क करने से बचें। वहां मोबाइल काम करना बंद कर सकता है। ऐसे में गाड़ी ऐसी जगह पार्क करें, जहां भरपूर रोशनी हो।
- अगर सड़क पर गाड़ी खराब हो जाए तो पहले अपने घरवालों को अपनी स्थिति और लोकेशन के बारे में बताएं, फिर कार हेल्पलाइन वालों को फोन करें।
पार्टी के दौरान रहें सजग
अनजान लोगों से रहें दूर: अनजान लोगों के साथ नजदीकी न बढ़ाएं। डांस के दौरान लड़कों के ज्यादा करीब न जाएं, चाहे
वे आपके जानकार ही क्यों न हों।
शॉपिंग मॉल या बीच पर
शॉपिंग मॉल के ट्रायल रूप में कपड़े चेंज करते हुए आसपास गौर से देखें। कोई भी दरार या संदिग्ध कील या लाइट आदि दिखने पर कपड़े चेंज न करें। बीच पर कुछ सावधानी जरूरी है। स्विम सूट घर से या होटल से कपड़ों के नीचे पहनकर ही निकलें तो बेहतर है।
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हमेशा खुश रहने का तरीका है माइंडफुलनेस, जानें इस थेरपी के बारे में
हमेशा खुश रहना चाहते हैं तो माइंडफुलनेस का तरीका बेस्ट है। जानें क्या है यह थेरपी और कैसे की जाती है। साथ ही यह भी जानें कि इससे क्या फायदा होता है।हमेशा खुश रहना चाहते हैं तो माइंडफुलनेस का तरीका बेस्ट है। जानें क्या है यह थेरपी और कैसे की जाती है। साथ ही यह भी जानें कि इससे क्या फायदा होता है।
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World TB Day: अब टीबी को आसानी से कहें टाटा
टीबी एक ऐसी बीमारी है जिसका नाम सुनते ही टेंशन हो जाती है। हालांकि प्रॉपर इलाज और कुछ नई तकनीकियों ने इसके इलाज को आसान बना दिया है।टीबी एक ऐसी बीमारी है जिसका नाम सुनते ही टेंशन हो जाती है। हालांकि प्रॉपर इलाज और कुछ नई तकनीकियों ने इसके इलाज को आसान बना दिया है।
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भरपूर नींद और हेल्दी खाना, यही तो है सेहत का खजाना
उठने के बाद सबसे पहले एक गिलास सादा या गुनगुना पानी पिएं। इससे शरीर के विषैले तत्व बाहर निकल जाते हैं। एक गिलास पानी में आधा नीबू निचोड़ कर भी पी सकते हैं। जानें हेल्दी रहने के लिए कैसा हो आपका रुटीन।उठने के बाद सबसे पहले एक गिलास सादा या गुनगुना पानी पिएं। इससे शरीर के विषैले तत्व बाहर निकल जाते हैं। एक गिलास पानी में आधा नीबू निचोड़ कर भी पी सकते हैं। जानें हेल्दी रहने के लिए कैसा हो आपका रुटीन।
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ब्रह्मांड के वे रहस्य जो आप नहीं जानते होंगे
इसी हफ्ते गुरुवार को ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी हुई। यह ब्लैक होल हमारी धरती से करीब 30 लाख गुना बड़ा है। इससे विराट ब्रह्मांड की अनसुलझी गुत्थियां फिर से चर्चा में आ गई हैं। इन गुत्थियों को सुलझाने में अभी लंबा वक्त लग सकता है, लेकिन उम्मीद तो यही है कि एक दिन यह सुलझ जरूर जाएगी। यहां इस पर बात करते हुए पहले हम ब्रह्मांड यानी यूनिवर्स के बारे में अपनी बुनियादी समझ दोहरा लेते हैं और फिर इसके बारे में एक शीर्ष विज्ञानी से बातचीत करते हैं।इसी हफ्ते गुरुवार को ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी हुई। यह ब्लैक होल हमारी धरती से करीब 30 लाख गुना बड़ा है। इससे विराट ब्रह्मांड की अनसुलझी गुत्थियां फिर से चर्चा में आ गई हैं। इन गुत्थियों को सुलझाने में अभी लंबा वक्त लग सकता है, लेकिन उम्मीद तो यही है कि एक दिन यह सुलझ जरूर जाएगी। यहां इस पर बात करते हुए पहले हम ब्रह्मांड यानी यूनिवर्स के बारे में अपनी बुनियादी समझ दोहरा लेते हैं और फिर इसके बारे में एक शीर्ष विज्ञानी से बातचीत करते हैं।
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लेने जा रहे हैं कॉलेज में ऐडमिशन, जान लें ये जरूरी बातें
मार्च के बाद से ही यूनिवर्सिटीज और कॉलेज कैंपस गुलजार होने लगते हैं, लेकिन ऐडमिशन कोई आसान काम नहीं है। बेहतर कॉलेज और यूनिवर्सिटी की सीटें 98 फीसदी मार्क्स वाले लूट ले जाते हैं। ऐसे में बाकी स्टूडेंट्स के लिए दुविधा की स्थिति बन जाती है कि वे आखिर जाएं तो जाएं कहां! ऐसे में मजबूरी में कई बच्चे घटिया या जाली इंस्टिट्यूट के जाल में भी फंस जाते हैं। तो ऐडमिशन से पहले आखिर क्या देखें? एक्सपर्ट्स से बातकर जानकारी दे रही हैं
दर्शनी प्रिय
देश में बेहतर सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की संख्या सीमित है। ऐसे में भारी संख्या में ग्रैजुएट और अंडरग्रैजुएट छात्रों को खपाने के लिए निजी संस्थानों और कॉलेजों की जरूरत लगातार बढ़ रही है। इसी वजह से देश में प्राइवेट और फर्जी संस्थानों की बाढ़-सी आ गई है। यहां एक बात यह भी बताना जरूरी है कि न तो सभी प्राइवेट संस्थान बेकार हैं और न ही सभी प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में खोट है। दिक्कत यह है कि क्वॉलिटी एजुकेशन के मामले में इनमें से ज्यादातर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ये संस्थान छात्रों के करियर की समस्या को सुलझाने के बजाय उलझा देते हैं। मोटी फीस वसूलने और टॉप क्लास की सुविधा देने का वादा करने वाले इन संस्थानों की क्वॉलिटी पर सवाल उठते रहते हैं, बावजूद इसके बच्चे इनके जाल में फंस जाते हैं।
डिग्री, डिप्लोमा और सर्टिफिकेट के फर्क को समझेंः
सर्टिफिकेट-
अमूमन सर्टिफिकेट प्रोग्राम किसी खास प्रफेशनल फील्ड में स्किल बढ़ाने के लिए लिया जाता है। कुछ यूनिवर्सिटी ग्रैजुएट सर्टिफिकेट भी स्टूडेंट्स को ऑफर करती हैं।
अवधि: कुछ महीनों से लेकर 1 साल तक
कौन देता है: वोकेशनल और टेक्निकल स्कूल, कॉलेज आदि
डिप्लोमा-
यह काफी हद तक सर्टिफिकेट प्रोग्राम की तरह ही होता है। इसे किसी खास क्षेत्र में कोर्स पूरा होने पर दिया जाता है।
अवधि: 1 से 2 साल तक
कौन देता है: वोकेशनल और टेक्निकल स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल
डिग्री-
डिग्री कई तरह की होती है। बैचरल डिग्री (3-6 साल) मास्टर्स डिग्री (2-4 साल) पीएचडी की डिग्री (4-5 साल) अकादमिक डिग्री कई साल की होती हैं। इसमें एसोसिएट (2 वर्ष), बैचलर (4 वर्ष), मास्टर(2 वर्ष), डॉक्टरल (4-5 वर्ष) की डिग्री होती हैं।
कौन देता है: मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी या उससे जुड़ा कॉलेज।
हायर एजुकेशन के संस्थान
सेंट्रल यूनिवर्सिटी: इन यूनिवर्सिटीज़ की स्थापना केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संसद में पारित ऐक्ट के आधार पर की जाती है।
डीम्ड यूनिवर्सिटी: डीम्ड यूनिवर्सिटी का स्टेटस उच्च शिक्षा देने वाले ऐसे संस्थानों को दिया जाता है जो किसी खास क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य कर रहे हों। यह मान्यता केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा यूजीसी ऐक्ट 1956 के सेक्शन 3 के तहत दी जाती है। इसके अंतर्गत ऐसे संस्थानों को यूनिवर्सिटी जैसे अधिकार मिल जाते हैं और ये डिग्री दे सकते हैं।
एफिलिएटेड इंस्टिट्यूट: ये किसी मान्यताप्राप्त यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध संस्थान/कॉलेज होते हैं और उस यूनिवर्सिटी के विभिन्न कोर्स संचालित करने का इनको अधिकार होता है। ये खुद न तो एग्जाम करा सकते हैं और न ही कोई डिग्री प्रदान कर सकते हैं।
रेकग्नाइज्ड यूनिवर्सिटी: भारत में किसी भी यूनिवर्सिटी को डिग्री प्रदान करने की अनुमति केंद्र सरकार द्वारा स्थापित यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमिशन (UGC) देता है। यूजीसी जिसे यह अनुमति देती है उसे रेकग्नाइज्ड यूनिवर्सिटी कहा जाता है।
रजिस्टर्ड संस्थान: सोसायटी ऐक्ट/एनजीओ ऐक्ट आदि के तहत पंजीकृत संस्थाओं को रजिस्टर्ड संस्थानों की श्रेणी में रखा जाता है। जरूरी नहीं कि इनके द्वारा संचालित कोर्स भी मान्यता प्राप्त होंगे ही।
प्राइवेट यूनिवर्सिटी: प्राइवेट यूनिवर्सिटी की शुरुआत राज्य विधानसभा द्वारा ऐक्ट पारित करने और यूजीसी द्वारा उसे गजट में शामिल करने के आधार पर हो सकती है। इनको यूजीसी द्वारा Establishment and Maintenance of standards in Private Universities Regulations 2003 द्वारा रेग्युलेट किया जाता है।
8 बातें एडमिशन से पहले पता करेंः
एक्रीडिटेशन
1. किसी भी संस्थान के एक्रीडिटेशन की जांच जरूर करें। सच तो यह है कि जॉब मार्केट में उसी डिग्री को मान्यता दी जाती है जो किसी मान्यताप्राप्त यूनिवर्सिटी या कॉलेज से हासिल की गई हो।
2. ग्रैजुएशन रेट
किसी भी यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएट होने वाले छात्रों की संख्या का सही अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इससे दाखिला संबंधी संभावना की जानकारी आपको मिल सकेगी।
3. रिटेंशन रेट
अगर किसी यूनिवर्सिटी की ऊंची रिटेंशन रेट है तो इसका सीधा-सा मतलब है कि वहां के बच्चे पढ़ाई से संतुष्ट हैं। यही वजह है कि नए क्लास में जाने पर यूनिवर्सिटी या कॉलेज नहीं बदल रहे हैं।
4. करियर पर ध्यान
यह इस बात को बताता है कि यूनिवर्सिटी में बच्चों के करियर को लेकर कितनी संजीदगी है। अगर काउंसलिंग की सुविधाएं, इंटरव्यू की तैयारी, रेज्यूमे रिव्यू और जॉब हंटिंग जैसी बातों पर भरपूर ध्यान दिया जाता है तो इसका मतलब है कि माहौल बेहतर है।
5. प्लेसमेंट
यह काफी अहम है। किसी यूनिवर्सिटी या कॉलेज का प्लेसमेंट रेकॉर्ड कैसा है, यहां वहां के पूर्व छात्रों या यूनिवर्सिटी की वेबसाइट के जरिए पता कर सकते हैं। इसके अलावा, पिछले 5 बरसों का प्लेसमेंट रेकॉर्ड और इंटर्नशिप देने वाली कंपनियों की लिस्ट की जानकारी भी हासिल करें।
6. सोशल मीडिया
यूनिवर्सिटी या कॉलेज की वेबसाइट के अलावा सोशल मीडिया मौजूदगी पर भी ध्यान देना जरूरी है। यहां से आपको पता चलेगा कि कितने छात्र खुश हैं और कितने नाखुश। इसमें पूर्व छात्रों के टेस्टिमोनियल और इंटरनेट पर मौजूद फोरम बेहद मददगार होते हैं।
7. फैकल्टी
एडमिशन से पहले यह जरूर पता करें कि जिस सब्जेक्ट में आप एडमिशन ले रहे हैं, उसकी फैकल्टी कैसी है। अगर पढ़ाने वाले ढंग के नहीं मिले तो एडमिशन लेने का कोई मतलब नहीं है।
8. एजुकेशन लोन
किसी कॉलेज में एडमिशन लेने से पहले एजुकेशन लोन के बारे में पूछताछ करें। अमूमन एजुकेशन लोन सिर्फ उन्हीं कॉलेजों को दिया जाता है जो मान्यता प्राप्त होते हैं।
कैसे फंसते हैं स्टूडेंट्स
कई प्राइवेट संस्थान बाहरी चमक-दमक पर ज्यादा फोकस करते हैं जिसे देखकर स्टूडेंट्स फंस जाते हैं। यह वैसे ही है जैसे आप कोई फ्लैट खरीदने जाते हैं और डिवेलपर आपको एक मॉडल फ्लैट दिखाकर कहता है कि आपको जो फ्लैट आज से 3 साल बाद मिलेगा, वह इसी तरह का होगा और आप उस पर विश्वास कर लेते हैं। दरअसल, मॉडल फ्लैट को तैयार ही ऐसे किया जाता है कि लोगों की आंखें चौंधिया जाएं, लेकिन असलियत का पता तब चलती है जब 3 या 4 साल बाद आपको फ्लैट दिया जाता है। इसी तरह जब कोई कोर्स खत्म कर बाहर निकलता है तब पता चलता है कि वहां एडमिशन का फैसला सही रहा या गलत। अमूमन बाहरी चमक-दमक में फंस जाने वाले स्टूडेंट्स का भविष्य खतरे में ही रहता है।
बचना है जरूरी
एडमिशन लेने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है:
1. ब्रोशर देखकर और वादे पर भरोसा कर कभी भी एडमिशन का फैसला न करें। हमेशा फैक्ट चेक करें, प्लेसमेंट का पता लगाएं, सरकारी वेबसाइट्स का सहारा लें और उन पर ही यकीन करें।
2. सिर्फ कॉलेजों की टॉप रेटिंग या टॉप चार्ट देखकर ही तसल्ली न करें बल्कि बारीकी से इनकी जांच करे और हर कसौटी पर कसने के बाद ही एडमिशन के बारे में सोचें। इन संस्थानों की विश्वसनीयता की जांच के लिए अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद और यूजीसी जैसी मान्य सरकारी निकायों ने कई पैरामीटर्स तय किए हैं। आपको भी इन पैरामीटर्स को देखना चाहिए और तभी एडमिशन के बारे में सोचना चाहिए।
3. कोई भी संस्थान मान्यता प्राप्त है या नहीं, यह सबसे बड़ा मुद्दा है। संभव है कि ऐसे संस्थान/ यूनिवर्सिटी/ कॉलेज जिनकी बिल्डिंग अच्छी हो और जो सौ फीसदी प्लेसमेंट का दावा करता हो, जहां के हॉस्टल्स भी शानदार हों, उन्हें सरकारी मान्यता ही नहीं मिली हो। बिना मान्यता प्राप्त संस्थान की सारी खासियतें बेकार हैं क्योंकि जब आप उस यूनिवर्सिटी या कॉलेज से डिग्री लेकर बाहर निकलेंगे तो उसकी कोई वैल्यू नहीं होगी। ऐसा भी मुमकिन है कि कॉलेज अपना दावा मजबूत करने के लिए कैंपस प्लेसमेंट भी करा दे, लेकिन तब भी वह डिग्री किसी काम का नहीं क्योंकि ऐसा देखा गया है कि गैरमान्यता प्राप्त कॉलेज या यूनिवर्सिटी में मिली हुई कैंपस प्लेसमेंट की लाइफ ज्यादा लंबी नहीं होती। अमूमन 4 से 6 महीनों में यहां के स्टूडेंट्स को यह कहकर निकाल दिया जाता है कि वे योग्य नहीं हैं। इसके बाद दूसरी कंपनियों में जॉब ढूंढना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।
4. वहीं डीम्ड यूनिवर्सिटी सबसे ज्यादा गड़बड़ी दूसरी जगहों पर स्टडी सेंटर खोलने में करती है। संसद और विधानसभाओं के एक्ट द्वारा बनाई गई यूनिवर्सिटी ही दूसरे कॉलेज और इंस्टिट्यूट को कोर्स चलाने के लिए खुद से संबंद्ध कर मान्यता दे सकती है। डीम्ड यूनिवर्सिटी को अपने मेन कैंपस के अलावा दूसरे किसी कैंपस या संस्थान में कोर्स चलाने की इजाजत नहीं है।
डीम्ड यूनिवर्सिटी के लिए जरूरी बातें
- जिसे NAAC यानी National Assessment and Accreditation Council या NBA यानी National Board of Accreditation द्वारा लगातार दो साल के लिए उच्चतम ग्रेड दिया गया हो।
- जिसके पास रिसर्च और आधुनिक सूचना-संसाधनों वाला इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद हो।
- रिसर्च प्रोग्राम के साथ अंडर ग्रैजुएट और कम से कम 5 पोस्ट ग्रैजुएट डिपार्टमेंट का अस्तित्व हो।
- जिसके पास यूजीसी के मानकों के अनुसार पढ़ाई और रिसर्च के लिए क्वॉलिफाइड फैकल्टी हो।
- यूनिवर्सिटी का कोई डिस्टेंस एजुकेशन प्रोग्राम न हो।
- जिसके पास हॉस्टल, लाइब्रेरी आदि भी हो।
- यूजीसी नियमों के मुताबिक कैंपस के लिए पर्याप्त जगह हो।
- हर विभाग में सामान्य पाठ्यक्रमों के लिए कम से कम एक प्रफेसर, दो एसोसिएट प्रफेसर और 4 असिस्टेंट प्रफेसर स्थायी रूप से हों।
- यूनिवर्सिटी मानी गई संस्था के रूप में कम से कम 5 सालों से अस्तित्व में रही हो।
कुछ डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं:
- जामिया हमदर्द, हमदर्द नगर, दिल्ली
- इंडियन एग्रिकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट, दिल्ली
- इंडियन लॉ इंस्टिट्यूट, दिल्ली
- इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फॉरन ट्रेड, दिल्ली
- जेपी इंस्टिट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नॉलजी, नोएडा, यूपी
नोट: अगर कोई संस्थान डीम्ड यूनिवर्सिटी होने की बात करता है तो उसकी सचाई जांचने के लिए यूजीसी की वेबसाइट www.ugc.ac.in देख सकते हैं।
खुद ऐसे करें चेकिंग
अगर आप किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने जा रहे हैं और संस्थान या उसके चलाए जाने वाले कोर्स के बारे में क्रॉस चेक करना चाहते हैं तो इन पर निगरानी और कंट्रोल रखने वाले कुछ संस्थानों के नाम और वेबसाइट हम यहां दे रहे हैं। अगर संदेह फिर भी न मिटे तो इन वेबसाइट्स पर जरूरी कॉन्टैक्ट भी उपलब्ध होते हैं, जहां फोन कर आप पूरी जानकारी ले सकते हैं।
1. www.ugc.ac.in
बारहवीं के बाद की पढ़ाई के मामले में यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन) ही वह संस्था है और इसकी वेबसाइट वह जगह है, जहां आप पूरी जानकारी ले सकते हैं। जिस भी यूनिवर्सिटी या कॉलेज की बारे में जानकारी चाहिए, उसके बारे में पूरी जानकारी यहां मिल जाएगी। कोई भी संस्थान अगर डिग्री कोर्स करा रहा है और अगर वह असली है तो उसकी जानकारी इस वेबसाइट पर सर्च में नाम करने पर मिल जाएगी।
2. www.aicte-india.org
यह टेक्निकल एजुकेशन की मान्यता के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की परिषद है जो मानव संसाधन मंत्रालय के तहत काम करती है। कोई भी संस्थान जो इंजिनियरिंग, मैनेजमेंट आदि जैसे तकनीकी क्षेत्रों में डिग्री या डिप्लोमा देता हो, उसे एआईसीटीई से मान्यता लेना जरूरी होता है। यह अपने पैरामीटर्स के अनुसार भारतीय शिक्षा संस्थानों में पोस्ट ग्रैजुएशन और ग्रैजुएशन स्तर के कार्यक्रमों को मान्यता देती है। इसकी वेबसाइट www.aicte-india.org है। इस संस्था के तहत निम्न तरह की तकनीकी पढ़ाई आती है:
- इंजिनियरिंग
- टेक्नॉलजी
- मैनेजमेंट स्टडीज
- वोकेशनल एजुकेशन
- फार्मेसी
- आर्किटेक्चर
- होटेल मैनेजमेंट एंड कैटरिंग टेक्नॉलजी
- इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी
- टाउन एंड कंट्री प्लानिंग
- अप्लाइड आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स
ऊपर वाले कोर्सों में से किसी में अगर कोई संस्थान डिग्री या डिप्लोमा करा रहा है तो इस वेबसाइट पर जाकर सर्च में उसका नाम टाइप करने पर अगर उसके बारे में और उस कोर्स के बारे में जानकारी आती है तो वह असली है।
किसी संस्थान की कोई स्पेशलाइज्ड कोर्स मान्यता प्राप्त है या नहीं, नीचे दी गई उससे जुड़ी वेबसाइट पर जाकर सर्च में संस्थान का नाम डालें:
- टीचर्स एजुकेशन www.ncte-india.org
- लॉ www.barcouncilofindia.org
- डेंटल कोर्स www.dciindia.gov.in
- फार्मेसी www.pci.nic.in
- होम्योपैथी डिग्री www.cchindia.com
- यूनानी : www.ccimindia.org
- एग्रिकल्चर www.icar.org.in
डिस्टेंस लर्निंग/ पत्राचार से पढ़ाई के लिए क्या रखें ध्यान
पिछले चार दशकों में घर बैठे पढ़ाई का हमारे देश में खासा प्रसार हुआ है। इसकी शुरुआत सन 1982 में डॉ. भीमराव आम्बेडकर ओपन यूनिवर्सिटी की स्थापना के साथ हुई थी। बाद में इंदिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी यानी इग्नू की शुरुआत से इसे ज्यादा बढ़ावा मिला। कोई भी ओपन यूनिवर्सिटी सामान्य, बिजनेस और टेक्निकल एजुकेशन आधारित डिग्री बांटने की पात्रता रखती हैं।
क्या है SOL: दिल्ली यूनिवर्सिटी का स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग दूरस्थ शिक्षा पद्धति से एजुकेशन देता है। यह कुछ विषयों में ही डिग्री जारी करता है, जिसमें बीए, बीकॉम, एमए, एमकॉम आदि शामिल है।
SOL और IGNOU में फर्क: एसओएल के माध्यम से आप बीए या बीकॉम की डिग्री हासिल कर सकते हैं जबकि इग्नू में कई तरह के कोर्स होते हैं। इग्नू साल में दो बार परीक्षा पास करने का मौका देता है, लेकिन एसओएल में साल में एक ही बार परीक्षा होती है।
कुछ प्रमुख मान्यता प्राप्त डिस्टेंस एजुकेशन इंस्टिट्यूट
1. नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी, पटना
2. वर्धमान महावीर ओपन यूनिवर्सिटी, कोटा
3. यशवंतराव चह्वाण महाराष्ट्र ओपन यूनिवर्सिटी, नासिक
4. डॉ. बी. आर. आम्बेडकर ओपन यूनिवर्सिटी, हैदराबाद
5. इंदिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी, दिल्ली
6 स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग, दिल्ली
www.ugc.ac.in/deb पर जाकर खुद जांचें कि जिस डिस्टेंस एजुकेशन इंस्टिट्यूट में आप दाखिला ले रहे हैं, वह और उसका कोर्स मान्यता प्राप्त है कि नहीं।
www.knowyourcollege-gov.in- देशभर में फर्जी यूनिवर्सिटी का एक बड़ा जाल फैला हुआ है। वे कुछ इस तरह छात्रों को फर्जीवाड़े में फंसा रही हैं कि छात्रों को आसानी से उनकी जालसाजी का पता ही नहीं चलता। छात्रों की इस जाल से बचाने के लिए हाल ही में इस वेबपोर्टल को लॉन्च किया गया है। इस पर मान्यता प्राप्त कॉलेजों की जानकारी आसानी से प्राप्त की जा सकती है।
31 मार्च 2019 तक देश में यूनिवर्सिटीज की कुल संख्या: 907
स्टेट यूनिवर्सिटीज: 399
डीम्ड यूनिवर्सिटीज: 126
सेंट्रल यूनिवर्सिटीज: 48
प्राइवेट यूनिवर्सिटीज: 334
लीगल एंगल
स्टूडेंट उपभोक्ता की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि वे एजुकेशनल इंस्टिट्यूट को पैसे देकर उसकी सेवाएं लेते हैं। कोई भी छात्र शिक्षा संबंधी मुद्दों जैसे- टीचर का काफी दिनों तक अपॉइंट न होना, फैकल्टी की लगातार अनुपस्थिति, कॉलेज का रिलोकेशन आदि के लिए कंज्यूमर कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के मुताबिक कोई भी शिक्षा संस्थान पूरे कोर्स की फीस एक साथ नहीं ले सकता। लेकिन अगर कोर्स एक सत्र या एक साल से ज्यादा का है तो ऐसे में संस्थान एक सत्र या एक साल की फीस एक साथ ले सकता है। अगर स्टूडेंट बीच में ही संस्थान छोड़ता है तो वाजिब कारण पर संस्थान अनुपातिक फीस काटकर बाकी की फीस स्टूडेंट को लौटाएगा। इस दौरान संस्थान स्टूडेंट के मूल सर्टिफिकेट नहीं रोक सकता। स्टूडेंट इन बातों के लिए कंस्यूमर कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है:
- पढ़ाई की व्यवस्था सही न होना
- टीचरों की कमी होना
- सुविधाओं की कमी होना
- सिलेबस का समय पर शुरू न होना
- स्टडी मटैरियल न देना
- मूल प्रमाणपत्र देने से इनकार करना
- संस्थान के बारे में गलत तथा भ्रामक सूचना देना
- नौकरी का वादा करके उसे पूरा न करना
- कॉलेज छोड़ने पर फीस न लौटाना
- सभी सत्रों की फीस एक साथ मांगना
स्टूडेंट्स के साथ धोखाधड़ी के मामले में यूजीसी हस्तक्षेप करती है। वहीं डीम्ड यूनिवर्सिटी सबसे ज्यादा गड़बड़ी दूसरी जगहों पर अपने कैंपस या स्टडी सेंटर खोलने में करती है। इसके अलावा बिना मान्यता या इजाजत के डिपार्टमेंट भी खोले जाते हैं। स्टूडेंट को चाहिए कि किसी इंस्टिट्यूट की मान्यता या कोर्स के बारे में पता लगाने के लिए वे यूजीसी या एआईसीटीई और डीईबी की वेबसाइट पर जाकर जांच करें। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक अगर स्टूडेंट ने कोई भी कक्षा नहीं ली है तो ऐसी स्थिति में संबंधित संस्थान को सारे पैसे वापस करने होंगे। ऐसा न करने स्टूडेंट कंस्यूमर कोर्ट जा सकता है। कैसे जाएं और कहां जाएं- इसकी जानकारी के लिए 1800-11-400 पर फोन करें। nationalconsumerhelpline.in वेबसाइट पर भी जा सकते हैं।
पढ़ाई भारत में डिग्री विदेशी यूनिवर्सिटी की
देश में ऐसे कई प्राइवेट शिक्षा संस्थान हैं जो भारत में पढ़ाई कराने के बाद डिग्री किसी दूसरे देश की यूनिवर्सिटी की देते हैं। लेकिन बहुत बार इस डिग्री को भारत में मान्यता नहीं मिली होती। ऐसे में इस डिग्री के आधार पर देश में जॉब भी नहीं मिल पाती। दो साल की फास्ट ट्रैक की विदेशी डिग्री को यहां मान्यता नहीं हैं। किसे हैं, किसे नहीं है- यह जानने के लिए असोसिएशन ऑफ यूनिवर्सिटीज की वेबसाइट www.aiu.ac.in पर जाएं और वहां के इंफर्मेशन ब्रोशर फ्री में डाउनलोड करके पढ़ें।
विदेश में पढ़ाई
पिछले दिनों बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों को यूएस में हिरासत में ले लिया गया था। उन पर आरोप लगाया गया कि यूएस आने के लिए उन्होंने फर्जी यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। दूसरी ओर, स्टूडेंट्स का कहना था कि वे फर्जी यूनिवर्सिटी के जाल में फंस गए थे। ऐसे में जरूरी है कि अगर आप विदेश के किसी यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेना चाहते हैं तो सतर्क रहें। बेहतर होगा कि स्टूडेंट्स खुद इंटरनेट और एक्सपर्ट्स की मदद से सही विश्वविद्यालयों चुनें।
इन बातों का ध्यान रखें
- पता करें कि उस यूनिवर्सिटी के पास ऑपरेशनल कैंपस है या नहीं। ऐसा न हो कि वह किसी के घर से चल रही हो।
- फर्जी यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर अक्सर फैकल्टी की लिस्ट नहीं होती। एडमिशन से पहले यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर फैकल्टी की लिस्ट चेक करें।
- अगर किसी यूनिवर्सिटी के पास तय करिकुलम नहीं है तो आप एडमिशन कतई न लें।
- वीजा रैकेट में न फंसें। पे टु स्टे वीजा के लिए कभी भी हां न करें।
- याद रखें, स्टूडेंट एंड एक्सचेंज विजिटर प्रोग्राम किसी यूनिवर्सिटी के जेनुइन होने की गारंटी नहीं है।
- यह पहले ही पता कर ले कि जिस देश में पढ़ने आप जा रहे हैं वहां पढ़ाई के साथ कमाने की इजाजत है या नहीं। काम करने संबंधी वीजा के नियम, रिसर्च की संभावनाएं, इंटरनेशनल स्टूडेंट्स सैटिस्फेक्शन इंडेक्स, रहने का खर्च आदि पहले पता कर लें।
ऐसे जांच करें
- आपने जो कॉलेज या इंस्टिट्यूट चुना है, वह फर्जी तो नहीं, यह चेक करने के लिए whed.net/home.php पर जाएं। यह वर्ल्ड हायर एजुकेशन डेटाबेस है। यहां दुनिया भर के तमाम प्रामाणिक कॉलेजों की लिस्ट है।
- अमेरिकी सरकार की वेबसाइट usa.gov/study-in-us पर जाएं। वहां से अमेरिका जाकर पढ़ाई करने के बारे में बेसिक और प्रामाणिक जानकारी मिल जाएगी।
- फिर आप जिस सब्जेक्ट की पढ़ाई करना चाहते हैं, वह कौन-कौन से कॉलेज और यूनिवर्सिटी में है, यह पता लगाएं। वह कॉलेज कैसा है, यह जानने की कोशिश करें। कॉलेज की वेबसाइट के अलावा उससे जुड़ी तमाम वेबसाइट्स पर जाएं। वहां के स्टूडेंट्स कहां-कहां काम कर रहे हैं, यह जानकारी हासिल करें। सभी कॉलेजों की एल्मनै (एल्युमिनाइज) असोसिएशन भी हैं, जो सोशल मीडिया (फेसबुक आदि) पर एक्टिव होती हैं। कॉलेज के बारे में उनके रिव्यू पढ़ें। कुछ निगेटिव कमेंट्स हैं तो उन पर खास ध्यान दें।
- यूएस में हर कॉलेज की रैंकिंग ऑनलाइन उपलब्ध है। usnews.com/best-colleges पर जाकर रैंकिंग चेक कर सकते हैं।
दाखिले से पहले परखें एक्सपर्ट्स पैनल
-देवेंद्र कुमार चौबे, प्रफेसर, इंडियन लैंग्वेज सेंटर, JNU
-प्रफेसर दरवेश गोपाल, राजनीति शास्त्र, IGNOU
-प्रफेसर गोपाल प्रधान, बी. आर. आम्बेडकर यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली
-प्रेमलता, कंस्यूमर मामलों की जानकार
-रावी बीरबल, वकील, सुप्रीम कोर्ट
-आरती भल्ला, वकील, सुप्रीम कोर्ट
देश में बेहतर सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की संख्या सीमित है। ऐसे में भारी संख्या में ग्रैजुएट और अंडरग्रैजुएट छात्रों को खपाने के लिए निजी संस्थानों और कॉलेजों की जरूरत लगातार बढ़ रही है। इसी वजह से देश में प्राइवेट और फर्जी संस्थानों की बाढ़-सी आ गई है। यहां एक बात यह भी बताना जरूरी है कि न तो सभी प्राइवेट संस्थान बेकार हैं और न ही सभी प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में खोट है। दिक्कत यह है कि क्वॉलिटी एजुकेशन के मामले में इनमें से ज्यादातर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ये संस्थान छात्रों के करियर की समस्या को सुलझाने के बजाय उलझा देते हैं। मोटी फीस वसूलने और टॉप क्लास की सुविधा देने का वादा करने वाले इन संस्थानों की क्वॉलिटी पर सवाल उठते रहते हैं, बावजूद इसके बच्चे इनके जाल में फंस जाते हैं।
डिग्री, डिप्लोमा और सर्टिफिकेट के फर्क को समझेंः
सर्टिफिकेट-
अमूमन सर्टिफिकेट प्रोग्राम किसी खास प्रफेशनल फील्ड में स्किल बढ़ाने के लिए लिया जाता है। कुछ यूनिवर्सिटी ग्रैजुएट सर्टिफिकेट भी स्टूडेंट्स को ऑफर करती हैं।
अवधि: कुछ महीनों से लेकर 1 साल तक
कौन देता है: वोकेशनल और टेक्निकल स्कूल, कॉलेज आदि
डिप्लोमा-
यह काफी हद तक सर्टिफिकेट प्रोग्राम की तरह ही होता है। इसे किसी खास क्षेत्र में कोर्स पूरा होने पर दिया जाता है।
अवधि: 1 से 2 साल तक
कौन देता है: वोकेशनल और टेक्निकल स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल
डिग्री-
डिग्री कई तरह की होती है। बैचरल डिग्री (3-6 साल) मास्टर्स डिग्री (2-4 साल) पीएचडी की डिग्री (4-5 साल) अकादमिक डिग्री कई साल की होती हैं। इसमें एसोसिएट (2 वर्ष), बैचलर (4 वर्ष), मास्टर(2 वर्ष), डॉक्टरल (4-5 वर्ष) की डिग्री होती हैं।
कौन देता है: मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी या उससे जुड़ा कॉलेज।
हायर एजुकेशन के संस्थान
सेंट्रल यूनिवर्सिटी: इन यूनिवर्सिटीज़ की स्थापना केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संसद में पारित ऐक्ट के आधार पर की जाती है।
डीम्ड यूनिवर्सिटी: डीम्ड यूनिवर्सिटी का स्टेटस उच्च शिक्षा देने वाले ऐसे संस्थानों को दिया जाता है जो किसी खास क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य कर रहे हों। यह मान्यता केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा यूजीसी ऐक्ट 1956 के सेक्शन 3 के तहत दी जाती है। इसके अंतर्गत ऐसे संस्थानों को यूनिवर्सिटी जैसे अधिकार मिल जाते हैं और ये डिग्री दे सकते हैं।
एफिलिएटेड इंस्टिट्यूट: ये किसी मान्यताप्राप्त यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध संस्थान/कॉलेज होते हैं और उस यूनिवर्सिटी के विभिन्न कोर्स संचालित करने का इनको अधिकार होता है। ये खुद न तो एग्जाम करा सकते हैं और न ही कोई डिग्री प्रदान कर सकते हैं।
रेकग्नाइज्ड यूनिवर्सिटी: भारत में किसी भी यूनिवर्सिटी को डिग्री प्रदान करने की अनुमति केंद्र सरकार द्वारा स्थापित यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमिशन (UGC) देता है। यूजीसी जिसे यह अनुमति देती है उसे रेकग्नाइज्ड यूनिवर्सिटी कहा जाता है।
रजिस्टर्ड संस्थान: सोसायटी ऐक्ट/एनजीओ ऐक्ट आदि के तहत पंजीकृत संस्थाओं को रजिस्टर्ड संस्थानों की श्रेणी में रखा जाता है। जरूरी नहीं कि इनके द्वारा संचालित कोर्स भी मान्यता प्राप्त होंगे ही।
प्राइवेट यूनिवर्सिटी: प्राइवेट यूनिवर्सिटी की शुरुआत राज्य विधानसभा द्वारा ऐक्ट पारित करने और यूजीसी द्वारा उसे गजट में शामिल करने के आधार पर हो सकती है। इनको यूजीसी द्वारा Establishment and Maintenance of standards in Private Universities Regulations 2003 द्वारा रेग्युलेट किया जाता है।
8 बातें एडमिशन से पहले पता करेंः
एक्रीडिटेशन
1. किसी भी संस्थान के एक्रीडिटेशन की जांच जरूर करें। सच तो यह है कि जॉब मार्केट में उसी डिग्री को मान्यता दी जाती है जो किसी मान्यताप्राप्त यूनिवर्सिटी या कॉलेज से हासिल की गई हो।
2. ग्रैजुएशन रेट
किसी भी यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएट होने वाले छात्रों की संख्या का सही अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इससे दाखिला संबंधी संभावना की जानकारी आपको मिल सकेगी।
3. रिटेंशन रेट
अगर किसी यूनिवर्सिटी की ऊंची रिटेंशन रेट है तो इसका सीधा-सा मतलब है कि वहां के बच्चे पढ़ाई से संतुष्ट हैं। यही वजह है कि नए क्लास में जाने पर यूनिवर्सिटी या कॉलेज नहीं बदल रहे हैं।
4. करियर पर ध्यान
यह इस बात को बताता है कि यूनिवर्सिटी में बच्चों के करियर को लेकर कितनी संजीदगी है। अगर काउंसलिंग की सुविधाएं, इंटरव्यू की तैयारी, रेज्यूमे रिव्यू और जॉब हंटिंग जैसी बातों पर भरपूर ध्यान दिया जाता है तो इसका मतलब है कि माहौल बेहतर है।
5. प्लेसमेंट
यह काफी अहम है। किसी यूनिवर्सिटी या कॉलेज का प्लेसमेंट रेकॉर्ड कैसा है, यहां वहां के पूर्व छात्रों या यूनिवर्सिटी की वेबसाइट के जरिए पता कर सकते हैं। इसके अलावा, पिछले 5 बरसों का प्लेसमेंट रेकॉर्ड और इंटर्नशिप देने वाली कंपनियों की लिस्ट की जानकारी भी हासिल करें।
6. सोशल मीडिया
यूनिवर्सिटी या कॉलेज की वेबसाइट के अलावा सोशल मीडिया मौजूदगी पर भी ध्यान देना जरूरी है। यहां से आपको पता चलेगा कि कितने छात्र खुश हैं और कितने नाखुश। इसमें पूर्व छात्रों के टेस्टिमोनियल और इंटरनेट पर मौजूद फोरम बेहद मददगार होते हैं।
7. फैकल्टी
एडमिशन से पहले यह जरूर पता करें कि जिस सब्जेक्ट में आप एडमिशन ले रहे हैं, उसकी फैकल्टी कैसी है। अगर पढ़ाने वाले ढंग के नहीं मिले तो एडमिशन लेने का कोई मतलब नहीं है।
8. एजुकेशन लोन
किसी कॉलेज में एडमिशन लेने से पहले एजुकेशन लोन के बारे में पूछताछ करें। अमूमन एजुकेशन लोन सिर्फ उन्हीं कॉलेजों को दिया जाता है जो मान्यता प्राप्त होते हैं।
कैसे फंसते हैं स्टूडेंट्स
कई प्राइवेट संस्थान बाहरी चमक-दमक पर ज्यादा फोकस करते हैं जिसे देखकर स्टूडेंट्स फंस जाते हैं। यह वैसे ही है जैसे आप कोई फ्लैट खरीदने जाते हैं और डिवेलपर आपको एक मॉडल फ्लैट दिखाकर कहता है कि आपको जो फ्लैट आज से 3 साल बाद मिलेगा, वह इसी तरह का होगा और आप उस पर विश्वास कर लेते हैं। दरअसल, मॉडल फ्लैट को तैयार ही ऐसे किया जाता है कि लोगों की आंखें चौंधिया जाएं, लेकिन असलियत का पता तब चलती है जब 3 या 4 साल बाद आपको फ्लैट दिया जाता है। इसी तरह जब कोई कोर्स खत्म कर बाहर निकलता है तब पता चलता है कि वहां एडमिशन का फैसला सही रहा या गलत। अमूमन बाहरी चमक-दमक में फंस जाने वाले स्टूडेंट्स का भविष्य खतरे में ही रहता है।
बचना है जरूरी
एडमिशन लेने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है:
1. ब्रोशर देखकर और वादे पर भरोसा कर कभी भी एडमिशन का फैसला न करें। हमेशा फैक्ट चेक करें, प्लेसमेंट का पता लगाएं, सरकारी वेबसाइट्स का सहारा लें और उन पर ही यकीन करें।
2. सिर्फ कॉलेजों की टॉप रेटिंग या टॉप चार्ट देखकर ही तसल्ली न करें बल्कि बारीकी से इनकी जांच करे और हर कसौटी पर कसने के बाद ही एडमिशन के बारे में सोचें। इन संस्थानों की विश्वसनीयता की जांच के लिए अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद और यूजीसी जैसी मान्य सरकारी निकायों ने कई पैरामीटर्स तय किए हैं। आपको भी इन पैरामीटर्स को देखना चाहिए और तभी एडमिशन के बारे में सोचना चाहिए।
3. कोई भी संस्थान मान्यता प्राप्त है या नहीं, यह सबसे बड़ा मुद्दा है। संभव है कि ऐसे संस्थान/ यूनिवर्सिटी/ कॉलेज जिनकी बिल्डिंग अच्छी हो और जो सौ फीसदी प्लेसमेंट का दावा करता हो, जहां के हॉस्टल्स भी शानदार हों, उन्हें सरकारी मान्यता ही नहीं मिली हो। बिना मान्यता प्राप्त संस्थान की सारी खासियतें बेकार हैं क्योंकि जब आप उस यूनिवर्सिटी या कॉलेज से डिग्री लेकर बाहर निकलेंगे तो उसकी कोई वैल्यू नहीं होगी। ऐसा भी मुमकिन है कि कॉलेज अपना दावा मजबूत करने के लिए कैंपस प्लेसमेंट भी करा दे, लेकिन तब भी वह डिग्री किसी काम का नहीं क्योंकि ऐसा देखा गया है कि गैरमान्यता प्राप्त कॉलेज या यूनिवर्सिटी में मिली हुई कैंपस प्लेसमेंट की लाइफ ज्यादा लंबी नहीं होती। अमूमन 4 से 6 महीनों में यहां के स्टूडेंट्स को यह कहकर निकाल दिया जाता है कि वे योग्य नहीं हैं। इसके बाद दूसरी कंपनियों में जॉब ढूंढना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।
4. वहीं डीम्ड यूनिवर्सिटी सबसे ज्यादा गड़बड़ी दूसरी जगहों पर स्टडी सेंटर खोलने में करती है। संसद और विधानसभाओं के एक्ट द्वारा बनाई गई यूनिवर्सिटी ही दूसरे कॉलेज और इंस्टिट्यूट को कोर्स चलाने के लिए खुद से संबंद्ध कर मान्यता दे सकती है। डीम्ड यूनिवर्सिटी को अपने मेन कैंपस के अलावा दूसरे किसी कैंपस या संस्थान में कोर्स चलाने की इजाजत नहीं है।
डीम्ड यूनिवर्सिटी के लिए जरूरी बातें
- जिसे NAAC यानी National Assessment and Accreditation Council या NBA यानी National Board of Accreditation द्वारा लगातार दो साल के लिए उच्चतम ग्रेड दिया गया हो।
- जिसके पास रिसर्च और आधुनिक सूचना-संसाधनों वाला इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद हो।
- रिसर्च प्रोग्राम के साथ अंडर ग्रैजुएट और कम से कम 5 पोस्ट ग्रैजुएट डिपार्टमेंट का अस्तित्व हो।
- जिसके पास यूजीसी के मानकों के अनुसार पढ़ाई और रिसर्च के लिए क्वॉलिफाइड फैकल्टी हो।
- यूनिवर्सिटी का कोई डिस्टेंस एजुकेशन प्रोग्राम न हो।
- जिसके पास हॉस्टल, लाइब्रेरी आदि भी हो।
- यूजीसी नियमों के मुताबिक कैंपस के लिए पर्याप्त जगह हो।
- हर विभाग में सामान्य पाठ्यक्रमों के लिए कम से कम एक प्रफेसर, दो एसोसिएट प्रफेसर और 4 असिस्टेंट प्रफेसर स्थायी रूप से हों।
- यूनिवर्सिटी मानी गई संस्था के रूप में कम से कम 5 सालों से अस्तित्व में रही हो।
कुछ डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं:
- जामिया हमदर्द, हमदर्द नगर, दिल्ली
- इंडियन एग्रिकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट, दिल्ली
- इंडियन लॉ इंस्टिट्यूट, दिल्ली
- इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फॉरन ट्रेड, दिल्ली
- जेपी इंस्टिट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नॉलजी, नोएडा, यूपी
नोट: अगर कोई संस्थान डीम्ड यूनिवर्सिटी होने की बात करता है तो उसकी सचाई जांचने के लिए यूजीसी की वेबसाइट www.ugc.ac.in देख सकते हैं।
खुद ऐसे करें चेकिंग
अगर आप किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने जा रहे हैं और संस्थान या उसके चलाए जाने वाले कोर्स के बारे में क्रॉस चेक करना चाहते हैं तो इन पर निगरानी और कंट्रोल रखने वाले कुछ संस्थानों के नाम और वेबसाइट हम यहां दे रहे हैं। अगर संदेह फिर भी न मिटे तो इन वेबसाइट्स पर जरूरी कॉन्टैक्ट भी उपलब्ध होते हैं, जहां फोन कर आप पूरी जानकारी ले सकते हैं।
1. www.ugc.ac.in
बारहवीं के बाद की पढ़ाई के मामले में यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन) ही वह संस्था है और इसकी वेबसाइट वह जगह है, जहां आप पूरी जानकारी ले सकते हैं। जिस भी यूनिवर्सिटी या कॉलेज की बारे में जानकारी चाहिए, उसके बारे में पूरी जानकारी यहां मिल जाएगी। कोई भी संस्थान अगर डिग्री कोर्स करा रहा है और अगर वह असली है तो उसकी जानकारी इस वेबसाइट पर सर्च में नाम करने पर मिल जाएगी।
2. www.aicte-india.org
यह टेक्निकल एजुकेशन की मान्यता के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की परिषद है जो मानव संसाधन मंत्रालय के तहत काम करती है। कोई भी संस्थान जो इंजिनियरिंग, मैनेजमेंट आदि जैसे तकनीकी क्षेत्रों में डिग्री या डिप्लोमा देता हो, उसे एआईसीटीई से मान्यता लेना जरूरी होता है। यह अपने पैरामीटर्स के अनुसार भारतीय शिक्षा संस्थानों में पोस्ट ग्रैजुएशन और ग्रैजुएशन स्तर के कार्यक्रमों को मान्यता देती है। इसकी वेबसाइट www.aicte-india.org है। इस संस्था के तहत निम्न तरह की तकनीकी पढ़ाई आती है:
- इंजिनियरिंग
- टेक्नॉलजी
- मैनेजमेंट स्टडीज
- वोकेशनल एजुकेशन
- फार्मेसी
- आर्किटेक्चर
- होटेल मैनेजमेंट एंड कैटरिंग टेक्नॉलजी
- इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी
- टाउन एंड कंट्री प्लानिंग
- अप्लाइड आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स
ऊपर वाले कोर्सों में से किसी में अगर कोई संस्थान डिग्री या डिप्लोमा करा रहा है तो इस वेबसाइट पर जाकर सर्च में उसका नाम टाइप करने पर अगर उसके बारे में और उस कोर्स के बारे में जानकारी आती है तो वह असली है।
किसी संस्थान की कोई स्पेशलाइज्ड कोर्स मान्यता प्राप्त है या नहीं, नीचे दी गई उससे जुड़ी वेबसाइट पर जाकर सर्च में संस्थान का नाम डालें:
- टीचर्स एजुकेशन www.ncte-india.org
- लॉ www.barcouncilofindia.org
- डेंटल कोर्स www.dciindia.gov.in
- फार्मेसी www.pci.nic.in
- होम्योपैथी डिग्री www.cchindia.com
- यूनानी : www.ccimindia.org
- एग्रिकल्चर www.icar.org.in
डिस्टेंस लर्निंग/ पत्राचार से पढ़ाई के लिए क्या रखें ध्यान
पिछले चार दशकों में घर बैठे पढ़ाई का हमारे देश में खासा प्रसार हुआ है। इसकी शुरुआत सन 1982 में डॉ. भीमराव आम्बेडकर ओपन यूनिवर्सिटी की स्थापना के साथ हुई थी। बाद में इंदिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी यानी इग्नू की शुरुआत से इसे ज्यादा बढ़ावा मिला। कोई भी ओपन यूनिवर्सिटी सामान्य, बिजनेस और टेक्निकल एजुकेशन आधारित डिग्री बांटने की पात्रता रखती हैं।
क्या है SOL: दिल्ली यूनिवर्सिटी का स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग दूरस्थ शिक्षा पद्धति से एजुकेशन देता है। यह कुछ विषयों में ही डिग्री जारी करता है, जिसमें बीए, बीकॉम, एमए, एमकॉम आदि शामिल है।
SOL और IGNOU में फर्क: एसओएल के माध्यम से आप बीए या बीकॉम की डिग्री हासिल कर सकते हैं जबकि इग्नू में कई तरह के कोर्स होते हैं। इग्नू साल में दो बार परीक्षा पास करने का मौका देता है, लेकिन एसओएल में साल में एक ही बार परीक्षा होती है।
कुछ प्रमुख मान्यता प्राप्त डिस्टेंस एजुकेशन इंस्टिट्यूट
1. नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी, पटना
2. वर्धमान महावीर ओपन यूनिवर्सिटी, कोटा
3. यशवंतराव चह्वाण महाराष्ट्र ओपन यूनिवर्सिटी, नासिक
4. डॉ. बी. आर. आम्बेडकर ओपन यूनिवर्सिटी, हैदराबाद
5. इंदिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी, दिल्ली
6 स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग, दिल्ली
www.ugc.ac.in/deb पर जाकर खुद जांचें कि जिस डिस्टेंस एजुकेशन इंस्टिट्यूट में आप दाखिला ले रहे हैं, वह और उसका कोर्स मान्यता प्राप्त है कि नहीं।
www.knowyourcollege-gov.in- देशभर में फर्जी यूनिवर्सिटी का एक बड़ा जाल फैला हुआ है। वे कुछ इस तरह छात्रों को फर्जीवाड़े में फंसा रही हैं कि छात्रों को आसानी से उनकी जालसाजी का पता ही नहीं चलता। छात्रों की इस जाल से बचाने के लिए हाल ही में इस वेबपोर्टल को लॉन्च किया गया है। इस पर मान्यता प्राप्त कॉलेजों की जानकारी आसानी से प्राप्त की जा सकती है।
31 मार्च 2019 तक देश में यूनिवर्सिटीज की कुल संख्या: 907
स्टेट यूनिवर्सिटीज: 399
डीम्ड यूनिवर्सिटीज: 126
सेंट्रल यूनिवर्सिटीज: 48
प्राइवेट यूनिवर्सिटीज: 334
लीगल एंगल
स्टूडेंट उपभोक्ता की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि वे एजुकेशनल इंस्टिट्यूट को पैसे देकर उसकी सेवाएं लेते हैं। कोई भी छात्र शिक्षा संबंधी मुद्दों जैसे- टीचर का काफी दिनों तक अपॉइंट न होना, फैकल्टी की लगातार अनुपस्थिति, कॉलेज का रिलोकेशन आदि के लिए कंज्यूमर कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के मुताबिक कोई भी शिक्षा संस्थान पूरे कोर्स की फीस एक साथ नहीं ले सकता। लेकिन अगर कोर्स एक सत्र या एक साल से ज्यादा का है तो ऐसे में संस्थान एक सत्र या एक साल की फीस एक साथ ले सकता है। अगर स्टूडेंट बीच में ही संस्थान छोड़ता है तो वाजिब कारण पर संस्थान अनुपातिक फीस काटकर बाकी की फीस स्टूडेंट को लौटाएगा। इस दौरान संस्थान स्टूडेंट के मूल सर्टिफिकेट नहीं रोक सकता। स्टूडेंट इन बातों के लिए कंस्यूमर कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है:
- पढ़ाई की व्यवस्था सही न होना
- टीचरों की कमी होना
- सुविधाओं की कमी होना
- सिलेबस का समय पर शुरू न होना
- स्टडी मटैरियल न देना
- मूल प्रमाणपत्र देने से इनकार करना
- संस्थान के बारे में गलत तथा भ्रामक सूचना देना
- नौकरी का वादा करके उसे पूरा न करना
- कॉलेज छोड़ने पर फीस न लौटाना
- सभी सत्रों की फीस एक साथ मांगना
स्टूडेंट्स के साथ धोखाधड़ी के मामले में यूजीसी हस्तक्षेप करती है। वहीं डीम्ड यूनिवर्सिटी सबसे ज्यादा गड़बड़ी दूसरी जगहों पर अपने कैंपस या स्टडी सेंटर खोलने में करती है। इसके अलावा बिना मान्यता या इजाजत के डिपार्टमेंट भी खोले जाते हैं। स्टूडेंट को चाहिए कि किसी इंस्टिट्यूट की मान्यता या कोर्स के बारे में पता लगाने के लिए वे यूजीसी या एआईसीटीई और डीईबी की वेबसाइट पर जाकर जांच करें। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक अगर स्टूडेंट ने कोई भी कक्षा नहीं ली है तो ऐसी स्थिति में संबंधित संस्थान को सारे पैसे वापस करने होंगे। ऐसा न करने स्टूडेंट कंस्यूमर कोर्ट जा सकता है। कैसे जाएं और कहां जाएं- इसकी जानकारी के लिए 1800-11-400 पर फोन करें। nationalconsumerhelpline.in वेबसाइट पर भी जा सकते हैं।
पढ़ाई भारत में डिग्री विदेशी यूनिवर्सिटी की
देश में ऐसे कई प्राइवेट शिक्षा संस्थान हैं जो भारत में पढ़ाई कराने के बाद डिग्री किसी दूसरे देश की यूनिवर्सिटी की देते हैं। लेकिन बहुत बार इस डिग्री को भारत में मान्यता नहीं मिली होती। ऐसे में इस डिग्री के आधार पर देश में जॉब भी नहीं मिल पाती। दो साल की फास्ट ट्रैक की विदेशी डिग्री को यहां मान्यता नहीं हैं। किसे हैं, किसे नहीं है- यह जानने के लिए असोसिएशन ऑफ यूनिवर्सिटीज की वेबसाइट www.aiu.ac.in पर जाएं और वहां के इंफर्मेशन ब्रोशर फ्री में डाउनलोड करके पढ़ें।
विदेश में पढ़ाई
पिछले दिनों बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों को यूएस में हिरासत में ले लिया गया था। उन पर आरोप लगाया गया कि यूएस आने के लिए उन्होंने फर्जी यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। दूसरी ओर, स्टूडेंट्स का कहना था कि वे फर्जी यूनिवर्सिटी के जाल में फंस गए थे। ऐसे में जरूरी है कि अगर आप विदेश के किसी यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेना चाहते हैं तो सतर्क रहें। बेहतर होगा कि स्टूडेंट्स खुद इंटरनेट और एक्सपर्ट्स की मदद से सही विश्वविद्यालयों चुनें।
इन बातों का ध्यान रखें
- पता करें कि उस यूनिवर्सिटी के पास ऑपरेशनल कैंपस है या नहीं। ऐसा न हो कि वह किसी के घर से चल रही हो।
- फर्जी यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर अक्सर फैकल्टी की लिस्ट नहीं होती। एडमिशन से पहले यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर फैकल्टी की लिस्ट चेक करें।
- अगर किसी यूनिवर्सिटी के पास तय करिकुलम नहीं है तो आप एडमिशन कतई न लें।
- वीजा रैकेट में न फंसें। पे टु स्टे वीजा के लिए कभी भी हां न करें।
- याद रखें, स्टूडेंट एंड एक्सचेंज विजिटर प्रोग्राम किसी यूनिवर्सिटी के जेनुइन होने की गारंटी नहीं है।
- यह पहले ही पता कर ले कि जिस देश में पढ़ने आप जा रहे हैं वहां पढ़ाई के साथ कमाने की इजाजत है या नहीं। काम करने संबंधी वीजा के नियम, रिसर्च की संभावनाएं, इंटरनेशनल स्टूडेंट्स सैटिस्फेक्शन इंडेक्स, रहने का खर्च आदि पहले पता कर लें।
ऐसे जांच करें
- आपने जो कॉलेज या इंस्टिट्यूट चुना है, वह फर्जी तो नहीं, यह चेक करने के लिए whed.net/home.php पर जाएं। यह वर्ल्ड हायर एजुकेशन डेटाबेस है। यहां दुनिया भर के तमाम प्रामाणिक कॉलेजों की लिस्ट है।
- अमेरिकी सरकार की वेबसाइट usa.gov/study-in-us पर जाएं। वहां से अमेरिका जाकर पढ़ाई करने के बारे में बेसिक और प्रामाणिक जानकारी मिल जाएगी।
- फिर आप जिस सब्जेक्ट की पढ़ाई करना चाहते हैं, वह कौन-कौन से कॉलेज और यूनिवर्सिटी में है, यह पता लगाएं। वह कॉलेज कैसा है, यह जानने की कोशिश करें। कॉलेज की वेबसाइट के अलावा उससे जुड़ी तमाम वेबसाइट्स पर जाएं। वहां के स्टूडेंट्स कहां-कहां काम कर रहे हैं, यह जानकारी हासिल करें। सभी कॉलेजों की एल्मनै (एल्युमिनाइज) असोसिएशन भी हैं, जो सोशल मीडिया (फेसबुक आदि) पर एक्टिव होती हैं। कॉलेज के बारे में उनके रिव्यू पढ़ें। कुछ निगेटिव कमेंट्स हैं तो उन पर खास ध्यान दें।
- यूएस में हर कॉलेज की रैंकिंग ऑनलाइन उपलब्ध है। usnews.com/best-colleges पर जाकर रैंकिंग चेक कर सकते हैं।
दाखिले से पहले परखें एक्सपर्ट्स पैनल
-देवेंद्र कुमार चौबे, प्रफेसर, इंडियन लैंग्वेज सेंटर, JNU
-प्रफेसर दरवेश गोपाल, राजनीति शास्त्र, IGNOU
-प्रफेसर गोपाल प्रधान, बी. आर. आम्बेडकर यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली
-प्रेमलता, कंस्यूमर मामलों की जानकार
-रावी बीरबल, वकील, सुप्रीम कोर्ट
-आरती भल्ला, वकील, सुप्रीम कोर्ट
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वैक्सीनः बीमारियों से सुरक्षा कवच
वैक्सीन यानी टीका बहुत-सी बीमारियों से लड़ने में मदद करता है। हालांकि कुछ वैक्सीन को लेकर सवाल भी उठते रहते हैं कि इन्हें लगवाना चाहिए या नहीं या फिर कोई वैक्सीन नुकसान भी पहुंचा सकती है आदि। एक्सपर्ट्स से बात करते जरूरी टीकों के बारे में पूरी जानकारी दे रही हैं
प्रियंका सिंह-
सरकार ने देश भर में यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम (UIP) चलाया हुआ है, जिसके तहत जन्म से लेकर 15 साल तक के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को अलग-अलग बीमारियों से बचाने के लिए वैक्सीन यानी टीके लगाए जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में ये टीके मुफ्त लगाए जाते हैं। वैक्सीन प्राइवेट अस्पतालों में भी लगवा सकते हैं। वैसे, इस प्रोग्राम के अलावा भी डॉक्टर कुछ ऐसे टीके लगवाने की सलाह देते हैं, जो डब्ल्यूएचओ की लिस्ट में शामिल हैं। कुछ टीके कुछ खास इलाकों में होने वाली बीमारियों के अनुसार उन्हीं इलाकों में भी लगाए जाते हैं।
बेहद जरूरी टीके- (इसमे वो टीके आते हैं जो सरकारी प्रोग्राम या WHO की लिस्ट में शामिल हैं)
जन्म के फौरन बाद
BCG, OPV (पोलियो ड्रॉप्स), हेपटाइटिस बी
(टीबी, हेपटाइटिस बी और पोलियो से बचाव)
कीमत: `300-500, तीनों वैक्सीन मिलाकर
छठे हफ्ते (डेढ़ महीना) पर
DPT (डिप्थीरिया, टेटनस और काली खांसी से बचाव)
हेपटाइटिस बी (दूसरी डोज़) (हेपटाइटिस बी से बचाव)
एच इनफ्लुएंजा बी (मैनेंग्जाइटिस यानी दिमागी बुखार से बचाव)
कीमत: 5 बीमारियों (डिप्थीरिया, काली खांसी, टेटनस, हेपटाइटिस बी और मैनेंग्जाइटिस) के टीके को पैंटावेलेंट कहते हैं और पेनलेस वैक्सीन की कीमत 2400-2600 रुपये होती है, अगर पोलियो का इंजेक्शन भी साथ लेते हैं तो कीमत 2600-3900 रुपये तक हो सकती है। इन दिनों ज्यादातर पेंटावेलेंट ही लगाया जा रहा है।
रोटा वायरस (डायरिया से बचाव) कीमत: `650-1600, यह पिलाने वाली दवा है।
नीमोकॉकल (निमोनिया से बचाव) कीमत: `1500-3800
ढाई महीने पर
पेंटावेलेंट, पोलियो, रोटा वायरस, नीमोकॉकल
(डिप्थीरिया, काली खांसी, टेटनस, हेपटाइटिस, मैनेंग्जाइटिस, पोलियो और निमोनिया से बचाव)
कीमत: `4500-6500 तक, सभी वैक्सीन की
साढे़ तीन महीने पर
पेंटावेलेंट, पोलियो, रोटा वायरस, नीमोकॉकल
(डिप्थीरिया, काली खांसी, टिटनस, हेपटाइटिस, मैनेंग्जाइटिस, पोलियो और निमोनिया से बचाव)
कीमत: `4500-6500 तक, सभी वैक्सीन की
9वें महीने पर
MMR, विटामिन ए की ड्रॉप्स
(खसरा, कनफेड़ा, रुबैला से बचाव)
कीमत: `150-180
सवा से 2 साल
MMR, DPT बूस्टर, पोलियो बूस्टर, विटामिन ए ड्रॉप्स (खसरा, कनफेड़ा, रुबैला से बचाव)
कीमत: `300-500
नोट: बच्चे के 5 साल का होने तक हर छह महीने पर विटामिन ए की ड्रॉप्स पिलानी चाहिए।
24वे महीने (2 साल) पर
टाइफॉइड (टायफायड से बचाव)
कीमत: `1800 रुपये
नोट: यह वैक्सीन आमतौर पर तभी देना फायदेमंद है, जब बच्चा बाहर का खाना खाने लगता है। हालांकि टाइफॉइड मां से भी जा सकता है। कई बार डॉक्टर 9-10 महीने की उम्र में भी लगाते हैं।
5 साल पर
DPT लास्ट बूस्टर, पोलियो (लास्ट बूस्टर)
(डिप्थीरिया, काली खांसी, टेटनेस और पोलियो से बचाव)
कीमत: `20-30 `1100-1200 (पेनलेस)
9-15 साल के बीच
HPV (सर्वाइकल कैंसर से बचाव)
कीमत: `3000 प्रति डोज़, तीनों डोज़ जरूरी
नोट: इसे सेक्स शुरू करने की उम्र से पहले, करीब 11-12 साल की लड़कियों में लगवाना बेहतर है।
टिटनस (टेटनस से बचाव) कीमत: `100-200
नोट: DPT का कोर्स पूरा होने के बाद 10 और 15 साल की उम्र में इसे फिर से लगवाना चाहिए।
ध्यान दें-
- मां का दूध बच्चे की इम्युनिटी बढ़ाता है और कुदरती टीके का काम करता है। मम्स, मीजल्स जैसी कई बीमारियों से यह खासतौर पर बचाता है।
- 5 साल की उम्र तक अगर DPT का टीका मिस हो गया है तो फिर इसे लगवाना आमतौर पर जरूरी नहीं होता क्योंकि इसके बाद शरीर खुद ही इन बीमारियों के खिलाफ इम्युनिटी पैदा कर लेती है।
नोट- कुछ डॉक्टर चिकनपॉक्स से बचाव के लिए भी बच्चों में टीका लगवाते हैं, वहीं डॉ. संजय राय, मानते हैं कि इसकी जरूरत नहीं है। यह जानलेवा बीमारी नहीं है और एक बार होने के बाद दोबारा नहीं होती। वैसे भी यह महंगा टीका है और इसकी कीमत 1700-1800 रु होती है।
ये छह वैक्सीन हैं बड़ों के लिएः
ये टीके जरूरी-
HPV (सर्वाइकल कैंसर से बचाव)
कीमत: `3000 प्रति डोज़, तीनों डोज़ जरूरी
- यह टीका फीमेल के लिए होता है। इसे 11-12 साल की लड़कियों में लगवाना चाहिए लेकिन 26 साल की उम्र तक महिलाएं इसे लगवा सकती हैं। हां, अगर महिला सेक्सुअली ऐक्टिव है और वायरस पहले ही लपेटे में ले चुका हो तो वैक्सीन असर नहीं करेगी। यह गार्डासिल (Gardasil) और सर्वरिक्स (Cervarix) नाम से मिलती है। गार्डासिल कैंसर करने वाले कुल 36 वायरस में से 4 और सर्वरिक्स 2 तरह के वायरस से बचाता है, जो सबसे कॉमन और खतरनाक हैं। जिन मरीजों की इम्युनिटी कमजोर हो या मल्टिपल पार्टनर हों, उन्हें भी यह टीका लगवाना चाहिए।
हेपटाइटिस बी (हेपटाइटिस से बचाव)
कीमत: `200 तीनों डोज़ (सरकारी अस्पताल में) और `1000 (प्राइवेट अस्पताल में)
-बचपन में नहीं लगा तो इसे कभी भी लगवा सकते हैं लेकिन जितना जल्दी हो सके, लगवा लेना चाहिए। पहला इंजेक्शन लगने के बाद दूसरा अगले महीने और तीसरा छठे महीने लगना होता है।
नीमोकोकल (निमोनिया से बचाव)
-इसे किसी भी उम्र में लगवा सकते हैं लेकिन आमतौर पर हर 5 साल में लगवा लेना चाहिए। 65 से ज्यादा उम्र होने वाले, शुगर, कैंसर, दिल के मरीजों आदि को जरूर लगवाना चाहिए।
TT-1 और TT-2 (टेटनस से बचाव)
-ये दोनों टीके प्रेग्नेंसी में महिलाओं को लगाए जाते हैं। दोनों टीके शुरुआती दौर में लगाए जाते हैं। कीमत: `100-200 लगभग
ये टीके जरूरी नहीं
इन्फ्लुएंजा (स्वाइन फ्लू और कुछ दूसरे बुखारों से बचाव)
कीमत: `1000-1200
-यह टीका 17 से लेकर 60 फीसदी तक असर करता है लेकिन आमतौर पर सबको इसे लगवाना जरूरी नहीं होता। हां, जिनकी इम्युनिटी कमजोर है जैसे कि डायबीटीज़, एचआईवी, दिल के मरीज आदि, उन्हें इसे लगवा लेना चाहिए। इसे हर साल अगस्त-सितंबर में लगवाएं क्योंकि हर साल इसके वायरस का स्ट्रेन बदल जाता है इसलिए जून-जुलाई में नई वैक्सीन आती है और उसे ही लगवाना फायदेमंद है।
हेपटाइटिस ए (पीलिया से बचाव)
कीमत: `1100 लगभग
-यह पीलिया से बचाता है लेकिन यह डब्ल्यूएचओ की वैक्सीनेशन की लिस्ट में नहीं है। आमतौर पर हम भारतीय पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के प्रति 10 साल की उम्र तक इम्युनिटी पैदा कर लेते हैं। साथ ही, पीलिया अगर एक बार हो जाए तो दोबारा नहीं होता। ऐसे में यह टीका लगवाना जरूरी नहीं है।
नोट: यहां दी गईं कीमतें अनुमानित हैं, उनमें बदलाव मुमकिन है। ज्यादातर टीके सरकारी अस्पतालों में मुफ्त लगाए जाते हैं। कुछ टीकों को लेकर एक्सपर्ट्स की अलग-अलग राय है कि उन्हें लगाया जाना चाहिए या नहीं।
चंद अहम सवाल- जवाबः
टीका लगवाना खतरनाक तो नहीं?
टीका लगवाना खतरनाक नहीं है बल्कि टीका लगवाने से किसी भी बीमारी के होने के आसार 80-90 फीसदी तक कम हो जाते हैं। हां, अगर गैर-जरूरी टीके या फिर जरूरत से ज्यादा टीके लगवाने से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा होने पर साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं। ऐसा भी मुमकिन है कि शरीर कन्फ्यूज हो जाए कि कौन-सी बाहरी चीज नुकसानदेह है और कौन-सी नहीं/ ऐसे में शरीर में ऑटो-इम्यून बीमारियां होने की आशंका बढ़ सकती है यानी शरीर के किसी अंग के सेल्स अपने ही खिलाफ जंग छेड़ दें। वैसे भी, अभी तक ज्यादातर टीकों के फायदों पर रिसर्च हुई है लेकिन इनसे हो सकने वाले नुकसान पर अभी रिसर्च जारी हैं। ऐसे में फालतू टीकों से बचना चाहिए।
जिंदा वायरस शरीर में डालना कितना सही?
कुछ टीकों में शरीर में डेड माइक्रोब्स (बैक्टीरिया या वायरस) डाला जाता है तो कुछ में जिंदा। BCG, पोलियो ड्रॉप्स, मीजल्स, रुबैला आदि की वैक्सीन में जिंदा माइक्रोब्स इस्तेमाल होते हैं तो DPT, हेपटाइटिस, पोलियो इंजेक्शन, टिटनस आदि में डेड माइक्रोब्स। ये माइक्रोब्स शरीर में जाकर कुदरती तौर पर एंटीबॉडी बनते हैं यानी शरीर पहचान कर लेता है कि यह बैक्टीरिया या वायरस खतरनाक है और उससे लड़ने के लिए खुद को पहले ही तैयार कर लेता है। जिन टीकों में जिंदा बैक्टीरिया या वायरस डाला जाता है, उसे भी पहले जेनिटिकली मॉडिफाइड करके इतना कमजोर कर दिया जाता है कि वह शरीर को बीमार नहीं कर सकता। यह शरीर के इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाता है और शरीर किसी बाहरी चीज के खिलाफ लड़ाई के लिए खुद को उसके अटैक करने से पहले ही तैयार कर लेता है। डेड माइब्रोब्स की मात्रा कम डाली जाती है इसलिए इनके टीके बार-बार लगवाने पड़ते हैं।
कोई टीका मिस हो जाए तो?
अगर कोई टीका मिस हो जाए तो अपने डॉक्टर से सलाह लें। हालांकि WHO की गाइडलाइंस कहती हैं कि एक डोज़ छूटने पर उसकी डोज़ साल भर के अंदर भी ले सकते हैं। पहली डोज़ से शरीर खुद को उस माइक्रोब के प्रति संवेदनशील करता है और शरीर की मेमरी में यह दर्ज हो जाता है कि यह पहले भी शरीर में आ चुका है। पूरा कोर्स दोबारा करने की जरूरत नहीं होती। फिर भी इस बारे में डॉक्टर से सलाह कर लेना बेहतर है।
पल्स पोलियो के तहत हर बार पोलियो ड्रॉप्स पीना जरूरी या नहीं?
अगर बच्चे के जन्म के समय, 6ठे, 10वें और 14वें हफ्ते के अलावा 16 से 24 महीने में बूस्टर डोज़ दिया जाता है तो पोलियो से सुरक्षा मिल जाती है लेकिन सरकार ने पूरे देश को पोलियो मुक्त करने के लिए 'पल्स पोलियो मिशन' चलाया हुआ है। उसकी कामयाबी के लिए जरूरी है कि हम बच्चों को पल्स पोलियो मिशन के दौरान हर बार पोलियो ड्रॉप्स पिलाएं ताकि हमारे देश के पूरे इन्वाइरनमेंट से पोलियों का वायरस पूरी तरह निकल सके।
एक्सपर्ट्स पैनल
-डॉ. विवेक गोस्वामी पीडियाट्रिशन, फोर्टिस हॉस्पिटल
- डॉ. हर्शल आर. साल्वे असिस्टेंट प्रफेसर, एम्स
- डॉ. उर्वशी प्रसाद झा सीनियर गाइनिकॉलजिस्ट और सर्जन
- डॉ. संजय राय प्रफेसर, कम्युनिटी मेडिसिन, एम्स
सरकार ने देश भर में यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम (UIP) चलाया हुआ है, जिसके तहत जन्म से लेकर 15 साल तक के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को अलग-अलग बीमारियों से बचाने के लिए वैक्सीन यानी टीके लगाए जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में ये टीके मुफ्त लगाए जाते हैं। वैक्सीन प्राइवेट अस्पतालों में भी लगवा सकते हैं। वैसे, इस प्रोग्राम के अलावा भी डॉक्टर कुछ ऐसे टीके लगवाने की सलाह देते हैं, जो डब्ल्यूएचओ की लिस्ट में शामिल हैं। कुछ टीके कुछ खास इलाकों में होने वाली बीमारियों के अनुसार उन्हीं इलाकों में भी लगाए जाते हैं।
बेहद जरूरी टीके- (इसमे वो टीके आते हैं जो सरकारी प्रोग्राम या WHO की लिस्ट में शामिल हैं)
जन्म के फौरन बाद
BCG, OPV (पोलियो ड्रॉप्स), हेपटाइटिस बी
(टीबी, हेपटाइटिस बी और पोलियो से बचाव)
कीमत: `300-500, तीनों वैक्सीन मिलाकर
छठे हफ्ते (डेढ़ महीना) पर
DPT (डिप्थीरिया, टेटनस और काली खांसी से बचाव)
हेपटाइटिस बी (दूसरी डोज़) (हेपटाइटिस बी से बचाव)
एच इनफ्लुएंजा बी (मैनेंग्जाइटिस यानी दिमागी बुखार से बचाव)
कीमत: 5 बीमारियों (डिप्थीरिया, काली खांसी, टेटनस, हेपटाइटिस बी और मैनेंग्जाइटिस) के टीके को पैंटावेलेंट कहते हैं और पेनलेस वैक्सीन की कीमत 2400-2600 रुपये होती है, अगर पोलियो का इंजेक्शन भी साथ लेते हैं तो कीमत 2600-3900 रुपये तक हो सकती है। इन दिनों ज्यादातर पेंटावेलेंट ही लगाया जा रहा है।
रोटा वायरस (डायरिया से बचाव) कीमत: `650-1600, यह पिलाने वाली दवा है।
नीमोकॉकल (निमोनिया से बचाव) कीमत: `1500-3800
ढाई महीने पर
पेंटावेलेंट, पोलियो, रोटा वायरस, नीमोकॉकल
(डिप्थीरिया, काली खांसी, टेटनस, हेपटाइटिस, मैनेंग्जाइटिस, पोलियो और निमोनिया से बचाव)
कीमत: `4500-6500 तक, सभी वैक्सीन की
साढे़ तीन महीने पर
पेंटावेलेंट, पोलियो, रोटा वायरस, नीमोकॉकल
(डिप्थीरिया, काली खांसी, टिटनस, हेपटाइटिस, मैनेंग्जाइटिस, पोलियो और निमोनिया से बचाव)
कीमत: `4500-6500 तक, सभी वैक्सीन की
9वें महीने पर
MMR, विटामिन ए की ड्रॉप्स
(खसरा, कनफेड़ा, रुबैला से बचाव)
कीमत: `150-180
सवा से 2 साल
MMR, DPT बूस्टर, पोलियो बूस्टर, विटामिन ए ड्रॉप्स (खसरा, कनफेड़ा, रुबैला से बचाव)
कीमत: `300-500
नोट: बच्चे के 5 साल का होने तक हर छह महीने पर विटामिन ए की ड्रॉप्स पिलानी चाहिए।
24वे महीने (2 साल) पर
टाइफॉइड (टायफायड से बचाव)
कीमत: `1800 रुपये
नोट: यह वैक्सीन आमतौर पर तभी देना फायदेमंद है, जब बच्चा बाहर का खाना खाने लगता है। हालांकि टाइफॉइड मां से भी जा सकता है। कई बार डॉक्टर 9-10 महीने की उम्र में भी लगाते हैं।
5 साल पर
DPT लास्ट बूस्टर, पोलियो (लास्ट बूस्टर)
(डिप्थीरिया, काली खांसी, टेटनेस और पोलियो से बचाव)
कीमत: `20-30 `1100-1200 (पेनलेस)
9-15 साल के बीच
HPV (सर्वाइकल कैंसर से बचाव)
कीमत: `3000 प्रति डोज़, तीनों डोज़ जरूरी
नोट: इसे सेक्स शुरू करने की उम्र से पहले, करीब 11-12 साल की लड़कियों में लगवाना बेहतर है।
टिटनस (टेटनस से बचाव) कीमत: `100-200
नोट: DPT का कोर्स पूरा होने के बाद 10 और 15 साल की उम्र में इसे फिर से लगवाना चाहिए।
ध्यान दें-
- मां का दूध बच्चे की इम्युनिटी बढ़ाता है और कुदरती टीके का काम करता है। मम्स, मीजल्स जैसी कई बीमारियों से यह खासतौर पर बचाता है।
- 5 साल की उम्र तक अगर DPT का टीका मिस हो गया है तो फिर इसे लगवाना आमतौर पर जरूरी नहीं होता क्योंकि इसके बाद शरीर खुद ही इन बीमारियों के खिलाफ इम्युनिटी पैदा कर लेती है।
नोट- कुछ डॉक्टर चिकनपॉक्स से बचाव के लिए भी बच्चों में टीका लगवाते हैं, वहीं डॉ. संजय राय, मानते हैं कि इसकी जरूरत नहीं है। यह जानलेवा बीमारी नहीं है और एक बार होने के बाद दोबारा नहीं होती। वैसे भी यह महंगा टीका है और इसकी कीमत 1700-1800 रु होती है।
ये छह वैक्सीन हैं बड़ों के लिएः
ये टीके जरूरी-
HPV (सर्वाइकल कैंसर से बचाव)
कीमत: `3000 प्रति डोज़, तीनों डोज़ जरूरी
- यह टीका फीमेल के लिए होता है। इसे 11-12 साल की लड़कियों में लगवाना चाहिए लेकिन 26 साल की उम्र तक महिलाएं इसे लगवा सकती हैं। हां, अगर महिला सेक्सुअली ऐक्टिव है और वायरस पहले ही लपेटे में ले चुका हो तो वैक्सीन असर नहीं करेगी। यह गार्डासिल (Gardasil) और सर्वरिक्स (Cervarix) नाम से मिलती है। गार्डासिल कैंसर करने वाले कुल 36 वायरस में से 4 और सर्वरिक्स 2 तरह के वायरस से बचाता है, जो सबसे कॉमन और खतरनाक हैं। जिन मरीजों की इम्युनिटी कमजोर हो या मल्टिपल पार्टनर हों, उन्हें भी यह टीका लगवाना चाहिए।
हेपटाइटिस बी (हेपटाइटिस से बचाव)
कीमत: `200 तीनों डोज़ (सरकारी अस्पताल में) और `1000 (प्राइवेट अस्पताल में)
-बचपन में नहीं लगा तो इसे कभी भी लगवा सकते हैं लेकिन जितना जल्दी हो सके, लगवा लेना चाहिए। पहला इंजेक्शन लगने के बाद दूसरा अगले महीने और तीसरा छठे महीने लगना होता है।
नीमोकोकल (निमोनिया से बचाव)
-इसे किसी भी उम्र में लगवा सकते हैं लेकिन आमतौर पर हर 5 साल में लगवा लेना चाहिए। 65 से ज्यादा उम्र होने वाले, शुगर, कैंसर, दिल के मरीजों आदि को जरूर लगवाना चाहिए।
TT-1 और TT-2 (टेटनस से बचाव)
-ये दोनों टीके प्रेग्नेंसी में महिलाओं को लगाए जाते हैं। दोनों टीके शुरुआती दौर में लगाए जाते हैं। कीमत: `100-200 लगभग
ये टीके जरूरी नहीं
इन्फ्लुएंजा (स्वाइन फ्लू और कुछ दूसरे बुखारों से बचाव)
कीमत: `1000-1200
-यह टीका 17 से लेकर 60 फीसदी तक असर करता है लेकिन आमतौर पर सबको इसे लगवाना जरूरी नहीं होता। हां, जिनकी इम्युनिटी कमजोर है जैसे कि डायबीटीज़, एचआईवी, दिल के मरीज आदि, उन्हें इसे लगवा लेना चाहिए। इसे हर साल अगस्त-सितंबर में लगवाएं क्योंकि हर साल इसके वायरस का स्ट्रेन बदल जाता है इसलिए जून-जुलाई में नई वैक्सीन आती है और उसे ही लगवाना फायदेमंद है।
हेपटाइटिस ए (पीलिया से बचाव)
कीमत: `1100 लगभग
-यह पीलिया से बचाता है लेकिन यह डब्ल्यूएचओ की वैक्सीनेशन की लिस्ट में नहीं है। आमतौर पर हम भारतीय पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के प्रति 10 साल की उम्र तक इम्युनिटी पैदा कर लेते हैं। साथ ही, पीलिया अगर एक बार हो जाए तो दोबारा नहीं होता। ऐसे में यह टीका लगवाना जरूरी नहीं है।
नोट: यहां दी गईं कीमतें अनुमानित हैं, उनमें बदलाव मुमकिन है। ज्यादातर टीके सरकारी अस्पतालों में मुफ्त लगाए जाते हैं। कुछ टीकों को लेकर एक्सपर्ट्स की अलग-अलग राय है कि उन्हें लगाया जाना चाहिए या नहीं।
चंद अहम सवाल- जवाबः
टीका लगवाना खतरनाक तो नहीं?
टीका लगवाना खतरनाक नहीं है बल्कि टीका लगवाने से किसी भी बीमारी के होने के आसार 80-90 फीसदी तक कम हो जाते हैं। हां, अगर गैर-जरूरी टीके या फिर जरूरत से ज्यादा टीके लगवाने से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा होने पर साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं। ऐसा भी मुमकिन है कि शरीर कन्फ्यूज हो जाए कि कौन-सी बाहरी चीज नुकसानदेह है और कौन-सी नहीं/ ऐसे में शरीर में ऑटो-इम्यून बीमारियां होने की आशंका बढ़ सकती है यानी शरीर के किसी अंग के सेल्स अपने ही खिलाफ जंग छेड़ दें। वैसे भी, अभी तक ज्यादातर टीकों के फायदों पर रिसर्च हुई है लेकिन इनसे हो सकने वाले नुकसान पर अभी रिसर्च जारी हैं। ऐसे में फालतू टीकों से बचना चाहिए।
जिंदा वायरस शरीर में डालना कितना सही?
कुछ टीकों में शरीर में डेड माइक्रोब्स (बैक्टीरिया या वायरस) डाला जाता है तो कुछ में जिंदा। BCG, पोलियो ड्रॉप्स, मीजल्स, रुबैला आदि की वैक्सीन में जिंदा माइक्रोब्स इस्तेमाल होते हैं तो DPT, हेपटाइटिस, पोलियो इंजेक्शन, टिटनस आदि में डेड माइक्रोब्स। ये माइक्रोब्स शरीर में जाकर कुदरती तौर पर एंटीबॉडी बनते हैं यानी शरीर पहचान कर लेता है कि यह बैक्टीरिया या वायरस खतरनाक है और उससे लड़ने के लिए खुद को पहले ही तैयार कर लेता है। जिन टीकों में जिंदा बैक्टीरिया या वायरस डाला जाता है, उसे भी पहले जेनिटिकली मॉडिफाइड करके इतना कमजोर कर दिया जाता है कि वह शरीर को बीमार नहीं कर सकता। यह शरीर के इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाता है और शरीर किसी बाहरी चीज के खिलाफ लड़ाई के लिए खुद को उसके अटैक करने से पहले ही तैयार कर लेता है। डेड माइब्रोब्स की मात्रा कम डाली जाती है इसलिए इनके टीके बार-बार लगवाने पड़ते हैं।
कोई टीका मिस हो जाए तो?
अगर कोई टीका मिस हो जाए तो अपने डॉक्टर से सलाह लें। हालांकि WHO की गाइडलाइंस कहती हैं कि एक डोज़ छूटने पर उसकी डोज़ साल भर के अंदर भी ले सकते हैं। पहली डोज़ से शरीर खुद को उस माइक्रोब के प्रति संवेदनशील करता है और शरीर की मेमरी में यह दर्ज हो जाता है कि यह पहले भी शरीर में आ चुका है। पूरा कोर्स दोबारा करने की जरूरत नहीं होती। फिर भी इस बारे में डॉक्टर से सलाह कर लेना बेहतर है।
पल्स पोलियो के तहत हर बार पोलियो ड्रॉप्स पीना जरूरी या नहीं?
अगर बच्चे के जन्म के समय, 6ठे, 10वें और 14वें हफ्ते के अलावा 16 से 24 महीने में बूस्टर डोज़ दिया जाता है तो पोलियो से सुरक्षा मिल जाती है लेकिन सरकार ने पूरे देश को पोलियो मुक्त करने के लिए 'पल्स पोलियो मिशन' चलाया हुआ है। उसकी कामयाबी के लिए जरूरी है कि हम बच्चों को पल्स पोलियो मिशन के दौरान हर बार पोलियो ड्रॉप्स पिलाएं ताकि हमारे देश के पूरे इन्वाइरनमेंट से पोलियों का वायरस पूरी तरह निकल सके।
एक्सपर्ट्स पैनल
-डॉ. विवेक गोस्वामी पीडियाट्रिशन, फोर्टिस हॉस्पिटल
- डॉ. हर्शल आर. साल्वे असिस्टेंट प्रफेसर, एम्स
- डॉ. उर्वशी प्रसाद झा सीनियर गाइनिकॉलजिस्ट और सर्जन
- डॉ. संजय राय प्रफेसर, कम्युनिटी मेडिसिन, एम्स
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मदर्स डे स्पेशल: काश! हम मां की मां बन पाते
मां हम सभी का इस कदर ख्याल रखती हैं कि किसी दूसरे की दरकार ही नहीं होती। पर मां की जिंदगी में एक ऐसा पड़ाव भी आता है जब मां को हमारी जरूरत होती है। जब मां बुजुर्ग की श्रेणी में आ जाती हैं तो उन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से संपन्न बनाना जरूरी हो जाता है।मां हम सभी का इस कदर ख्याल रखती हैं कि किसी दूसरे की दरकार ही नहीं होती। पर मां की जिंदगी में एक ऐसा पड़ाव भी आता है जब मां को हमारी जरूरत होती है। जब मां बुजुर्ग की श्रेणी में आ जाती हैं तो उन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से संपन्न बनाना जरूरी हो जाता है।
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इन्हें चाहिए स्क्रीन से आजादी
तकनीक की दुनिया के सबसे कामयाब नामों में शुमार बिल गेट्स से लेकर स्टीव जॉब्स तक ने कम उम्र में अपने बच्चों को गैजट्स से दूर रखा। दूसरी ओर, हमारे बच्चों को स्क्रीन की लत लग गई है। डब्ल्यूएचओ की सलाह है कि छोटे बच्चों को एक घंटे से ज्यादा स्क्रीन न देखने दें। एक्सपर्ट्स से पूछकर स्क्रीन, खासकर मोबाइल की लत से निजात पाने के टिप्स दे रही हैं
प्रियंका सिंह....
एक्सपर्ट्स पैनल
शिव खेड़ा, मशहूर लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर
अरुणा ब्रूटा, सीनियर साइकॉलजिस्ट
डॉ. समीर पारिख, डायरेक्टर, मेंटल हेल्थ, फोर्टिस
गीतांजलि शर्मा, सीनियर काउंसलर
मोनिका ने 8 साल के बेटे ध्रुव को पिछले साल मोबाइल लाकर दिया ताकि ऑफिस में रहने के दौरान ध्रुव से संपर्क बना रहे। कुछ महीनों में ही मोनिका ने ध्रुव के बर्ताव में एक अजीब-सा बदलाव देखा। मेड ने मोनिका को बताया कि ध्रुव अक्सर मोबाइल में ही लगा रहता है। मोबाइल के लिए मना करो तो टीवी खोलकर बैठ जाता है। खाना खाने और होमवर्क के लिए भी आसानी से तैयार नहीं होता। यहां तक कि मोनिका के ऑफिस से आने के बाद भी ध्रुव ज्यादातर मोबाइल से ही चिपका रहता है। बेटे का यह हाल देख मोनिका ने फौरन एक अच्छे चाइल्ड काउंसलर की मदद ली। कुछ महीनों की काउंसलिंग और मोनिका की कोशिशों के बाद ध्रुव ने मोबाइल और टीवी पर वक्त बिताना काफी कम कर दिया है और अब वह ज्यादा खुश नजर आता है। इसके लिए मोनिका ने न सिर्फ खुद ज्यादा-से-ज्यादा वक्त ध्रुव के साथ बिताना शुरू किया बल्कि ध्रुव को ज्यादा दोस्त बनाने के लिए भी प्रेरित किया। साथ ही, उसकी पसंद के अनुसार उसे टेनिस और पेंटिंग क्लास भी जॉइन करा दी।
इसी तरह एक नामी साइकॉलजिस्ट के पास हाल ही में एक लड़की का केस आया। वह दिन भर फेसबुक और इंस्टाग्राम पर लगी रहती थी और कोई भी फोटो शेयर करने के बाद बार-बार देखती थी कि कितने लाइक मिले। सोशल मीडिया की लत की वजह से गौरी की पढ़ाई और सेहत पर बुरा असर पड़ रहा था। वह घर में किसी से बात भी नहीं करती थी। दिन भर वह अपने कमरे में मोबाइल पर सोशल मीडिया से चिपकी रहती थी। साइकॉलजिस्ट और पैरंट्स की कोशिशों से गौरी ने धीरे-धीरे मोबाइल की लत से छुटकारा पा लिया।
ये सिर्फ 2 मामले हैं, लेकिन बच्चों का मोबाइल से चिपके रहना घर-घर की समस्या बन गई है। आज बच्चे बहुत ज्यादा वक्त मोबाइल, टैबलेट, लैपटॉप, टीवी आदि पर बिता रहे हैं जोकि उनके शारीरिक और मानसिक विकास से लेकर परिवार के ताने-बाने तक के लिए खतरे की घंटी है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की रिपोर्ट के अनुसार, 2 साल की उम्र तक के बच्चे भी रोजाना 3 घंटे तक मोबाइल पर बिता रहे हैं। इंग्लैंड की नैशनल हैंडराइटिंग असोसिएशन की एक रिसर्च का निष्कर्ष है कि 2 साल से कम उम्र के 58% बच्चे मोबाइल से खेलते हैं। ऐसे बच्चे पेंसिल पकड़ने, लिखने और ड्रॉइंग करने में कमजोर हो रहे हैं। इससे उनका हैंडराइटिंग का हुनर देर से विकसित हो रहा है। मोबाइल के ज्यादा इस्तेमाल से उनके हाथों की मांसपेशियां कमजोर हो रही हैं। हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने पैरंट्स को सलाह दी है कि 2 से 5 साल तक के बच्चों को एक घंटे से ज्यादा टीवी, मोबाइल या कंप्यूटर न देखने दें। वैसे बेहतर यह है कि इस उम्र के बच्चों को मोबाइल से पूरी तरह दूर ही रखा जाए।
अब सवाल उठता है कि आखिर बच्चों को मोबाइल के जाल से कैसे बाहर निकालें? एक्सपर्ट्स की मानें तो थोड़ी कोशिशों से ऐसा करना मुमकिन है। जरूरी नहीं कि हर मामले में साइकॉलजिस्ट या काउंसलर की जरूरत पड़े, लेकिन पैरंट्स को जरूर वक्त रहते बच्चों पर ध्यान देना चाहिए ताकि वे मोबाइल की लत से बच सकें। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि मोबाइल के लत से मतलब फोन पर बातें करने से नहीं बल्कि स्क्रीन के इस्तेमाल यानी इंटरनेट सर्फिंग या सोशल मीडिया पर वक्त बिताने से है। परेशानी की बात यह भी है कि बच्चों को टीवी या मोबाइल से जो मानसिक खुराक मिल रही है, उससे वे ज्यादा हिंसक और असंवेदनशील हो रहे हैं। वे इंसानों के मुकाबले गैजट्स के साथ ज्यादा सुकून महसूस करते हैं। यह परिवार और रिश्तों के ताने-बाने के लिए सही नहीं है।
शौक से लत तक
बच्चे जब छोटे होते हैं तो अक्सर पैरंट्स खुद ही उनके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं, कभी खाना खिलाने के लालच में तो कभी अपना काम पूरा करने के लिए तो कभी बच्चों को कविता, डांस आदि सिखाने के लिए। इस तरह धीरे-धीरे उन्हें मोबाइल देखने में मजा आने लगता है और वे इसका आदी हो जाते हैं। शुरुआती शौक कब लत या अडिक्शन में तब्दील हो जाता है, पता ही नहीं चलता। दरअसल, स्क्रीन अडिक्शन भी वैसी ही लत है जैसे किसी नशे की लत होती है। एक्सपर्ट्स इसे भी ड्रग्स, अल्कोहल, जुआ आदि की तरह ही क्लिनिकल इंपल्सिव डिसऑर्डर मानते हैं यानी किसी काम को करने से खुद को नहीं रोक पाना। जब मोबाइल या टीवी पर लगे रहना बच्चे के रुटीन कामों, मसलन नींद, भूख, होमवर्क, सेहत आदि पर असर डालने लगे और आप चाहकर भी स्थिति को बेहतर नहीं कर पाएं तो समझ जाइए कि खतरे की घंटी बज चुकी है। ऐसे में फौरन एक्सपर्ट यानी काउंसलर या साइकॉलजिस्ट की मदद लें।
रोजाना कितनी देर मोबाइल?
यह कहना बहुत मुश्किल है कि बच्चे रोजाना कितनी देर तक मोबाइल का इस्तेमाल कर सकते हैं। कोशिश करें कि 3-4 साल तक बच्चों को मोबाइल से दूर ही रखें। ऐसा करना मुमकिन न हो पा रहा हो तो भी इस उम्र के बच्चों को 30-60 मिनट से ज्यादा मोबाइल इस्तेमाल न करने दें। इसके अलावा, 5 साल से 12 साल तक के बच्चे को भी 90 मिनट से ज्यादा स्क्रीन नहीं देखना चाहिए। यह अवधि टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब मिलाकर है। इससे बड़े बच्चों (12 से 17 साल) के लिए जरूरी होने पर यह वक्त थोड़ा बढ़ा सकते हैं, लेकिन यह किसी भी कीमत पर दो घंटे से ज्यादा न हो।
स्क्रीन की लत के लक्षण
बर्ताव में बदलाव
- हमेशा मोबाइल से चिपके रहना
- मोबाइल मांगने पर बहाने बनाना या गुस्सा करना
- दूसरों के घर जाकर भी मोबाइल पर ही लगे रहना
- दूसरों से कटे-कटे रहना
- टॉइलट में मोबाइल लेकर जाना
- बेड में साइड पर मोबाइल रखकर सोना
- खेल के मैदान भी मोबाइल साथ ले जाना
- पढ़ाई और खेलकूद में मन न लगना
- पढ़ाई में नंबर कम आना
- ऑनलाइन फ्रेंड्स ज्यादा होना
- नहाने, खाने में बहानेबाजी करना
शारीरिक परेशानी
- नींद पूरी न होना
- वजन बढ़ना
- सिरदर्द होना
- भूख न लगना
- साफ न दिखना
- आंखों में दर्द रहना
- उंगलियों और गर्दन में दर्द होना
मानसिक समस्याएं
- ज्यादा संवेदनशील होना
- काम की जिम्मेदारी न लेना
- हिंसक होना
- डिप्रेशन और चिड़चिड़ापन होना
नोट: ये लक्षण दूसरी बीमारियों के भी हो सकते हैं। ऐसे में बर्ताव में बदलाव के साथ यह देखना भी जरूरी है कि बच्चा कितना वक्त मोबाइल पर बिताता है और क्या वाकई उसका असर बच्चे पर नजर आ रहा है?
बच्चों को कैसे बचाएं लत से
1. खुद बनें उदाहरण
बच्चे हमेशा वही सीखते हैं जो देखते हैं। ऐसे में आपको बच्चों के सामने रोल मॉडल बनना होगा। बच्चों के सामने मोबाइल, लैपटॉप या टीवी का कम-से-कम इस्तेमाल करें। अगर मां या पिता ने एक हाथ में बच्चा पकड़ा है और दूसरे में मोबाइल पर बात कर रहे हैं तो बच्चे को यही लगेगा कि मोबाइल और वह (बच्चा) बराबर अहमियत रखते हैं। ऐसा करने से बचें। अगर मदर होममेकर हैं तो कोशिश करें कि मोबाइल पर बातचीत या चैटिंग आदि तभी ज्यादा करें जब बच्चे घर पर न हों। सोशल मीडिया के लिए भी एक सीमा और वक्त तय कर लें। वर्किंग हैं तो घर पहुंचने के बाद बहुत जरूरी हो तभी मोबाइल देखें या फिर कोई कॉल आ रही हो तो उसे पिक करें। सुबह उठकर पहले बच्चों और खुद पर ध्यान दें, फिर मोबाइल देखें। अक्सर पैरंट्स अपना काम निपटाने के लिए बच्चों को मोबाइल थमा देते हैं। यह तरीका भी सही नहीं है। ऐसा कर आप अपने लिए फौरी राहत तो पा लेते हैं, लेकिन बच्चे को गैजट की ओर धकेल रहे होते हैं।
2. बनाएं गैजट-फ्री जोन
घर में एक एरिया ऐसा हो जहां गैजट लेकर जाने की इजाजत किसी को न हो। यह डाइनिंग या स्टडी एरिया हो सकता है। डिनर, लंच या ब्रेकफास्ट का वक्त पूरी तरह से फैमिली टाइम होना चाहिए। खाने के वक्त अक्सर पैरंट्स बच्चों के लिए टीवी ऑन कर देते हैं या मोबाइल दे देते हैं। यह गलत है। इससे बच्चे का ध्यान बंटता है और खाने का पोषण पूरा नहीं मिल पाता। साथ ही, उसका कंसंट्रेशन भी कमजोर होता है। इसी तरह, सोने से कम-से-कम एक घंटा पहले घर में डिजिटल कर्फ्यू लगा दें, मतलब मोबाइल और टैब्लेट जैसी चीजों से खुद भी दूर रहें और बच्चों को भी दूर रखें। बच्चा जब यह देखेगा तो वह खुद भी मोबाइल का इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर ही करेगा।
3. बच्चों के साथी बनें
आजकल बहुत-से घरों में सिंगल चाइल्ड का चलन है। ऐसे में बच्चा अकेलापन बांटने के लिए मोबाइल या टैबलेट आदि का इस्तेमाल करने लगता है जोकि धीरे-धीरे लत बन जाती है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए आप घर में बच्चे के साथ क्वॉलिटी टाइम बिताएं। उसके साथ कैरम, लूडो, ब्लॉक्स, अंत्याक्षरी, पजल्स जैसे खेल खेलें। बच्चे को जितना मुमकिन हो, गले लगाएं ताकि उसे फिजिकल टच की अहमियत पता हो और वह महसूस कर सके कि किसी करीबी के छूने में जो गर्माहट है वह सोशल मीडिया की दोस्ती में नहीं। जब बच्चा स्कूल से घर आए तो उससे स्कूल की बातें सुनें, उसकी पसंद-नापसंद के बारे में जानें, उसके दोस्तों के बारे में बातें करें। हो सके तो बीच-बीच में उसके दोस्तों को घर पर बुलाएं। इस तरह की चीजों से बच्चे और पैरंट्स के बीच का रिश्ता बेहतर होता है और वह मोबाइल के बजाय सकारात्मक चीजों से जुड़ता है।
4. लालच न दें
अक्सर पहली बार पैरंट्स ही बच्चे को फोन पकड़ाते हैं और यह देखकर खुश होते हैं कि हमारा बच्चा कितना स्मार्ट है। लेकिन यही छोटी-सी गलती आगे जाकर बुरी आदत बन जाती है। इसके अलावा, कई बार पैरंट्स बच्चों से कहते हैं कि फटाफट होमवर्क कर लो तो फिर मोबाइल मिल जाएगा या खाना खाओगे तो मोबाइल देखने को मिलेगा। इस तरह की शर्तें बच्चों के सामने नहीं रखनी चाहिए। इससे बच्चे लालच में फटाफट काम तो निपटा लेते हैं, लेकिन उनका सारा ध्यान मोबाइल पर ही लगा रहता है। उन्हें ब्लैकमेलिंग की आदत भी पड़ती है कि फलां काम करने पर फलां चीज मिलेगी। वे खुद भी इस ट्रिक को दूसरों पर इस्तेमाल करने लगते हैं। अगर बाद में पैरंट्स मोबाइल न दें तो बच्चे को मां-बाप पर गुस्सा आने लगता है।
5. आउटडोर गेम्स में लगाएं
बच्चों के साथ मिलकर वॉक करें, योग करें या दौड़ लगाएं। बच्चों को रोजाना कम-से-कम एक घंटे के लिए पार्क ले जाएं। वहां उन्हें दौड़ने, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि फिजिकल गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें। पैरंट्स खुद भी उनके साथ गेम्स खेलें। टग ऑफ वॉर, आंख मिचौली जैसे गेम भी खेल सकते हैं, जिन्हें खेलने के लिए ज्यादा कोशिश भी नहीं करनी पड़ती। यों भी विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बच्चे रोजाना दो घंटे सूरज की रोशनी में खेलते हैं तो उनकी आंखें कमजोर होने से बच सकती हैं। इसके अलावा, मुमकिन हो तो बच्चे को उसकी पसंद के किसी खेल (क्रिकेट, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन आदि) की कोचिंग दिलाएं। इससे वह फिजिकली ज्यादा ऐक्टिव होगा और मोबाइल से भी दूर रहेगा।
6. हॉबी का सहारा लें
बच्चों की कई हॉबीज़ होती हैं जैसे कि पेंटिंग, डांस, म्यूजिक, रोबॉटिक्स, क्ले मॉडलिंग आदि। बच्चे की पसंद को देखते हुए हॉबी क्लास जॉइन करवाएं, खासकर अगर दोनों पैरंट्स वर्किंग हैं तो यह जरूरी है। इससे बच्चा घर में ज्यादा वक्त अकेला या मेड के साथ रहने को मजबूर नहीं होगा। क्लास में वह अपनी पसंद की चीज तो सीखेगा ही दूसरे बच्चों के साथ घुलने-मिलने से उसका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। यह भी मुमकिन है कि आगे जाकर वह अपनी हॉबी में भी बहुत अच्छा करने लगे और वह एक करियर ऑप्शन बन जाए।
7. घर के काम में हाथ बंटवाएं
घर के कामों में बच्चों की उनकी क्षमता के अनुसार मदद लें। इससे बच्चे आत्मनिर्भर बनेंगे और खाली समय मोबाइल पर बिताने के बजाय कुछ व्यावहारिक चीजें सीखेंगे। कपड़े फोल्ड करना, पानी की बोतल भरना, कमरा सेट करना, पौधों में पानी डालना, अलमारी लगाना जैसे काम बच्चे खुशी-खुशी कर सकते हैं। इन कामों में पैरंट्स बच्चों की मदद ले सकते हैं। इससे पैरंट्स पर काम का बोझ थोड़ा कम होगा और बच्चे आत्मनिर्भर भी बनेंगे।
8. किताबों से दोस्ती कराएं
बच्चों को फोन के बजाय किताबों की ओर ज्यादा ध्यान देने के लिए प्रेरित करें। उन्हें अच्छी स्टोरी बुक लाकर दें और उनसे कहानियां सुनें। जब बच्चों को स्टोरी बुक या कोई और बुक पढ़ने के लिए दें तो खुद भी कोई किताब पढ़ें। ऐसा न हो कि आप टीवी या लैपटॉप खोलकर बैठ जाएं या मोबाइल पर बातें करने लगें। आपको किताब के साथ देखकर उसका भी मन पढ़ाई में लगेगा। बच्चों को रात में सोने से पहले कुछ पॉजिटिव पढ़ने को कहें, फिर चाहे 2 पेज ही क्यों न हों। इससे नींद भी अच्छी आएगी।
9. पेट से कराएं दोस्ती
बच्चों को डॉग जैसा पालतू जानवर लाकर दें। इससे बच्चे केयर करना और दूसरों की भावनाओं को बेहतर तरीके से समझने लगते हैं। अगर ममा-पापा, दोनों वर्किंग हैं तो पेट बच्चे का अच्छा साथी साबित होता है। डॉग को खाना देना, उसकी साफ-सफाई का ध्यान रखना, उसे घुमाना जैसे काम करने से बच्चा बिजी तो रहता ही है, साथ ही उसे कई चीजों की प्रैक्टिकल जानकारी भी हो जाती है।
10. प्राथमिकताएं तय करें
अपनी और अपने परिवार की प्राथमिकताएं तय करें। जितने टाइम सेविंग डिवाइस आज हैं, उतना ही टाइम कम हो गया है लोगों के पास। इसकी वजह यही है कि हमने प्राथमिकताएं तय नहीं की हैं। आजकल अत्यावश्यक (अर्जेंट) और अहम (इम्पॉर्टेंट) के बीच फर्क खत्म हो गया है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि सेहत अहम है, लेकिन अर्जेंट नहीं है इसलिए हम नजरअंदाज कर देते हैं। रिश्ते अहम हैं, लेकिन अर्जेंट नहीं हैं इसलिए पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में प्राथमिकताएं तय करें और सेहत और रिश्तों को टॉप पर रखें। वैसे भी जिंदगी में बैलेंस बहुत जरूरी है। कोई भी चीज कितनी भी जरूरी क्यों न हो, अगर ज्यादा हो जाए तो वह नुकसान ही हो जाएगा। साथ ही, बच्चे के साथ मिलकर जिंदगी का लक्ष्य तय करें और वह लक्ष्य कुछ ऐसा हो जिसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने का भाव हो। इससे बच्चा इधर-उधर वक्त बिताने के बजाय अपने लक्ष्य पर फोकस करता है।
ये ऐप्स भी कारगर
Mama Bear (Spyware)
Norton Family parental control
mSpy
Quality Time
ये ऐप एंड्रॉयड और iOs, दोनों के लिए हैं। इस तरह के ऐप इस बात पर निगरानी रखते हैं कि बच्चा किस-किस वेबसाइट पर कितनी देर बिताता है तो Qustodio premier, Cracked Screen Prank जैसे ऐप एक तय टाइम पर मोबाइल की स्क्रीन में क्रैक जैसा लुक दे देता है। क्रैक्ड स्क्रीन देखकर अक्सर बच्चा मोबाइल छोड़ देता है। छोटे बच्चे पर इसे अपना सकते हैं।
डिजिटल डी-टॉक्सिफिकेशन जरूरी
अपने घर के लिए डिजिटल डी-टॉक्सिफिकेशन का नियम बनाएं। हर हफ्ते में एक दिन और महीने में कुल 4 दिन गैजट फ्री रहें। सुनने में यह मुश्किल जरूर लगता है, लेकिन ऐसा करना मुमकिन है। इस दौरान आप मोबाइल का स्विच ऑफ रखें या उसे फ्लाइट मोड पर रखें। इस दौरान साथ मिलकर ऐक्टिविटी करें। फैमिली के साथ मिलकर गेम्स खेलें। शुरुआत आप दो घंटे से कर सकते हैं। फिर धीरे-धीरे टाइम बढ़ा सकते हैं। इस दौरान जरूरी कॉल होगा तो लैंडलाइन पर आ जाएगा। अगर लैंडलाइन नहीं है तो मिस्ड कॉल का मेसेज मिल जाएगा। 2 घंटे बाद जाकर मोबाइल देखें और अगर कोई जरूरी कॉल लगे तो पलटकर फोन मिला लें। दरअसल, लोग अक्सर मन को बहलाने के लिए चैटिंग या सोशल मीडिया सर्फिंग शुरू कर देते हैं या टीवी देखने लगते हैं। इन सबमें मजा जरूर आ सकता है, लेकिन दिमाग को आराम नहीं मिलता बल्कि उसका और ज्यादा इस्तेमाल होने लगता है। आराम नहीं मिलने से दिमाग थक जाता है। इससे चिड़चिड़हाट होगी और कंसंट्रेशन नहीं होगा। गलतियां भी ज्यादा होंगी।
आजमाएं इसे
आज से आप भी अपने और अपने परिवार को हफ्ते में एक दिन डिजिटल डी-टॉक्सिफाई करना शुरू करें। आज आप इसके लिए 2 घंटे का वक्त तय कर सकते हैं। इस बीच टीवी, मोबाइल, लैपटॉप आदि गैजट के बजाय फैमिली के साथ फन टाइम बिताएं। आपने अपने परिवार के साथ कैसे वक्त बिताया, हमें लिखें sundaynbt@gmail.com पर। सब्जेक्ट में mobile लिखें। आप अपने परिवार के साथ फन टाइम के फोटो हमारे फेसबुक पेज Sundaynbt पर भी शेयर कर सकते हैं। साथ ही, हमें मेल पर या मोबाइल नंबर 89298-16941 पर बताएं कि डिजिटल डीटॉक्सिफिकेशन की हमारी मुहिम को आप सही मानते हैं या नहीं?
एक्सपर्ट्स की राय
'बच्चों के दोस्त बनने की कोशिश न करें, बल्कि दोस्ताना रवैये वाले पैरंट्स बनें। दोस्त तो उनके पास काफी होंगे, लेकिन उन्हें सही दिशा देने वाले पैरंट्स आप ही हैं। आजकल पैरंट्स बच्चों की पसंद के खिलाफ कदम नहीं उठाना चाहते। पैरंट्स बच्चों से रोकटोक कर सिरदर्द नहीं लेना चाहते, लेकिन आगे जाकर इसी वजह से उनका दिल टूटता है।'
-शिव खेड़ा, मोटिवेशनल स्पीकर और लेखक
'बच्चों के रोल मॉडल बनें। वे वही करते और सीखते हैं जो देखते हैं। अगर आप एक हाथ में मोबाइल और दूसरे में बच्चा पकड़े रहेंगे तो बच्चे को लगेगा कि मोबाइल भी इसके जितना ही अहम है। ऐसे में पैंरंट्स के लिए जरूरी है कि वे घर में मोबाइल का इस्तेमाल जरूरी होने पर ही करें।'
- डॉ. समीर पारिख, सीनियर सायकायट्रिस्ट
एक्सपर्ट्स पैनल
शिव खेड़ा, मशहूर लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर
अरुणा ब्रूटा, सीनियर साइकॉलजिस्ट
डॉ. समीर पारिख, डायरेक्टर, मेंटल हेल्थ, फोर्टिस
गीतांजलि शर्मा, सीनियर काउंसलर
मोनिका ने 8 साल के बेटे ध्रुव को पिछले साल मोबाइल लाकर दिया ताकि ऑफिस में रहने के दौरान ध्रुव से संपर्क बना रहे। कुछ महीनों में ही मोनिका ने ध्रुव के बर्ताव में एक अजीब-सा बदलाव देखा। मेड ने मोनिका को बताया कि ध्रुव अक्सर मोबाइल में ही लगा रहता है। मोबाइल के लिए मना करो तो टीवी खोलकर बैठ जाता है। खाना खाने और होमवर्क के लिए भी आसानी से तैयार नहीं होता। यहां तक कि मोनिका के ऑफिस से आने के बाद भी ध्रुव ज्यादातर मोबाइल से ही चिपका रहता है। बेटे का यह हाल देख मोनिका ने फौरन एक अच्छे चाइल्ड काउंसलर की मदद ली। कुछ महीनों की काउंसलिंग और मोनिका की कोशिशों के बाद ध्रुव ने मोबाइल और टीवी पर वक्त बिताना काफी कम कर दिया है और अब वह ज्यादा खुश नजर आता है। इसके लिए मोनिका ने न सिर्फ खुद ज्यादा-से-ज्यादा वक्त ध्रुव के साथ बिताना शुरू किया बल्कि ध्रुव को ज्यादा दोस्त बनाने के लिए भी प्रेरित किया। साथ ही, उसकी पसंद के अनुसार उसे टेनिस और पेंटिंग क्लास भी जॉइन करा दी।
इसी तरह एक नामी साइकॉलजिस्ट के पास हाल ही में एक लड़की का केस आया। वह दिन भर फेसबुक और इंस्टाग्राम पर लगी रहती थी और कोई भी फोटो शेयर करने के बाद बार-बार देखती थी कि कितने लाइक मिले। सोशल मीडिया की लत की वजह से गौरी की पढ़ाई और सेहत पर बुरा असर पड़ रहा था। वह घर में किसी से बात भी नहीं करती थी। दिन भर वह अपने कमरे में मोबाइल पर सोशल मीडिया से चिपकी रहती थी। साइकॉलजिस्ट और पैरंट्स की कोशिशों से गौरी ने धीरे-धीरे मोबाइल की लत से छुटकारा पा लिया।
ये सिर्फ 2 मामले हैं, लेकिन बच्चों का मोबाइल से चिपके रहना घर-घर की समस्या बन गई है। आज बच्चे बहुत ज्यादा वक्त मोबाइल, टैबलेट, लैपटॉप, टीवी आदि पर बिता रहे हैं जोकि उनके शारीरिक और मानसिक विकास से लेकर परिवार के ताने-बाने तक के लिए खतरे की घंटी है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की रिपोर्ट के अनुसार, 2 साल की उम्र तक के बच्चे भी रोजाना 3 घंटे तक मोबाइल पर बिता रहे हैं। इंग्लैंड की नैशनल हैंडराइटिंग असोसिएशन की एक रिसर्च का निष्कर्ष है कि 2 साल से कम उम्र के 58% बच्चे मोबाइल से खेलते हैं। ऐसे बच्चे पेंसिल पकड़ने, लिखने और ड्रॉइंग करने में कमजोर हो रहे हैं। इससे उनका हैंडराइटिंग का हुनर देर से विकसित हो रहा है। मोबाइल के ज्यादा इस्तेमाल से उनके हाथों की मांसपेशियां कमजोर हो रही हैं। हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने पैरंट्स को सलाह दी है कि 2 से 5 साल तक के बच्चों को एक घंटे से ज्यादा टीवी, मोबाइल या कंप्यूटर न देखने दें। वैसे बेहतर यह है कि इस उम्र के बच्चों को मोबाइल से पूरी तरह दूर ही रखा जाए।
अब सवाल उठता है कि आखिर बच्चों को मोबाइल के जाल से कैसे बाहर निकालें? एक्सपर्ट्स की मानें तो थोड़ी कोशिशों से ऐसा करना मुमकिन है। जरूरी नहीं कि हर मामले में साइकॉलजिस्ट या काउंसलर की जरूरत पड़े, लेकिन पैरंट्स को जरूर वक्त रहते बच्चों पर ध्यान देना चाहिए ताकि वे मोबाइल की लत से बच सकें। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि मोबाइल के लत से मतलब फोन पर बातें करने से नहीं बल्कि स्क्रीन के इस्तेमाल यानी इंटरनेट सर्फिंग या सोशल मीडिया पर वक्त बिताने से है। परेशानी की बात यह भी है कि बच्चों को टीवी या मोबाइल से जो मानसिक खुराक मिल रही है, उससे वे ज्यादा हिंसक और असंवेदनशील हो रहे हैं। वे इंसानों के मुकाबले गैजट्स के साथ ज्यादा सुकून महसूस करते हैं। यह परिवार और रिश्तों के ताने-बाने के लिए सही नहीं है।
शौक से लत तक
बच्चे जब छोटे होते हैं तो अक्सर पैरंट्स खुद ही उनके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं, कभी खाना खिलाने के लालच में तो कभी अपना काम पूरा करने के लिए तो कभी बच्चों को कविता, डांस आदि सिखाने के लिए। इस तरह धीरे-धीरे उन्हें मोबाइल देखने में मजा आने लगता है और वे इसका आदी हो जाते हैं। शुरुआती शौक कब लत या अडिक्शन में तब्दील हो जाता है, पता ही नहीं चलता। दरअसल, स्क्रीन अडिक्शन भी वैसी ही लत है जैसे किसी नशे की लत होती है। एक्सपर्ट्स इसे भी ड्रग्स, अल्कोहल, जुआ आदि की तरह ही क्लिनिकल इंपल्सिव डिसऑर्डर मानते हैं यानी किसी काम को करने से खुद को नहीं रोक पाना। जब मोबाइल या टीवी पर लगे रहना बच्चे के रुटीन कामों, मसलन नींद, भूख, होमवर्क, सेहत आदि पर असर डालने लगे और आप चाहकर भी स्थिति को बेहतर नहीं कर पाएं तो समझ जाइए कि खतरे की घंटी बज चुकी है। ऐसे में फौरन एक्सपर्ट यानी काउंसलर या साइकॉलजिस्ट की मदद लें।
रोजाना कितनी देर मोबाइल?
यह कहना बहुत मुश्किल है कि बच्चे रोजाना कितनी देर तक मोबाइल का इस्तेमाल कर सकते हैं। कोशिश करें कि 3-4 साल तक बच्चों को मोबाइल से दूर ही रखें। ऐसा करना मुमकिन न हो पा रहा हो तो भी इस उम्र के बच्चों को 30-60 मिनट से ज्यादा मोबाइल इस्तेमाल न करने दें। इसके अलावा, 5 साल से 12 साल तक के बच्चे को भी 90 मिनट से ज्यादा स्क्रीन नहीं देखना चाहिए। यह अवधि टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब मिलाकर है। इससे बड़े बच्चों (12 से 17 साल) के लिए जरूरी होने पर यह वक्त थोड़ा बढ़ा सकते हैं, लेकिन यह किसी भी कीमत पर दो घंटे से ज्यादा न हो।
स्क्रीन की लत के लक्षण
बर्ताव में बदलाव
- हमेशा मोबाइल से चिपके रहना
- मोबाइल मांगने पर बहाने बनाना या गुस्सा करना
- दूसरों के घर जाकर भी मोबाइल पर ही लगे रहना
- दूसरों से कटे-कटे रहना
- टॉइलट में मोबाइल लेकर जाना
- बेड में साइड पर मोबाइल रखकर सोना
- खेल के मैदान भी मोबाइल साथ ले जाना
- पढ़ाई और खेलकूद में मन न लगना
- पढ़ाई में नंबर कम आना
- ऑनलाइन फ्रेंड्स ज्यादा होना
- नहाने, खाने में बहानेबाजी करना
शारीरिक परेशानी
- नींद पूरी न होना
- वजन बढ़ना
- सिरदर्द होना
- भूख न लगना
- साफ न दिखना
- आंखों में दर्द रहना
- उंगलियों और गर्दन में दर्द होना
मानसिक समस्याएं
- ज्यादा संवेदनशील होना
- काम की जिम्मेदारी न लेना
- हिंसक होना
- डिप्रेशन और चिड़चिड़ापन होना
नोट: ये लक्षण दूसरी बीमारियों के भी हो सकते हैं। ऐसे में बर्ताव में बदलाव के साथ यह देखना भी जरूरी है कि बच्चा कितना वक्त मोबाइल पर बिताता है और क्या वाकई उसका असर बच्चे पर नजर आ रहा है?
बच्चों को कैसे बचाएं लत से
1. खुद बनें उदाहरण
बच्चे हमेशा वही सीखते हैं जो देखते हैं। ऐसे में आपको बच्चों के सामने रोल मॉडल बनना होगा। बच्चों के सामने मोबाइल, लैपटॉप या टीवी का कम-से-कम इस्तेमाल करें। अगर मां या पिता ने एक हाथ में बच्चा पकड़ा है और दूसरे में मोबाइल पर बात कर रहे हैं तो बच्चे को यही लगेगा कि मोबाइल और वह (बच्चा) बराबर अहमियत रखते हैं। ऐसा करने से बचें। अगर मदर होममेकर हैं तो कोशिश करें कि मोबाइल पर बातचीत या चैटिंग आदि तभी ज्यादा करें जब बच्चे घर पर न हों। सोशल मीडिया के लिए भी एक सीमा और वक्त तय कर लें। वर्किंग हैं तो घर पहुंचने के बाद बहुत जरूरी हो तभी मोबाइल देखें या फिर कोई कॉल आ रही हो तो उसे पिक करें। सुबह उठकर पहले बच्चों और खुद पर ध्यान दें, फिर मोबाइल देखें। अक्सर पैरंट्स अपना काम निपटाने के लिए बच्चों को मोबाइल थमा देते हैं। यह तरीका भी सही नहीं है। ऐसा कर आप अपने लिए फौरी राहत तो पा लेते हैं, लेकिन बच्चे को गैजट की ओर धकेल रहे होते हैं।
2. बनाएं गैजट-फ्री जोन
घर में एक एरिया ऐसा हो जहां गैजट लेकर जाने की इजाजत किसी को न हो। यह डाइनिंग या स्टडी एरिया हो सकता है। डिनर, लंच या ब्रेकफास्ट का वक्त पूरी तरह से फैमिली टाइम होना चाहिए। खाने के वक्त अक्सर पैरंट्स बच्चों के लिए टीवी ऑन कर देते हैं या मोबाइल दे देते हैं। यह गलत है। इससे बच्चे का ध्यान बंटता है और खाने का पोषण पूरा नहीं मिल पाता। साथ ही, उसका कंसंट्रेशन भी कमजोर होता है। इसी तरह, सोने से कम-से-कम एक घंटा पहले घर में डिजिटल कर्फ्यू लगा दें, मतलब मोबाइल और टैब्लेट जैसी चीजों से खुद भी दूर रहें और बच्चों को भी दूर रखें। बच्चा जब यह देखेगा तो वह खुद भी मोबाइल का इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर ही करेगा।
3. बच्चों के साथी बनें
आजकल बहुत-से घरों में सिंगल चाइल्ड का चलन है। ऐसे में बच्चा अकेलापन बांटने के लिए मोबाइल या टैबलेट आदि का इस्तेमाल करने लगता है जोकि धीरे-धीरे लत बन जाती है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए आप घर में बच्चे के साथ क्वॉलिटी टाइम बिताएं। उसके साथ कैरम, लूडो, ब्लॉक्स, अंत्याक्षरी, पजल्स जैसे खेल खेलें। बच्चे को जितना मुमकिन हो, गले लगाएं ताकि उसे फिजिकल टच की अहमियत पता हो और वह महसूस कर सके कि किसी करीबी के छूने में जो गर्माहट है वह सोशल मीडिया की दोस्ती में नहीं। जब बच्चा स्कूल से घर आए तो उससे स्कूल की बातें सुनें, उसकी पसंद-नापसंद के बारे में जानें, उसके दोस्तों के बारे में बातें करें। हो सके तो बीच-बीच में उसके दोस्तों को घर पर बुलाएं। इस तरह की चीजों से बच्चे और पैरंट्स के बीच का रिश्ता बेहतर होता है और वह मोबाइल के बजाय सकारात्मक चीजों से जुड़ता है।
4. लालच न दें
अक्सर पहली बार पैरंट्स ही बच्चे को फोन पकड़ाते हैं और यह देखकर खुश होते हैं कि हमारा बच्चा कितना स्मार्ट है। लेकिन यही छोटी-सी गलती आगे जाकर बुरी आदत बन जाती है। इसके अलावा, कई बार पैरंट्स बच्चों से कहते हैं कि फटाफट होमवर्क कर लो तो फिर मोबाइल मिल जाएगा या खाना खाओगे तो मोबाइल देखने को मिलेगा। इस तरह की शर्तें बच्चों के सामने नहीं रखनी चाहिए। इससे बच्चे लालच में फटाफट काम तो निपटा लेते हैं, लेकिन उनका सारा ध्यान मोबाइल पर ही लगा रहता है। उन्हें ब्लैकमेलिंग की आदत भी पड़ती है कि फलां काम करने पर फलां चीज मिलेगी। वे खुद भी इस ट्रिक को दूसरों पर इस्तेमाल करने लगते हैं। अगर बाद में पैरंट्स मोबाइल न दें तो बच्चे को मां-बाप पर गुस्सा आने लगता है।
5. आउटडोर गेम्स में लगाएं
बच्चों के साथ मिलकर वॉक करें, योग करें या दौड़ लगाएं। बच्चों को रोजाना कम-से-कम एक घंटे के लिए पार्क ले जाएं। वहां उन्हें दौड़ने, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि फिजिकल गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें। पैरंट्स खुद भी उनके साथ गेम्स खेलें। टग ऑफ वॉर, आंख मिचौली जैसे गेम भी खेल सकते हैं, जिन्हें खेलने के लिए ज्यादा कोशिश भी नहीं करनी पड़ती। यों भी विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बच्चे रोजाना दो घंटे सूरज की रोशनी में खेलते हैं तो उनकी आंखें कमजोर होने से बच सकती हैं। इसके अलावा, मुमकिन हो तो बच्चे को उसकी पसंद के किसी खेल (क्रिकेट, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन आदि) की कोचिंग दिलाएं। इससे वह फिजिकली ज्यादा ऐक्टिव होगा और मोबाइल से भी दूर रहेगा।
6. हॉबी का सहारा लें
बच्चों की कई हॉबीज़ होती हैं जैसे कि पेंटिंग, डांस, म्यूजिक, रोबॉटिक्स, क्ले मॉडलिंग आदि। बच्चे की पसंद को देखते हुए हॉबी क्लास जॉइन करवाएं, खासकर अगर दोनों पैरंट्स वर्किंग हैं तो यह जरूरी है। इससे बच्चा घर में ज्यादा वक्त अकेला या मेड के साथ रहने को मजबूर नहीं होगा। क्लास में वह अपनी पसंद की चीज तो सीखेगा ही दूसरे बच्चों के साथ घुलने-मिलने से उसका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। यह भी मुमकिन है कि आगे जाकर वह अपनी हॉबी में भी बहुत अच्छा करने लगे और वह एक करियर ऑप्शन बन जाए।
7. घर के काम में हाथ बंटवाएं
घर के कामों में बच्चों की उनकी क्षमता के अनुसार मदद लें। इससे बच्चे आत्मनिर्भर बनेंगे और खाली समय मोबाइल पर बिताने के बजाय कुछ व्यावहारिक चीजें सीखेंगे। कपड़े फोल्ड करना, पानी की बोतल भरना, कमरा सेट करना, पौधों में पानी डालना, अलमारी लगाना जैसे काम बच्चे खुशी-खुशी कर सकते हैं। इन कामों में पैरंट्स बच्चों की मदद ले सकते हैं। इससे पैरंट्स पर काम का बोझ थोड़ा कम होगा और बच्चे आत्मनिर्भर भी बनेंगे।
8. किताबों से दोस्ती कराएं
बच्चों को फोन के बजाय किताबों की ओर ज्यादा ध्यान देने के लिए प्रेरित करें। उन्हें अच्छी स्टोरी बुक लाकर दें और उनसे कहानियां सुनें। जब बच्चों को स्टोरी बुक या कोई और बुक पढ़ने के लिए दें तो खुद भी कोई किताब पढ़ें। ऐसा न हो कि आप टीवी या लैपटॉप खोलकर बैठ जाएं या मोबाइल पर बातें करने लगें। आपको किताब के साथ देखकर उसका भी मन पढ़ाई में लगेगा। बच्चों को रात में सोने से पहले कुछ पॉजिटिव पढ़ने को कहें, फिर चाहे 2 पेज ही क्यों न हों। इससे नींद भी अच्छी आएगी।
9. पेट से कराएं दोस्ती
बच्चों को डॉग जैसा पालतू जानवर लाकर दें। इससे बच्चे केयर करना और दूसरों की भावनाओं को बेहतर तरीके से समझने लगते हैं। अगर ममा-पापा, दोनों वर्किंग हैं तो पेट बच्चे का अच्छा साथी साबित होता है। डॉग को खाना देना, उसकी साफ-सफाई का ध्यान रखना, उसे घुमाना जैसे काम करने से बच्चा बिजी तो रहता ही है, साथ ही उसे कई चीजों की प्रैक्टिकल जानकारी भी हो जाती है।
10. प्राथमिकताएं तय करें
अपनी और अपने परिवार की प्राथमिकताएं तय करें। जितने टाइम सेविंग डिवाइस आज हैं, उतना ही टाइम कम हो गया है लोगों के पास। इसकी वजह यही है कि हमने प्राथमिकताएं तय नहीं की हैं। आजकल अत्यावश्यक (अर्जेंट) और अहम (इम्पॉर्टेंट) के बीच फर्क खत्म हो गया है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि सेहत अहम है, लेकिन अर्जेंट नहीं है इसलिए हम नजरअंदाज कर देते हैं। रिश्ते अहम हैं, लेकिन अर्जेंट नहीं हैं इसलिए पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में प्राथमिकताएं तय करें और सेहत और रिश्तों को टॉप पर रखें। वैसे भी जिंदगी में बैलेंस बहुत जरूरी है। कोई भी चीज कितनी भी जरूरी क्यों न हो, अगर ज्यादा हो जाए तो वह नुकसान ही हो जाएगा। साथ ही, बच्चे के साथ मिलकर जिंदगी का लक्ष्य तय करें और वह लक्ष्य कुछ ऐसा हो जिसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने का भाव हो। इससे बच्चा इधर-उधर वक्त बिताने के बजाय अपने लक्ष्य पर फोकस करता है।
ये ऐप्स भी कारगर
Mama Bear (Spyware)
Norton Family parental control
mSpy
Quality Time
ये ऐप एंड्रॉयड और iOs, दोनों के लिए हैं। इस तरह के ऐप इस बात पर निगरानी रखते हैं कि बच्चा किस-किस वेबसाइट पर कितनी देर बिताता है तो Qustodio premier, Cracked Screen Prank जैसे ऐप एक तय टाइम पर मोबाइल की स्क्रीन में क्रैक जैसा लुक दे देता है। क्रैक्ड स्क्रीन देखकर अक्सर बच्चा मोबाइल छोड़ देता है। छोटे बच्चे पर इसे अपना सकते हैं।
डिजिटल डी-टॉक्सिफिकेशन जरूरी
अपने घर के लिए डिजिटल डी-टॉक्सिफिकेशन का नियम बनाएं। हर हफ्ते में एक दिन और महीने में कुल 4 दिन गैजट फ्री रहें। सुनने में यह मुश्किल जरूर लगता है, लेकिन ऐसा करना मुमकिन है। इस दौरान आप मोबाइल का स्विच ऑफ रखें या उसे फ्लाइट मोड पर रखें। इस दौरान साथ मिलकर ऐक्टिविटी करें। फैमिली के साथ मिलकर गेम्स खेलें। शुरुआत आप दो घंटे से कर सकते हैं। फिर धीरे-धीरे टाइम बढ़ा सकते हैं। इस दौरान जरूरी कॉल होगा तो लैंडलाइन पर आ जाएगा। अगर लैंडलाइन नहीं है तो मिस्ड कॉल का मेसेज मिल जाएगा। 2 घंटे बाद जाकर मोबाइल देखें और अगर कोई जरूरी कॉल लगे तो पलटकर फोन मिला लें। दरअसल, लोग अक्सर मन को बहलाने के लिए चैटिंग या सोशल मीडिया सर्फिंग शुरू कर देते हैं या टीवी देखने लगते हैं। इन सबमें मजा जरूर आ सकता है, लेकिन दिमाग को आराम नहीं मिलता बल्कि उसका और ज्यादा इस्तेमाल होने लगता है। आराम नहीं मिलने से दिमाग थक जाता है। इससे चिड़चिड़हाट होगी और कंसंट्रेशन नहीं होगा। गलतियां भी ज्यादा होंगी।
आजमाएं इसे
आज से आप भी अपने और अपने परिवार को हफ्ते में एक दिन डिजिटल डी-टॉक्सिफाई करना शुरू करें। आज आप इसके लिए 2 घंटे का वक्त तय कर सकते हैं। इस बीच टीवी, मोबाइल, लैपटॉप आदि गैजट के बजाय फैमिली के साथ फन टाइम बिताएं। आपने अपने परिवार के साथ कैसे वक्त बिताया, हमें लिखें sundaynbt@gmail.com पर। सब्जेक्ट में mobile लिखें। आप अपने परिवार के साथ फन टाइम के फोटो हमारे फेसबुक पेज Sundaynbt पर भी शेयर कर सकते हैं। साथ ही, हमें मेल पर या मोबाइल नंबर 89298-16941 पर बताएं कि डिजिटल डीटॉक्सिफिकेशन की हमारी मुहिम को आप सही मानते हैं या नहीं?
एक्सपर्ट्स की राय
'बच्चों के दोस्त बनने की कोशिश न करें, बल्कि दोस्ताना रवैये वाले पैरंट्स बनें। दोस्त तो उनके पास काफी होंगे, लेकिन उन्हें सही दिशा देने वाले पैरंट्स आप ही हैं। आजकल पैरंट्स बच्चों की पसंद के खिलाफ कदम नहीं उठाना चाहते। पैरंट्स बच्चों से रोकटोक कर सिरदर्द नहीं लेना चाहते, लेकिन आगे जाकर इसी वजह से उनका दिल टूटता है।'
-शिव खेड़ा, मोटिवेशनल स्पीकर और लेखक
'बच्चों के रोल मॉडल बनें। वे वही करते और सीखते हैं जो देखते हैं। अगर आप एक हाथ में मोबाइल और दूसरे में बच्चा पकड़े रहेंगे तो बच्चे को लगेगा कि मोबाइल भी इसके जितना ही अहम है। ऐसे में पैंरंट्स के लिए जरूरी है कि वे घर में मोबाइल का इस्तेमाल जरूरी होने पर ही करें।'
- डॉ. समीर पारिख, सीनियर सायकायट्रिस्ट
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... ताकि बचने की सूरत बनी रहे
सूरत के कोचिंग सेंटर में आग की घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। आग का खतरा घरों में भी रहता है। जब आग में फंस जाएं तब क्या करें और घर के अंदर और बाहर इन खतरों को कैसे कम किया जाए? पेश है पूरी जानकारी:
दुघर्टना के बाद भी अगर हम सचेत न हों तो इसे सही नहीं कहा जा सकता। सूरत जैसे हादसे पहले भी हुए हैं, लेकिन हम ऐसी बातों को जल्द ही भुला देते हैं। अगर कुछ बातों का ध्यान रखें तो ऐसे हादसे नहीं होंगे और होंगे भी तो जनहानि काफी कम होगी।
सूरत हादसे से 5 सबक
1. कोचिंग में एडमिशन के लिए बच्चों को उनके दोस्तों के साथ ही न भेजें क्योंकि बच्चे गहराई से चीजों का पड़ताल नहीं कर पाते। खुद जाकर पड़ताल करें।
2. यह भी जरूर देख लें कि कोचिंग कानूनी तरीके से चल रहा है या नहीं।
3. सेफ्टी नॉर्म्स में देखें:
- बिल्डिंग कितनी पुरानी है?
-आग बुझाने वाले यंत्र हैं या नहीं?
- फायर सेफ्टी क्लियरेंस है या नहीं
-फायर एग्जिट बंद तो नहीं या उसके रास्तों पर कुछ रुकावट तो नहीं?
- मेडिकल किट है या नहीं
-इमरजेंसी की स्थिति के लिए ऑक्सिजन की व्यवस्था है या नहीं?
-नजदीकी हॉस्पिटल से टाइअप है या नहीं
4. खुद पैरंट्स और बच्चों को यह बात पूरी तरह पता होनी चाहिए कि क्या करें और क्या न करें।
5. आग बुझाने और सुरक्षित बच निकलने की मॉक ड्रिल (प्रैक्टिस) हर 2-3 महीने में होती रहे।
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यह जानना जरूरी है...
1. क्या घर या दफ्तर में सब लोगों को पता है कि मेन स्विच कहां है और कैसे बंद करना है?
2. UPS या इनवर्टर का स्विच कहां है और कैसे बंद करना है?
3. क्या ABC क्लास का फायर एक्स्टिंगग्विशर लगा है?
4. क्या सबको पता है कि यह कहां ऱखा है और इसे कैसे इस्तेमाल किया जाता है?
5. क्या सबको फायर ब्रिगेड बुलाने का नंबर सबको पता है?
6. क्या स्मोक अलार्म लगा है? हर महीने इसकी टेस्टिंग होती है?
7. मेन गेट के अलावा दूसरे कौन-से रास्ते हैं जहां से आग लगने से सुरक्षित निकल सकते हैं?
...ताकि आग न लगे
गर्मी में आग लगने के मामले काफी बढ़ जाते हैं, खासकर शॉर्ट सर्किट के। आग न लगे, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? अगर कहीं आग लग जाए तो उससे कैसे निपटें?
गर्मियों में नमी कम होती है और तापमान बढ़ जाता है इसलिए कोई भी चीज आसानी से आग पकड़ लेती है। इस मौसम में इलेक्ट्रिक वायर भी जल्दी गर्म हो जाती है और जरा-सा ज्यादा लोड पड़ने पर स्पार्क होने से आग लग जाती है। वैसे, घर में ऐसी कई चीजें होती हैं, जो आग लगने की वजह बन सकती हैं।
एसी
एसी की ठीक से देखभाल न की जाए तो यह खतरनाक साबित हो सकता है। एसी आमतौर पर 15 एंपियर तक करंट झेल सकता है। अच्छी तरह रखरखाव वाला एसी 12 एंपियर का करंट लेता है, जबकि अगर एसी को बिना सालाना सर्विसिंग किए चलाया जाए तो वह 18 एंपियर तक करंट लेता है। इससे न सिर्फ वायर पर लोड बढ़ता है, बल्कि एसी जल भी सकता है। शॉर्ट सर्किट से घर में आग भी लग सकती है। जब न्यूट्रल, फेज और अर्थ, तीनों वायर या कोई दो वायर आपस में टच हो जाती हैं तो शॉर्ट सर्किट होता है।
क्या करें?
एसी के लिए हमेशा एमसीबी (MCB) स्विच लगवाएं। नॉर्मल या पावर स्विच में एसी का प्लग न लगाएं। सीजन शुरू होने से पहले एसी की सर्विस जरूर कराएं। हो सके तो सीजन के बीच में भी एक बार सर्विस कराएं। जब भी सर्विस कराएं, ट्रांसफॉर्मर आदि का प्लग खुलवा कर चेक कराएं कि कहीं कोई तार ढीली तो नहीं। एसी से आग की एक बड़ी वजह तारों के ढीले होने से स्पार्क होना है। एसी या इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट के पास पर्दा न रखें क्योंकि स्पार्क होने पर पर्दा आग पकड़ सकता है। एसी को रिमोट से बंद करने के बाद उसकी MCB को भी बंद करना चाहिए। एसी को लगातार 12 घंटे से ज्यादा न चलाएं। खिड़की-दरवाजे खोलकर एसी न चलाएं।
वायर और सर्किट
घर में वायरिंग कराते हुए हम पैसे बचाने के चक्कर में अक्सर सस्ती वायर डलवा देते हैं। इसके अलावा, एक बार वायरिंग कराकर हम निश्चिंत हो जाते हैं और उसे अपग्रेड नहीं कराते, जबकि वक्त के साथ घर में इलेक्ट्रिक गैजेट्स बढ़ाते जाते हैं। बड़ा टीवी, बड़ा फ्रिज, ज्यादा टन का एसी, माइक्रोवेव आदि। घर में लगी पुरानी वायर इतना लोड सहन नहीं कर पाती और शॉर्ट सर्किट हो जाता है। घरों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही होता है।
क्या करें?
घर में हमेशा ब्रैंडेड वायर इस्तेमाल करें। सस्ती वायर खरीदने से बचें। वायर हमेशा आईएसआई मार्क वाली खरीदें और जितने एमएम की वायर की इलेक्ट्रिशियन ने सलाह दी है, उतने की ही खरीदें। घर के लिए वायर 1, 1.5, 2.5, 4, 6 और 10 एमएम की होती हैं। मीटर और सर्किट के बीच 10 एमएम की वायर, बाकी घर में पावर प्लग के लिए 4 एमएम और बाकी के लिए 2.5 एमएम की वायर लगती है। घर में पीवीसी वायर लगानी चाहिए, जो 1 लेयर की होती है। यह आसानी से गरम नहीं होती। वायर में टॉप ब्रैंड हैं: फिनॉलेक्स, प्लाजा, आरआर आदि। अगर आप किराये के घर में रहते हैं और घर का लोड जानना चाहते हैं तो बिजली बिल से जान सकते हैं। उस पर घर का लोड दर्ज होता है। हर 5 साल में इलेक्ट्रिशन बुलाकर वायर चेक जरूर करानी चाहिए। साथ ही मेन सर्किट बोर्ड पर पूरा लोड डालने से अच्छा है कि दो बोर्ड बनाकर लोड को बांट दें। मीटर बॉक्स भी लकड़ी के बजाय मेटल का लगवाएं। इससे आग लगने का खतरा कम हो जाता है।
दीया और अगरबत्ती
सुबह-शाम घर में पूजा करते हुए दीया और अगरबत्ती जलती छोड़ दें और उन पर ध्यान न दें तो भी आग लग सकती है।
क्या करें?
दीया जलाकर उसके ऊपर शीशे की चिमनी रख सकते हैं, जैसी पहले लैंपों में होती थी। इससे आग लगने के आसार कम होंगे।
कम जगह, ज्यादा सामान
आजकल घरों के साइज छोटे हो रहे हैं और सामान काफी ज्यादा। फर्नीचर, पर्दे और घर के दूसरे साजो-सामान भी ऐसे चलन में हैं जो जल्दी आग पकड़ते हैं। मसलन पॉलिस्टर के पर्दे, सिंथेटिक कपड़े, फोम के सोफे और गद्दे आदि।
क्या करें
घर में जरूरत का सामान ही रखें और फालतू चीजों को निकालते रहें। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स अच्छी कंपनी और बढ़िया क्वॉलिटी के होने चाहिए।
लापरवाही से बचें, रखें ध्यान
- हर रात गैस सिलेंडर की नॉब को बंद करके ही सोना चाहिए। साथ ही गैस के पाइप को हर 6 महीने में बदलते रहना चाहिए।
- ओवरलोडिंग से बचें। अक्सर हम एक ही इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट में टू-पिन प्लग और थ्री-पिन वाला प्लग लगा देते हैं या मल्टिप्लग इस्तेमाल करते हैं। इससे लोड बढ़ जाता है और स्पार्किंग होने लगती है।
- रसोई में चूल्हे पर दूध का पतीला या तेल की कड़ाही चढ़ाकर निश्चिंत होना भी सही नहीं। ऐसा कर हम अक्सर दूसरे कामों में बिजी हो जाते हैं और तेल बेहद गर्म होकर आग पकड़ लेता है या फिर दूध उबल कर चूल्हे पर गिर जाता है। इससे चूल्हे की आग बुझ जाती है और गैस लीक होती रहती है, जो आग पकड़ लेती है।
- खराब रबड़ या खराब सीटी वाला प्रेशर कुकर यूज करना भी खतरनाक है। ऐसा होने पर कुकर ब्लास्ट कर सकता है।
- किचन में खाना बनाते समय ढीले-ढाले और सिंथेटिक कपड़े न पहनें। ये आग जल्दी पकड़ते हैं।
- इनवर्टर में पानी सही रखें। कम पानी होने, इनवर्टर की तार को अच्छी तरह कवर नहीं करने या फिर तार को ढीला छोड़ देने से स्पार्किंग हो सकती है।
- बच्चे के हाथ में माचिस न दें। यह आग लगने की वजह बन सकता है।
- फ्रिज के दरवाजे पर लगी रबड़ को अच्छी तरह साफ करें, वरना दरवाजा सही से बंद नहीं होगा। इससे कम्प्रेसर गर्म होकर आग लगने की वजह बन सकता है।
- कपड़े प्रेस करने के बाद गर्म आयरन को किसी कपड़े, पर्दे या इलेक्ट्रॉनिक प्लग के पास न रखें। गर्म आयरन की गर्मी से ये सभी चीजें आग पकड़ सकती हैं।
- बाथरूम के अंदर स्विच न लगवाएं, वरना नहाते समय या कपड़े धोते समय पानी उस पर गिर सकता है, जिससे स्पार्क हो सकता है। अंदर लगना ही है तो ऊंचाई ज्यादा हो, जहां तक पानी की छीटें न जा सकें।
- हर इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक आइटम को एक दिन में लगातार चलाने की तय सीमा होती है। फिर चाहे वह एसी हो, पंखा हो, टीवी या फिर मिक्सी ही क्यों न हो। हर प्रॉडक्ट की पैकिंग पर यह जानकारी होती है। जरूरत से ज्यादा चलाने पर इलेक्ट्रॉनिक आइटम गर्म हो जाते हैं और आग लगने का कारण बन सकते हैं।
- जब भी घर से बाहर जाएं तो सभी स्विच और इनवर्टर जरूर बंद करें।
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जरूरी हैं ये उपकरण
आमतौर पर घर में ड्राई केमिकल वाला फायर एक्स्टिंगग्विशर ही रखा जाता है। इस तरह के एक्स्टिंगग्विशर के सिलिंडर पर ABC लिखा होता है। मार्केट में इसके रेट वेट के हिसाब से हैं।
1 किलो : 740 रुपये
2 किलो : 900 रुपये
4 किलो : 1400 रुपये
6 किलो : 1740 रुपये
आप इन्हें ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं। इनमें टॉप ब्रैंड हैं: सीजफायर (Ceasefire), फायरफॉक्स (Firefox), अतासी (Atasi), अग्नि (Agni) आदि। इन कंपनियों के कार के भी फायर एक्स्टिंगग्विशर आते हैं।
सिलिंडरों के अलावा मॉड्यूलर एक्स्टिंगग्विशर भी बहुत काम की चीज है। अभी तक यह ऑफिस या इंडस्ट्रियल एरिया में ही लगाया जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल रेजिडेंशल एरिया में भी होने लगा है। इसे घर में कहीं भी लगा सकते हैं, लेकिन किचन में लगाना सबसे बेहतर है। यह सीलिंग में फिट होता है। इसके अंदर एक छोटा-सा बल्ब लगा होता है, जो 65 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान पहुंचते ही फट जाता है और उसमें से पाउडर निकलने लगता है, जो आग बुझा देता है। छोटा 1800 रुपये में और बड़ा 2400 रुपये में आता है। आपने घर में जो भी फायर एक्स्टिंगग्विशर रखा है, उसे साल में एक बार चेक जरूर करें। उसकी नोब ग्रीन एरिया में होनी चाहिए।
ये उपकरण भी बहुत काम के
स्मोक/फायर कर्टन: इसे एक तय एरिया में लगाया जाता है और लोकल फायर अलार्म पैनल या फिर स्मोक डिटेक्टर से कनेक्ट कर देते हैं। आग लगते ही या धुआं फैलते ही ये कर्टन ऐक्टिव हो जाते हैं। ये आग और धुएं को फैलने से रोकते हैं।
स्मोक डिटेक्टर
इसमें एक तरह का सेंसर लगा होता है, जिसे आग से फैलने वाले धुएं की मौजूदगी का पता लगाने के लिए लगाया जाता है। यह इस तरह डिजाइन किया जाता है कि जहां इसे लगाया गया है, उसके आसपास धुआं फैलते ही यह ऐक्टिव हो जाता है और फायर अलार्म सिस्टम को सिग्नल भेजता है।
फायर अलार्म सिस्टम
यह भी आग या धुएं की मौजूदगी का पता लगाने में मदद करता है। यह बिल्डिंग के फायर कंट्रोल रूम में लगा होता है। यह सिस्टम ऑटोमेटिक तरीके से काम करता है। आग लगते ही या धुआं फैलते ही यह अपने आप चालू हो जाता है। इससे पता चल जाता है कि बिल्डिंग में आग कहां लगी है।
कंवेंशनल सिस्टम
यह सिस्टम अब पुराना है। इसके जरिए सिर्फ इतना पता चल सकता है कि आग बिल्डिंग में कहां लगी है। उदाहरण के लिए बिल्डिंग के हर फ्लोर को चार-चार हिस्से में बांटा गया है तो इससे यह पता चल जाएगा कि आग किस हिस्से में लगी है।
अड्रेसेबल सिस्टम
यह आज के जमाने का सिस्टम है। इसका पैनल बिल्कुल सटीक तरीके से बताता है कि आग बिल्डिंग के किस हिस्से के कौन-से कमरे में किस जगह लगी है। इससे फायर फाइटर के लिए आग को जल्द-से-जल्द बुझाना आसान हो जाता है।
फायर होज रील
यह उपकरण हर कमर्शल और रेजिडेंशल सोसायटी में होना जरूरी है। आग बुझाने में यह बेहद कारगर है। किसी भी ट्रेंड व्यक्ति द्वारा इसे इंस्टॉल कर चालू करने में 20 से 30 सेकंड लगते हैं।
पॉर्टबल फायर होज रील
यह उपकरण हाल में मार्केट में लॉन्च हुआ है। जहां फायर होज रील को कमर्शल और रेजिडेंशल सोसायटी में बने वॉटर टैंक से कनेक्ट किया जाता है वहीं इसे इस तरह से डिजाइन किया गया है कि इसे किसी भी आम नल के साथ कनेक्ट किया जा सकता है।
फायर स्प्रिंकलर सिस्टम
सिर्फ ये स्प्रिंकलर ही होते हैं जो आग लगने पर सबसे पहले आग को बुझाने का काम करते हैं। कमरे का तापमान 67 डिग्री से ज्यादा होते ही इनमें लगे रबड़ पिघल जाते हैं और पानी की बौछार करने लगते हैं।
मॉड्युलर ऑटोमैटिक एक्स्टिंगग्विशर
यह स्प्रिंकलर बल्ब की शेप में फायर एक्स्टिंगग्विशर होते हैं जो कमरे की सीलिंग पर लगते हैं। इनमें भी आम फायर एक्स्टिंगग्विशर की तरह पाउडर भरा होता है। इन्हें सर्वर और यूपीएस रूम में लगाया जाता है।
गैस फ्लडिंग सिस्टम
इनका इस्तेमाल सिर्फ सर्वर रूम में ही किया जा सकता है। ये फायर एक्स्टिंगग्विशर की तरह सिलेंडर होते हैं जो सर्वर रूम में जरूरत के हिसाब से रखे जाते हैं। ये आग लगते ही ऐक्टिव हो जाते हैं और पाउडर रिलीज़ करते हैं।
फायर रेजिस्टेंट पेंट
यह एक तरह की कोटिंग होती है, जिसे फर्नीचर, दरवाजों और खिड़कियों पर किया जाता है। हालांकि यह पेंट किसी भी चीज को फायरप्रूफ तो नहीं बनाता, लेकिन उसमें आग लगने के टाइम को जरूर कम देता है। इससे आग को फैलने में समय लगता है और लोगों को आसानी से बचाया जा सकता है।
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आग लग जाए तो...
- घबराएं नहीं और जिस चीज में आग लगी है, उसके आसपास रखी सभी चीजों को हटाने की कोशिश करें, ताकि आग को फैलने का मौका न मिले।
- अगर शॉर्ट सर्किट से आग लगती है तो मेन सर्किट को बंद कर दें और फायर एक्स्टिंगग्विशर का प्रयोग करें। अगर यह नहीं है तो आग पर मिट्टी या रेत डालें। अंदर-बाहर लगे गमले इसमें मदद कर सकते हैं। इलेक्ट्रिकल फायर में पानी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे करंट लग सकता है।
- आग ज्यादा है तो घर के सभी सदस्यों को इकट्ठे कर सुरक्षित जगह पर जाने की कोशिश करें। अगर बिल्डिंग में रहते हैं तो लिफ्ट की जगह सीढ़ियों के जरिए नीचे उतरें।
- आग लग जाने पर धुआं फैलता है इसलिए मुंह को ढककर निकलें।
- खाना बनाते समय अगर कड़ाही में आग लग जाए तो उसे किसी बड़े बर्तन से ढक देना चाहिए। इससे आग बुझ जाएगी।
- अगर सिलिंडर में आग लग जाती है तो सबसे पहले उसकी नॉब को बंद करने की कोशिश करें। फिर गीला कपड़ा या बोरी डालकर उसे ठंडा करने की कोशिश करें। साथ ही सिलिंडर को खींचकर खुली जगह पर ले जाएं।
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आग काबू से बाहर हो जाए तो...
-पैनिक न हों। बचने के लिए क्या कर सकते हैं, इस पर ठंडे दिमाग से विचारें।
-अगर मुमकिन हो तो जलने वाली चीजों को बाहर फेंकने की कोशिश करें।
-अगर रास्ता बंद हो गया हो तो बाथरूम या कोने में चले जाएं और गीले कपड़े से मुंह को ढंक लें।
-आग लगे तो हो जाएं: डाउन, क्राउल और आउट
-जब आग में फंस गए हैं तो सबसे पहले झुक जाएं क्योंकि आग और धुआं हमेशा ऊपर की ओर बढ़ती है। झुकने के बाद जरूरी है कि आगे बढ़ें। झुकते हुए आगे बढ़ने के लिए रेंग कर आगे बढ़ना होगा और आखिरी में गेट आउट। बाहर निकलने के काम खिड़की या दरवाजा पहले दिमाग में खोजें और उससे बाहर निकलने की कोशिश करें।
-जींस अमूमन सभी पहनते हैं। इसकी एक खासियत दूसरी भी है, यह काफी मजबूत होती है। ऐसे में कुछ जींस को जोड़कर फौरन ही रस्सी बनाई जा सकती है। साथ ही स्कूटी, बाइक या साइकिल की की-रिंग की मदद से जींस को जोड़ सकते हैं।
-एक साथ कूदने से नीचे खड़े व्यक्तियों को कैच करना नामुमकिन हो जाता है। हां, अगर बारी-बारी से कूदेंगे तो कैच करना आसान होगा।
-अगर आग नजदीक है तो ऊपर के कपड़ों को उतारने में ही भलाई है। लोग क्या कहेंगे, यह सोचने की जरूरत नहीं।
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जल जाने पर फर्स्ट एड
- कपड़ों या शरीर में आग लग जाए तो खड़े न रहें और न ही भागें। मुंह को ढककर जमीन पर लेट जाएं और रेंगकर चलें। इससे आग बुझ जाएगी। किसी और शख्स में आग लगी हो तो कंबल या मोटा कपड़ा डालकर आग बुझाएं। आग बुझाने के बाद उस शख्स पर पानी डालें।
- खिड़कियां खोल दें ताकि धुएं से दम न घुटे। धुएं में दम घुटने से अगर कोई बेहोश हो गया है तो सबसे पहले उसे खुली हवा में ले जाएं ताकि ऑक्सिजन मिल सके। आमतौर पर घर में ऑक्सिजन सिलिंडर नहीं होता इसलिए मरीज को तुरंत हॉस्पिटल ले जाएं। मुंह से हवा देने की कोशिश न करें क्योंकि इससे कोई फायदा नहीं होगा।
- जख्म पर टूथपेस्ट या किसी तरह का तेल लगाने की गलती न करें। इससे जख्म की स्थिति गंभीर हो सकती है और डॉक्टर को जख्म साफ करने में भी दिक्कत होगी।
- जख्म मामूली है तो उस पर सिल्वर सल्फाडाइजीन (Silver Sulfadiazine) क्रीम लगाएं। यह मार्केट में एलोरेक्स (Alorex), बर्निल (Burnil), बर्नएड (Burn Aid), हील (Heal) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है। अगर जख्म ज्यादा हो तो हॉस्पिटल ले जाने तक उस पर नॉर्मल पानी डालते रहें ताकि जख्म गहरा न हो जाए।
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घर बनाते हुए रखें ध्यान
- घर, कोठी, रेजिडेंशल बिल्डिंग आदि बनाते वक्त बिल्डिंग बायलॉज को फॉलो करना चाहिए। लेकिन 15 मीटर या उससे ऊंची बिल्डिंग बनाते वक्त इसे फॉलो करना अनिवार्य है, वरना फायर डिपार्टमेंट से एनओसी नहीं मिलेगी।
- अमूमन सभी मल्टिस्टोरी बिल्डिंगों में लिफ्ट जरूर होती है। लेकिन इसके साथ ही सीढ़ियां भी जरूर होनी चाहिए ताकि आग लगने पर सीढ़ियों के जरिए आराम से बाहर निकला जा सके। सीढ़ियों की चौड़ाई कम-से-कम 1 मीटर होनी चाहिए।
- रेजिडेंशल बिल्डिंग्स में हर दो फ्लोर छोड़कर एक रेस्क्यू बालकनी होना जरूरी है। यह इसलिए होती है ताकि आग लगने पर सभी यहां जमा हो सकें और फायर ब्रिगेड वाले उन्हें आसानी से निकाल सकें। इन बालकनी को बनाने का फायदा तभी है, जब बिल्डिंग में रहने वाले हर तीसरे-चौथे महीने छोटी-सी मॉक ड्रिल करें। किसी भी तरह की आपदा से निपटने के लिए यह जरूरी है।
- पानी की एक टंकी बिल्डिंग के ऊपर और एक अंडरग्राउंड होनी चाहिए ताकि आग लगने पर वहां से पानी निकालकर आग बुझाई जा सके।
- 15 से 40 मीटर ऊंची बिल्डिंग के चारों ओर 6 मीटर और 40 मीटर से ऊंची बिल्डिंग के लिए 9 मीटर तक की सड़क होनी चाहिए ताकि फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को वहां तक पहुंचने और चारों तरफ घूमने में परेशानी न हो और वे आग को बुझा सकें।
- आपका घर फायर-प्रूफ है या नहीं, इसकी जांच प्राइवेट फायर अडवाइजर से करा सकते हैं। ऑनलाइन सर्च करने पर ये आपको मिल जाएंगे। दिल्ली में रहते हैं तो दिल्ली फायर सर्विस के डायरेक्टर के नाम लेटर लिख पास के फायर स्टेशन में दे सकते हैं। दिल्ली फायर सर्विस का कर्मचारी घर आएगा और चेक करेगा कि घर फायर-प्रूफ है या नहीं। यह सर्विस फ्री है।
दुघर्टना के बाद भी अगर हम सचेत न हों तो इसे सही नहीं कहा जा सकता। सूरत जैसे हादसे पहले भी हुए हैं, लेकिन हम ऐसी बातों को जल्द ही भुला देते हैं। अगर कुछ बातों का ध्यान रखें तो ऐसे हादसे नहीं होंगे और होंगे भी तो जनहानि काफी कम होगी।
सूरत हादसे से 5 सबक
1. कोचिंग में एडमिशन के लिए बच्चों को उनके दोस्तों के साथ ही न भेजें क्योंकि बच्चे गहराई से चीजों का पड़ताल नहीं कर पाते। खुद जाकर पड़ताल करें।
2. यह भी जरूर देख लें कि कोचिंग कानूनी तरीके से चल रहा है या नहीं।
3. सेफ्टी नॉर्म्स में देखें:
- बिल्डिंग कितनी पुरानी है?
-आग बुझाने वाले यंत्र हैं या नहीं?
- फायर सेफ्टी क्लियरेंस है या नहीं
-फायर एग्जिट बंद तो नहीं या उसके रास्तों पर कुछ रुकावट तो नहीं?
- मेडिकल किट है या नहीं
-इमरजेंसी की स्थिति के लिए ऑक्सिजन की व्यवस्था है या नहीं?
-नजदीकी हॉस्पिटल से टाइअप है या नहीं
4. खुद पैरंट्स और बच्चों को यह बात पूरी तरह पता होनी चाहिए कि क्या करें और क्या न करें।
5. आग बुझाने और सुरक्षित बच निकलने की मॉक ड्रिल (प्रैक्टिस) हर 2-3 महीने में होती रहे।
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यह जानना जरूरी है...
1. क्या घर या दफ्तर में सब लोगों को पता है कि मेन स्विच कहां है और कैसे बंद करना है?
2. UPS या इनवर्टर का स्विच कहां है और कैसे बंद करना है?
3. क्या ABC क्लास का फायर एक्स्टिंगग्विशर लगा है?
4. क्या सबको पता है कि यह कहां ऱखा है और इसे कैसे इस्तेमाल किया जाता है?
5. क्या सबको फायर ब्रिगेड बुलाने का नंबर सबको पता है?
6. क्या स्मोक अलार्म लगा है? हर महीने इसकी टेस्टिंग होती है?
7. मेन गेट के अलावा दूसरे कौन-से रास्ते हैं जहां से आग लगने से सुरक्षित निकल सकते हैं?
...ताकि आग न लगे
गर्मी में आग लगने के मामले काफी बढ़ जाते हैं, खासकर शॉर्ट सर्किट के। आग न लगे, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? अगर कहीं आग लग जाए तो उससे कैसे निपटें?
गर्मियों में नमी कम होती है और तापमान बढ़ जाता है इसलिए कोई भी चीज आसानी से आग पकड़ लेती है। इस मौसम में इलेक्ट्रिक वायर भी जल्दी गर्म हो जाती है और जरा-सा ज्यादा लोड पड़ने पर स्पार्क होने से आग लग जाती है। वैसे, घर में ऐसी कई चीजें होती हैं, जो आग लगने की वजह बन सकती हैं।
एसी
एसी की ठीक से देखभाल न की जाए तो यह खतरनाक साबित हो सकता है। एसी आमतौर पर 15 एंपियर तक करंट झेल सकता है। अच्छी तरह रखरखाव वाला एसी 12 एंपियर का करंट लेता है, जबकि अगर एसी को बिना सालाना सर्विसिंग किए चलाया जाए तो वह 18 एंपियर तक करंट लेता है। इससे न सिर्फ वायर पर लोड बढ़ता है, बल्कि एसी जल भी सकता है। शॉर्ट सर्किट से घर में आग भी लग सकती है। जब न्यूट्रल, फेज और अर्थ, तीनों वायर या कोई दो वायर आपस में टच हो जाती हैं तो शॉर्ट सर्किट होता है।
क्या करें?
एसी के लिए हमेशा एमसीबी (MCB) स्विच लगवाएं। नॉर्मल या पावर स्विच में एसी का प्लग न लगाएं। सीजन शुरू होने से पहले एसी की सर्विस जरूर कराएं। हो सके तो सीजन के बीच में भी एक बार सर्विस कराएं। जब भी सर्विस कराएं, ट्रांसफॉर्मर आदि का प्लग खुलवा कर चेक कराएं कि कहीं कोई तार ढीली तो नहीं। एसी से आग की एक बड़ी वजह तारों के ढीले होने से स्पार्क होना है। एसी या इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट के पास पर्दा न रखें क्योंकि स्पार्क होने पर पर्दा आग पकड़ सकता है। एसी को रिमोट से बंद करने के बाद उसकी MCB को भी बंद करना चाहिए। एसी को लगातार 12 घंटे से ज्यादा न चलाएं। खिड़की-दरवाजे खोलकर एसी न चलाएं।
वायर और सर्किट
घर में वायरिंग कराते हुए हम पैसे बचाने के चक्कर में अक्सर सस्ती वायर डलवा देते हैं। इसके अलावा, एक बार वायरिंग कराकर हम निश्चिंत हो जाते हैं और उसे अपग्रेड नहीं कराते, जबकि वक्त के साथ घर में इलेक्ट्रिक गैजेट्स बढ़ाते जाते हैं। बड़ा टीवी, बड़ा फ्रिज, ज्यादा टन का एसी, माइक्रोवेव आदि। घर में लगी पुरानी वायर इतना लोड सहन नहीं कर पाती और शॉर्ट सर्किट हो जाता है। घरों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही होता है।
क्या करें?
घर में हमेशा ब्रैंडेड वायर इस्तेमाल करें। सस्ती वायर खरीदने से बचें। वायर हमेशा आईएसआई मार्क वाली खरीदें और जितने एमएम की वायर की इलेक्ट्रिशियन ने सलाह दी है, उतने की ही खरीदें। घर के लिए वायर 1, 1.5, 2.5, 4, 6 और 10 एमएम की होती हैं। मीटर और सर्किट के बीच 10 एमएम की वायर, बाकी घर में पावर प्लग के लिए 4 एमएम और बाकी के लिए 2.5 एमएम की वायर लगती है। घर में पीवीसी वायर लगानी चाहिए, जो 1 लेयर की होती है। यह आसानी से गरम नहीं होती। वायर में टॉप ब्रैंड हैं: फिनॉलेक्स, प्लाजा, आरआर आदि। अगर आप किराये के घर में रहते हैं और घर का लोड जानना चाहते हैं तो बिजली बिल से जान सकते हैं। उस पर घर का लोड दर्ज होता है। हर 5 साल में इलेक्ट्रिशन बुलाकर वायर चेक जरूर करानी चाहिए। साथ ही मेन सर्किट बोर्ड पर पूरा लोड डालने से अच्छा है कि दो बोर्ड बनाकर लोड को बांट दें। मीटर बॉक्स भी लकड़ी के बजाय मेटल का लगवाएं। इससे आग लगने का खतरा कम हो जाता है।
दीया और अगरबत्ती
सुबह-शाम घर में पूजा करते हुए दीया और अगरबत्ती जलती छोड़ दें और उन पर ध्यान न दें तो भी आग लग सकती है।
क्या करें?
दीया जलाकर उसके ऊपर शीशे की चिमनी रख सकते हैं, जैसी पहले लैंपों में होती थी। इससे आग लगने के आसार कम होंगे।
कम जगह, ज्यादा सामान
आजकल घरों के साइज छोटे हो रहे हैं और सामान काफी ज्यादा। फर्नीचर, पर्दे और घर के दूसरे साजो-सामान भी ऐसे चलन में हैं जो जल्दी आग पकड़ते हैं। मसलन पॉलिस्टर के पर्दे, सिंथेटिक कपड़े, फोम के सोफे और गद्दे आदि।
क्या करें
घर में जरूरत का सामान ही रखें और फालतू चीजों को निकालते रहें। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स अच्छी कंपनी और बढ़िया क्वॉलिटी के होने चाहिए।
लापरवाही से बचें, रखें ध्यान
- हर रात गैस सिलेंडर की नॉब को बंद करके ही सोना चाहिए। साथ ही गैस के पाइप को हर 6 महीने में बदलते रहना चाहिए।
- ओवरलोडिंग से बचें। अक्सर हम एक ही इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट में टू-पिन प्लग और थ्री-पिन वाला प्लग लगा देते हैं या मल्टिप्लग इस्तेमाल करते हैं। इससे लोड बढ़ जाता है और स्पार्किंग होने लगती है।
- रसोई में चूल्हे पर दूध का पतीला या तेल की कड़ाही चढ़ाकर निश्चिंत होना भी सही नहीं। ऐसा कर हम अक्सर दूसरे कामों में बिजी हो जाते हैं और तेल बेहद गर्म होकर आग पकड़ लेता है या फिर दूध उबल कर चूल्हे पर गिर जाता है। इससे चूल्हे की आग बुझ जाती है और गैस लीक होती रहती है, जो आग पकड़ लेती है।
- खराब रबड़ या खराब सीटी वाला प्रेशर कुकर यूज करना भी खतरनाक है। ऐसा होने पर कुकर ब्लास्ट कर सकता है।
- किचन में खाना बनाते समय ढीले-ढाले और सिंथेटिक कपड़े न पहनें। ये आग जल्दी पकड़ते हैं।
- इनवर्टर में पानी सही रखें। कम पानी होने, इनवर्टर की तार को अच्छी तरह कवर नहीं करने या फिर तार को ढीला छोड़ देने से स्पार्किंग हो सकती है।
- बच्चे के हाथ में माचिस न दें। यह आग लगने की वजह बन सकता है।
- फ्रिज के दरवाजे पर लगी रबड़ को अच्छी तरह साफ करें, वरना दरवाजा सही से बंद नहीं होगा। इससे कम्प्रेसर गर्म होकर आग लगने की वजह बन सकता है।
- कपड़े प्रेस करने के बाद गर्म आयरन को किसी कपड़े, पर्दे या इलेक्ट्रॉनिक प्लग के पास न रखें। गर्म आयरन की गर्मी से ये सभी चीजें आग पकड़ सकती हैं।
- बाथरूम के अंदर स्विच न लगवाएं, वरना नहाते समय या कपड़े धोते समय पानी उस पर गिर सकता है, जिससे स्पार्क हो सकता है। अंदर लगना ही है तो ऊंचाई ज्यादा हो, जहां तक पानी की छीटें न जा सकें।
- हर इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक आइटम को एक दिन में लगातार चलाने की तय सीमा होती है। फिर चाहे वह एसी हो, पंखा हो, टीवी या फिर मिक्सी ही क्यों न हो। हर प्रॉडक्ट की पैकिंग पर यह जानकारी होती है। जरूरत से ज्यादा चलाने पर इलेक्ट्रॉनिक आइटम गर्म हो जाते हैं और आग लगने का कारण बन सकते हैं।
- जब भी घर से बाहर जाएं तो सभी स्विच और इनवर्टर जरूर बंद करें।
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जरूरी हैं ये उपकरण
आमतौर पर घर में ड्राई केमिकल वाला फायर एक्स्टिंगग्विशर ही रखा जाता है। इस तरह के एक्स्टिंगग्विशर के सिलिंडर पर ABC लिखा होता है। मार्केट में इसके रेट वेट के हिसाब से हैं।
1 किलो : 740 रुपये
2 किलो : 900 रुपये
4 किलो : 1400 रुपये
6 किलो : 1740 रुपये
आप इन्हें ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं। इनमें टॉप ब्रैंड हैं: सीजफायर (Ceasefire), फायरफॉक्स (Firefox), अतासी (Atasi), अग्नि (Agni) आदि। इन कंपनियों के कार के भी फायर एक्स्टिंगग्विशर आते हैं।
सिलिंडरों के अलावा मॉड्यूलर एक्स्टिंगग्विशर भी बहुत काम की चीज है। अभी तक यह ऑफिस या इंडस्ट्रियल एरिया में ही लगाया जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल रेजिडेंशल एरिया में भी होने लगा है। इसे घर में कहीं भी लगा सकते हैं, लेकिन किचन में लगाना सबसे बेहतर है। यह सीलिंग में फिट होता है। इसके अंदर एक छोटा-सा बल्ब लगा होता है, जो 65 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान पहुंचते ही फट जाता है और उसमें से पाउडर निकलने लगता है, जो आग बुझा देता है। छोटा 1800 रुपये में और बड़ा 2400 रुपये में आता है। आपने घर में जो भी फायर एक्स्टिंगग्विशर रखा है, उसे साल में एक बार चेक जरूर करें। उसकी नोब ग्रीन एरिया में होनी चाहिए।
ये उपकरण भी बहुत काम के
स्मोक/फायर कर्टन: इसे एक तय एरिया में लगाया जाता है और लोकल फायर अलार्म पैनल या फिर स्मोक डिटेक्टर से कनेक्ट कर देते हैं। आग लगते ही या धुआं फैलते ही ये कर्टन ऐक्टिव हो जाते हैं। ये आग और धुएं को फैलने से रोकते हैं।
स्मोक डिटेक्टर
इसमें एक तरह का सेंसर लगा होता है, जिसे आग से फैलने वाले धुएं की मौजूदगी का पता लगाने के लिए लगाया जाता है। यह इस तरह डिजाइन किया जाता है कि जहां इसे लगाया गया है, उसके आसपास धुआं फैलते ही यह ऐक्टिव हो जाता है और फायर अलार्म सिस्टम को सिग्नल भेजता है।
फायर अलार्म सिस्टम
यह भी आग या धुएं की मौजूदगी का पता लगाने में मदद करता है। यह बिल्डिंग के फायर कंट्रोल रूम में लगा होता है। यह सिस्टम ऑटोमेटिक तरीके से काम करता है। आग लगते ही या धुआं फैलते ही यह अपने आप चालू हो जाता है। इससे पता चल जाता है कि बिल्डिंग में आग कहां लगी है।
कंवेंशनल सिस्टम
यह सिस्टम अब पुराना है। इसके जरिए सिर्फ इतना पता चल सकता है कि आग बिल्डिंग में कहां लगी है। उदाहरण के लिए बिल्डिंग के हर फ्लोर को चार-चार हिस्से में बांटा गया है तो इससे यह पता चल जाएगा कि आग किस हिस्से में लगी है।
अड्रेसेबल सिस्टम
यह आज के जमाने का सिस्टम है। इसका पैनल बिल्कुल सटीक तरीके से बताता है कि आग बिल्डिंग के किस हिस्से के कौन-से कमरे में किस जगह लगी है। इससे फायर फाइटर के लिए आग को जल्द-से-जल्द बुझाना आसान हो जाता है।
फायर होज रील
यह उपकरण हर कमर्शल और रेजिडेंशल सोसायटी में होना जरूरी है। आग बुझाने में यह बेहद कारगर है। किसी भी ट्रेंड व्यक्ति द्वारा इसे इंस्टॉल कर चालू करने में 20 से 30 सेकंड लगते हैं।
पॉर्टबल फायर होज रील
यह उपकरण हाल में मार्केट में लॉन्च हुआ है। जहां फायर होज रील को कमर्शल और रेजिडेंशल सोसायटी में बने वॉटर टैंक से कनेक्ट किया जाता है वहीं इसे इस तरह से डिजाइन किया गया है कि इसे किसी भी आम नल के साथ कनेक्ट किया जा सकता है।
फायर स्प्रिंकलर सिस्टम
सिर्फ ये स्प्रिंकलर ही होते हैं जो आग लगने पर सबसे पहले आग को बुझाने का काम करते हैं। कमरे का तापमान 67 डिग्री से ज्यादा होते ही इनमें लगे रबड़ पिघल जाते हैं और पानी की बौछार करने लगते हैं।
मॉड्युलर ऑटोमैटिक एक्स्टिंगग्विशर
यह स्प्रिंकलर बल्ब की शेप में फायर एक्स्टिंगग्विशर होते हैं जो कमरे की सीलिंग पर लगते हैं। इनमें भी आम फायर एक्स्टिंगग्विशर की तरह पाउडर भरा होता है। इन्हें सर्वर और यूपीएस रूम में लगाया जाता है।
गैस फ्लडिंग सिस्टम
इनका इस्तेमाल सिर्फ सर्वर रूम में ही किया जा सकता है। ये फायर एक्स्टिंगग्विशर की तरह सिलेंडर होते हैं जो सर्वर रूम में जरूरत के हिसाब से रखे जाते हैं। ये आग लगते ही ऐक्टिव हो जाते हैं और पाउडर रिलीज़ करते हैं।
फायर रेजिस्टेंट पेंट
यह एक तरह की कोटिंग होती है, जिसे फर्नीचर, दरवाजों और खिड़कियों पर किया जाता है। हालांकि यह पेंट किसी भी चीज को फायरप्रूफ तो नहीं बनाता, लेकिन उसमें आग लगने के टाइम को जरूर कम देता है। इससे आग को फैलने में समय लगता है और लोगों को आसानी से बचाया जा सकता है।
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आग लग जाए तो...
- घबराएं नहीं और जिस चीज में आग लगी है, उसके आसपास रखी सभी चीजों को हटाने की कोशिश करें, ताकि आग को फैलने का मौका न मिले।
- अगर शॉर्ट सर्किट से आग लगती है तो मेन सर्किट को बंद कर दें और फायर एक्स्टिंगग्विशर का प्रयोग करें। अगर यह नहीं है तो आग पर मिट्टी या रेत डालें। अंदर-बाहर लगे गमले इसमें मदद कर सकते हैं। इलेक्ट्रिकल फायर में पानी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे करंट लग सकता है।
- आग ज्यादा है तो घर के सभी सदस्यों को इकट्ठे कर सुरक्षित जगह पर जाने की कोशिश करें। अगर बिल्डिंग में रहते हैं तो लिफ्ट की जगह सीढ़ियों के जरिए नीचे उतरें।
- आग लग जाने पर धुआं फैलता है इसलिए मुंह को ढककर निकलें।
- खाना बनाते समय अगर कड़ाही में आग लग जाए तो उसे किसी बड़े बर्तन से ढक देना चाहिए। इससे आग बुझ जाएगी।
- अगर सिलिंडर में आग लग जाती है तो सबसे पहले उसकी नॉब को बंद करने की कोशिश करें। फिर गीला कपड़ा या बोरी डालकर उसे ठंडा करने की कोशिश करें। साथ ही सिलिंडर को खींचकर खुली जगह पर ले जाएं।
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आग काबू से बाहर हो जाए तो...
-पैनिक न हों। बचने के लिए क्या कर सकते हैं, इस पर ठंडे दिमाग से विचारें।
-अगर मुमकिन हो तो जलने वाली चीजों को बाहर फेंकने की कोशिश करें।
-अगर रास्ता बंद हो गया हो तो बाथरूम या कोने में चले जाएं और गीले कपड़े से मुंह को ढंक लें।
-आग लगे तो हो जाएं: डाउन, क्राउल और आउट
-जब आग में फंस गए हैं तो सबसे पहले झुक जाएं क्योंकि आग और धुआं हमेशा ऊपर की ओर बढ़ती है। झुकने के बाद जरूरी है कि आगे बढ़ें। झुकते हुए आगे बढ़ने के लिए रेंग कर आगे बढ़ना होगा और आखिरी में गेट आउट। बाहर निकलने के काम खिड़की या दरवाजा पहले दिमाग में खोजें और उससे बाहर निकलने की कोशिश करें।
-जींस अमूमन सभी पहनते हैं। इसकी एक खासियत दूसरी भी है, यह काफी मजबूत होती है। ऐसे में कुछ जींस को जोड़कर फौरन ही रस्सी बनाई जा सकती है। साथ ही स्कूटी, बाइक या साइकिल की की-रिंग की मदद से जींस को जोड़ सकते हैं।
-एक साथ कूदने से नीचे खड़े व्यक्तियों को कैच करना नामुमकिन हो जाता है। हां, अगर बारी-बारी से कूदेंगे तो कैच करना आसान होगा।
-अगर आग नजदीक है तो ऊपर के कपड़ों को उतारने में ही भलाई है। लोग क्या कहेंगे, यह सोचने की जरूरत नहीं।
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जल जाने पर फर्स्ट एड
- कपड़ों या शरीर में आग लग जाए तो खड़े न रहें और न ही भागें। मुंह को ढककर जमीन पर लेट जाएं और रेंगकर चलें। इससे आग बुझ जाएगी। किसी और शख्स में आग लगी हो तो कंबल या मोटा कपड़ा डालकर आग बुझाएं। आग बुझाने के बाद उस शख्स पर पानी डालें।
- खिड़कियां खोल दें ताकि धुएं से दम न घुटे। धुएं में दम घुटने से अगर कोई बेहोश हो गया है तो सबसे पहले उसे खुली हवा में ले जाएं ताकि ऑक्सिजन मिल सके। आमतौर पर घर में ऑक्सिजन सिलिंडर नहीं होता इसलिए मरीज को तुरंत हॉस्पिटल ले जाएं। मुंह से हवा देने की कोशिश न करें क्योंकि इससे कोई फायदा नहीं होगा।
- जख्म पर टूथपेस्ट या किसी तरह का तेल लगाने की गलती न करें। इससे जख्म की स्थिति गंभीर हो सकती है और डॉक्टर को जख्म साफ करने में भी दिक्कत होगी।
- जख्म मामूली है तो उस पर सिल्वर सल्फाडाइजीन (Silver Sulfadiazine) क्रीम लगाएं। यह मार्केट में एलोरेक्स (Alorex), बर्निल (Burnil), बर्नएड (Burn Aid), हील (Heal) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है। अगर जख्म ज्यादा हो तो हॉस्पिटल ले जाने तक उस पर नॉर्मल पानी डालते रहें ताकि जख्म गहरा न हो जाए।
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घर बनाते हुए रखें ध्यान
- घर, कोठी, रेजिडेंशल बिल्डिंग आदि बनाते वक्त बिल्डिंग बायलॉज को फॉलो करना चाहिए। लेकिन 15 मीटर या उससे ऊंची बिल्डिंग बनाते वक्त इसे फॉलो करना अनिवार्य है, वरना फायर डिपार्टमेंट से एनओसी नहीं मिलेगी।
- अमूमन सभी मल्टिस्टोरी बिल्डिंगों में लिफ्ट जरूर होती है। लेकिन इसके साथ ही सीढ़ियां भी जरूर होनी चाहिए ताकि आग लगने पर सीढ़ियों के जरिए आराम से बाहर निकला जा सके। सीढ़ियों की चौड़ाई कम-से-कम 1 मीटर होनी चाहिए।
- रेजिडेंशल बिल्डिंग्स में हर दो फ्लोर छोड़कर एक रेस्क्यू बालकनी होना जरूरी है। यह इसलिए होती है ताकि आग लगने पर सभी यहां जमा हो सकें और फायर ब्रिगेड वाले उन्हें आसानी से निकाल सकें। इन बालकनी को बनाने का फायदा तभी है, जब बिल्डिंग में रहने वाले हर तीसरे-चौथे महीने छोटी-सी मॉक ड्रिल करें। किसी भी तरह की आपदा से निपटने के लिए यह जरूरी है।
- पानी की एक टंकी बिल्डिंग के ऊपर और एक अंडरग्राउंड होनी चाहिए ताकि आग लगने पर वहां से पानी निकालकर आग बुझाई जा सके।
- 15 से 40 मीटर ऊंची बिल्डिंग के चारों ओर 6 मीटर और 40 मीटर से ऊंची बिल्डिंग के लिए 9 मीटर तक की सड़क होनी चाहिए ताकि फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को वहां तक पहुंचने और चारों तरफ घूमने में परेशानी न हो और वे आग को बुझा सकें।
- आपका घर फायर-प्रूफ है या नहीं, इसकी जांच प्राइवेट फायर अडवाइजर से करा सकते हैं। ऑनलाइन सर्च करने पर ये आपको मिल जाएंगे। दिल्ली में रहते हैं तो दिल्ली फायर सर्विस के डायरेक्टर के नाम लेटर लिख पास के फायर स्टेशन में दे सकते हैं। दिल्ली फायर सर्विस का कर्मचारी घर आएगा और चेक करेगा कि घर फायर-प्रूफ है या नहीं। यह सर्विस फ्री है।
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आपको हमेशा स्वस्थ रखेंगे सेहत के ये 5 दोस्त
एक्सरसाइज किसी भी तरह से हो, अगर शरीर मेहनत करता है और कैलरी खर्च करता है तो फायदा शरीर को होता ही है। एक्सरसाइज के 5 शानदार तरीकों के बारे में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं अखिलेश पांडे और दामोदर व्यास
1. बस चलते जाना है...
स्ट्रोक का खतरा कम
जनरल फिजिशन डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि जो लोग रोजाना पैदल चलते हैं, उनमें ब्रेन स्ट्रोक का खतरा बेहद कम हो जाता है क्योंकि पैदल चलने की वजह से कैलरीज बर्न होती हैं, शरीर से बैड कॉलेस्ट्रॉल कम होते हैं। ऐसा देखा गया है कि स्ट्रोक उन लोगों को ज्यादा होता है जो पैदल नहीं चलते या कोई एक्सरसाइज नहीं करते। इससे कॉलेस्ट्रॉल बढ़ने लगता है और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है।
भागेगा मोटापा
मोटापा कई बीमारियों की वजह है और नियमित पैदल चलने से मोटापा आपसे दूर रहता है। बदलती जीवनशैली और फास्ट फूड पर बढ़ती निर्भरता के कारण तेजी से यह समस्या लोगों को अपनी चपेट में ले रही है। डॉक्टरों के अनुसार, मोटापा डायबीटीज, दिल के रोग और जोड़ों के दर्द की सबसे बड़ी वजह है। इनके अलावा, बढ़ती उम्र में अल्झाइमर तक की दिक्कत हो सकती है।
होगा ‘फील गुड’
जनरल फीजिशन डॉ. के. के. अग्रवाल बताते हैं कि जब रोजाना पैदल चलने की आदत बन जाती है तो बॉडी के भीतर एंडोर्फिन नाम के हॉर्मोन का रिसाव होता है, जिसे फील गुड हॉर्मोन कहा जाता है। इसके रिलीज होने से व्यक्ति के मूड में सुधार होता है और वह अच्छा महसूस करता है।
उम्र में होता है इजाफा
एक्सपर्ट्स मानते हैं कि व्यक्ति जितना ज्यादा पैदल चलता है, उसकी उम्र में उतना ही इजाफा होता है। पैदल चलने से बड़ी उम्र में भी इंसान शारीरिक रूप से मजबूत रहता है। इससे उम्र के साथ बढ़ने वाली समस्याओं का असर शरीर पर बेहद कम दिखता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, अगर दिन में 80 मिनट स्लो वॉक की जाए तो घुटने, कूल्हे के दर्द से राहत तो मिलेगी ही, टखनों या पैरों में आई जकड़न भी दूर होगी। कोशिश करें कि हफ्ते में 80 मिनट तेज चाल से पैदल चलें। इससे कई तरह की बीमारियां दूर होंगी। द लैंसेट में प्रकाशित एक स्टडी के अनुसार, रोजाना 2 हजार कदम चलने वाले लोगों को हार्ट अटैक का खतरा ऐसा नहीं करने वालों से 10 फीसदी कम होता है।
ये जरूर अपनाएं
- बैठकर बातें करने के बजाय टहलते हुए बातें करें।
- मोबाइल पर भी बात करते हुए
टहलते रहें।
- पास की दुकानों तक टहलते
हुए जाएं।
- इंटरकॉम या फोन पर बात करने के बजाय ऑफिस में सहयोगियों से बात करने के लिए उसके पास चलकर जाएं।
- काम के दौरान एक ब्रेक लेकर थोड़ा बाहर घूमकर आएं।
- सड़क क्रॉस करने के लिए सब-वे या ब्रिज का इस्तेमाल करें।
- सुबह के वक्त टहलें। कैलरी बर्न होगी। फिर धूप से शरीर को विटामिन डी भी मिलता है।
- वॉक के दौरान ईअर फोन न लगाएं और न ही मोबाइल से बात करें।
2. साइक्लिंग से सेहत फिट
जब लोग साइकल से मीलों का सफर तय करते थे तब ज्यादा स्वस्थ रहते थे, वजह, एक तो उनकी भरपूर एक्सरसाइज होती थी, दूसरा, उस वक्त पलूशन भी इतना नहीं था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सुविधाएं बढ़ीं, यातायात के साधन बढ़े, घर-घर गाड़ियां बढ़ीं और इसी के साथ बढ़ीं मुश्किलें, बीमारियां और प्रदूषण। यूरोप के आज भी कई देश ऐसे हैं जहां अरबपति इंसान भी साइकल से ऑफिस जाना पसंद करते हैं, लेकिन अपने देश में तमाम लोग नजदीकी बाजार से सब्जी लाने के लिए भी कार या बाइक का उपयोग करते हैं। हालांकि अब बढ़ते प्रदूषण और सेहत को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर से लोग साइकल को अपना रहे हैं। साइकल के कई फायदे हैं। इससे सेहतमंद तो रहा ही जा सकता है, पर्यावरण को स्वच्छ रखने में योगदान दिया जा सकता है और महंगे फ्यूल का पैसा भी बचता है। डॉक्टरों के अनुसार, साइकल चलाने से शरीर की तमाम मांसपेशियों को मजबूती मिलती है। साथ ही, इससे घुटनों और जोड़ों की समस्या से भी निजात मिल जाती है। दिल और दिमाग से जुड़ी कई समस्याओं को कम करने में भी साइक्लिंग कारगर है।
दिल दुरुस्त रखती है साइकल
अगर कोई हर रोज 20-30 मिनट के लिए भी साइकल चलाता है तो इससे दिल की कई बीमारियों से बचने में मदद मिलती है। इससे दिल की नलियों को मजबूती भी मिलती है। जेजे अस्पताल के हृदय रोग विभाग के प्रमुख डॉ. नरेंद्र बंसल बताते हैं कि साइक्लिंग बेहद आसान एक्सरसाइज है। नियमित रूप से साइकल चलाने से शरीर में रक्त संचार सही रहता है। इससे हार्ट अटैक की आशंका काफी कम होती है और लंग्स भी मजबूत होते हैं।
घटता है डायबीटीज का खतरा
जीवनशैली में हो रहे बदलाव के कारण मोटापा और डायबीटीज की समस्या तेजी से बढ़ रही है। डॉक्टरों के अनुसार, शरीर का भार बढ़ने से इंसान का ओवरऑल मूवमेंट कम होता है, जिससे डायबीटीज का खतरा बढ़ता है। अगर इंसान नियमित रूप से साइकल चलाता है तो इससे न सिर्फ उसका वजन नियंत्रित रहेगा बल्कि डायबीटीज होने का खतरा भी कम हो जाएगा। साइकल एक ओवरऑल एक्सरसाइज का बढ़िया विकल्प है।
अकड़न और जकड़न से राहत
साइकल चलाते समय पैर से लेकर हाथ और जोड़ों से लेकर मांसपेशियों तक, हर अंग का भरपूर उपयोग होता है। इससे पूरे शरीर की एक साथ एक्सरसाइज हो जाती है, बॉडी का स्टैमिना बढ़ता है और लोगों को जोड़ों की अकड़न और जकड़न से भी राहत मिलती है। जिम जाने की तुलना में साइकल चलाने के फायदे कहीं ज्यादा हैं। जिम में एक्सरसाइज बंद कमरे में होती है जबकि साइकल चलाते वक्त इंसान खुले वातावरण में रहता है। सुबह के वक्त साइकल चलाने से अच्छी मात्रा में शरीर को विटामिन डी भी मिलता है। साइक्लिंग से डिप्रेशन, टेंशन या दूसरे तरह की मानसिक समस्याओं को भी कम किया जा सकता है।
फायदे एक नजर में
- साइकलिंग से शरीर की इम्यूनिटी बेहतर होती है।
- कैलरी को बर्न कर मोटापा घटाने में भी कारगर है यह।
- 30 मिनट साइकल चलाने से शरीर की ओवरऑल एक्सरसाइज हो जाती है।
-रोजाना साइकल चलने से दिल से जुड़ी बीमारियों की आशंका कम हो जाती है।
- जोड़ो का दर्द और आर्थराइटिस से राहत मिलती है।
-ब्रेन को भी मिलती है मजबूती।
हेल्मेट खरीदें, सुरक्षा पाएं
अगर आप बिना हेल्मेट साइकल पर जा रहे हैं तो सड़क पर आपको कोई सीरियसली नहीं लेगा, लेकिन जरा हेल्मेट लगाकर देखिए, कुछ पल के लिए लोगों की निगाह आप पर टिक जाएगी। बाइक वाले भी आपको आगे बढ़ने का रास्ता देंगे।
3. जन-जन का जिम
जिम का मतलब सिर्फ तरह-तरह की मशीनों वाले एसी जिम से ही नहीं है। अब अमूमन ज्यादातर सोसायटीज, कम्यूनिटी सेंटर्स, पार्क में ओपन जिम मिल जाते हैं। जाहिर है, ओपन जिम की मदद से आप खुद को फिट रख सकते हैं।
इस जिम का फायदा सभी उम्र के लोग लेते हैं। ओपन में किसी पार्क या प्लॉट पर चलने वाले ऐसे जिम की खासियत होती है कि ये बंद कमरों में नहीं होते। सांस लेने के लिए फ्रेश हवा मिलती है। सच तो यह है कि पहले जहां पार्क में लोग सिर्फ टहलने के लिए जाते थे, अब वॉकिंग के साथ एक्सरसाइज भी करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि अमूमन ऐसे जिम फ्री में उपलब्ध होते हैं तो आप जरूर इनका फायदा उठाएं। अगर आप हजारों रुपये खर्च कर एसी वाले जिम में पसीना बहाते हैं तो आपको ओपन जिम के बारे में सोचना चाहिए। जिम में इस्तेमाल होने वाली मशीनों की तर्ज पर ओपन जिम में भी कई मशीनें लगी रहती हैं जहां आप पांव से लेकर कंधे तक की भरपूर एक्सरसाइज कर सकते हैं। यही नहीं, सिक्स पैक ऐब्स भी बना सकते हैं।
पैरों के दर्द का मर्ज
पैर और घुटनों का दर्द लोगों में आम होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह एक्सरसाइज न करना या शरीर को सही मात्रा में कैल्शियम का नहीं मिलना है। ओपन जिम में लगी एरियल स्ट्रोलर मशीन से पैर और घुटनों की बेहतर एक्सरसाइज की जा सकती है। रोजाना 5-10 मिनट इस मशीन का इस्तेमाल कर आप दर्द को दूर रख सकते हैं और पैरों को मजबूत बना सकते हैं।
ट्वल से मजबूत कंधे
गोलाकार चक्र जैसी दिखने वाली मशीन का नाम ट्वल है। यह मशीन 360 डिग्री पर घूमती है। इसका मुख्य रूप से इस्तेमाल कंधे और हाथों के लिए होता है। मशीन में चक्र जैसे लगे पहिए को पहले एक तरफ घुमाएं, फिर विपरीत दिशा में घुमाएं। 5-10 मिनट तक इसका इस्तेमाल करने से फायदा होता है।
चेस्ट प्रेस से मोटापा कम
मोटापा कम करने के लिए ओपन जिम में लगी चेस्ट प्रेस मशीन काफी लाभदायक है। मशीन पर बने गद्दीनुमा कुर्सी पर बैठ जाएं और फिर दोनों तरफ से लोहे की रॉड को उठाएं। इसमें ढेर सारी कैलरी खर्च होती है। नतीजा, इससे मोटापा कम होता है और शोल्डर और कॉलर को भी अच्छा लुक मिलता है।
ऐब्स के लिए ऐब्स बोर्ड
युवाओं में ऐब्स का क्रेज दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में ओपन जिम में भी युवाओं के लिए खासकर ‘ऐब्स बोर्ड’ मशीन लगाई जाती है। पीठ के बल लेटकर नीचे दिए लोहे के पाइप में पैर फंसाकर यह एक्सरसाइज की जाती है।
4. योग से भगाएं रोग
योग बीमारी से बचने या स्वस्थ रहने का सिर्फ विकल्प न होकर जीवन जीने की एक कला है। इसकी मदद से बीमारियों पर होने वाले बेवजह के खर्चों से भी बचा जा सकता है क्योंकि योग बीमारियों से निजात दिलाने में अहम भूमिका निभाता है।
हाजमा दुरुस्त
'द योग इंस्टिट्यूट' की निदेशक डॉ. हंसा योगेंद्र बताती हैं कि योग शरीर के लिए एक वरदान की तरह है, जिसकी मदद से जीवनभर बीमारियों से दूर रहा जा सकता है। हमारा जन्म स्वस्थ जीवन जीने के लिए होता है, लेकिन हममें से ज्यादातर लोग इसे बीमारियों के इलाज में ही लगा देते हैं। सेहतमंद रहने के लिए आहार, व्यवहार और आचार-विचार का संतुलित होना बेहद जरूरी है। यह सिर्फ योग की मदद से ही किया जा सकता है।
दिल की बीमारी और डायबीटीज को नियंत्रित रखने में ही योग कारगार नहीं है बल्कि कई बार सर्जरी जैसी बड़ी समस्या से बचाने में भी योग अहम साबित होता है। विशेषज्ञों के अनुसार, दिल की बीमारी रक्त संचार के सही न रहने, खानपान और बेवजह की ओवर थिंकिंग के कारण होती है। योग पाचन क्रिया सही रखकर ब्लड सर्कुलेशन को संतुलित रखता है।
हॉर्मोन्स संतुलित
हॉर्मोनल असंतुलन के कारण शरीर को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसकी शिकायत महिलाओं में ज्यादा मिलती है। योग की मदद से हॉर्मोनल असंतुलन को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
सोच पर नियंत्रण
ऐसा देखा गया है कि तनाव का अहम कारण है मन में आने वाली नकारात्मक बातें और ढेर सारे नेगेटिव खयाल। नियमित योग से इस तरह की अनचाही सोच को रोका जा सकता है। योग से तन और मन में सकारात्मक उर्जा का प्रवाह होता है ।
बढ़ाता है दौड़ने की क्षमता
सेहतमंद रहने के लिए दौड़ना बेहतर विकल्प है, लेकिन इसमें योग को शामिल कर लिया जाए तो नतीजे कई गुना बढ़ जाते हैं। योग से ब्रीदिंग कपैसिटी बढ़ जाती है। इससे फेफड़े को मजबूती मिलने के साथ, शरीर में ऑक्सिजन की मात्रा भी बढ़ती है। अमूमन हम एक-तिहाई क्षमता से ही सांस लेने में फेफड़े का उपयोग कर पाते हैं, लेकिन योग से इसे काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है।
ये हैं खास आसन
अधोमुख श्वान आसन: हाथों और पैरों को जमीन पर रखकर कमर को ऊपर उठाएं। ध्यान रहे कि ऐसा करते समय घुटने और कोहनी न मुड़े। इस आसन को करने से पूरा शरीर स्ट्रेच होता है।
जानुशिरासन: समतल जगह पर बैठ कर अपने दोनों पैरों को सीधा कर सामने की ओर फैलाएं। इसके बाद सिर को घुटनों से मिलाने की कोशिश करें। इससे मांसपेशियों में लचीलापन आता है।
बद्ध कोणासन: जमीन पर बैठ जाएं और पैरों के तलवे को मिला लें। इसके बाद घुटनों को जितना हो सके जमीन से मिलाने की कोशिश करें। मसल्स में लचीलापन आता है।
सेतुबंध आसन: जमीन पर कमर के बल लेट जाएं। इसके बाद तलवों को जमीन पर टिकाएं। कमर को ऊपर की ओर उठाएं। इससे कमर को मजबूती मिलती है और दौड़ते समय कमर झुकती नहीं।
पर्वतासन: जमीन पर पद्मासन की क्रिया में बैठ जाएं। इसके बाद सांस को अंदर भरते हुए मूलबंध करके अपने दोनों हाथों को ऊपर की तरफ सीधा खड़ा कर लें और जितना हो सके, अपनी सांस को रोक कर रखें। फिर सांस को धीरे-धीरे छोड़ते हुए अपने हाथों को नीचे की ओर ले जाएं और घुटनों पर रख दें। इस आसन को करने से पैरों को ताकत मिलती है।
फायदे एक नजर में
- योग से दिल और फेफड़े को मिलती है ताकत
- सांस लेने की क्षमता में होता है इजाफा
- योग से शरीर में रक्त संचार को बढ़ाने में मिलती है मदद
- लगातार कुर्सी पर बैठने वालों के लिए खास उपयोगी
-मन को स्थिर रखने और सकारात्मक सोच की तरफ ले जाने में मददगार
-डाइजेशन सुधारने और ूनींद के लिए असरदार
5. जो तैरा, सो पार...
स्विमिंग को कंप्लीट एक्सरसाइज कहा जाता है। इसमें अमूमन शरीर की सभी मांसपेशियों का उपयोग होता है। इसीलिए लोग इसे अब जरूरी स्किल ही नहीं बल्कि फिटनेस का सटीक फॉर्म्युला भी मानने लगे हैं। 15 दिन की क्लास लेकर आसानी से स्विमिंग सीखी जा सकती है।
सुविधाजनक और सेफ
अगर आप स्विमिंग सीख गए तो यह आपको हर एक्सरसाइज से ज्यादा सुविधाजनक और सुरक्षित लगेगी। डॉक्टरों के अनुसार, एक तरफ जिम में जहां कई बार चोट लगने की आशंका रहती है वहीं बाहर एक्सरसाइज करने से प्रदूषण और गर्मी से सामना होता है, लेकिन स्विमिंग में ऐसा नहीं है। इसमें काफी एनर्जी लगती है, लेकिन सिर्फ स्विमिंग से मोटापा खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए डाइट का सही होना भी जरूरी है। स्विमिंग से शरीर का मेटाबॉलिज्म संतुलित रहता है। मोटापे से डायबीटीज की आशंका भी ज्यादा हो जाती है। ऐसे में लगातार स्विमिंग मोटापे पर नियंत्रण रखने के अलावा डायबीटीज के खतरे से भी बचाती है।
दिल को बनाए बेहतर
देश में बढ़ती दिल की बीमारी के लिए जीवनशैली और खानपान जिम्मेदार है, लेकिन दिल का खयाल स्विमिंग की मदद से बेहतर तरीके से रखा जा सकता है। दिल को बीमारियों से दूर रखने के लिए इसकी मांसपेशियों को मजबूत करना जरूरी है और इसके लिए स्विमिंग एक बेहतर ऑप्शन हो सकता है। स्विमिंग के दौरान शरीर की लगभग हर मांसपेशी काम करती है, जिससे उसे मजबूती मिलती है। किसी भी एक्सरसाइज से दिल को 3 फायदे मिलते हैं। इसमें ब्लड सर्कुलेशन को नियंत्रित रखना, कैलरी घटाना और फेफड़ों की सांस लेने की क्षमता बढ़ाना शामिल है। स्विमिंग से सभी चीजें मिलती हैं।
दिमाग के लिए वरदान
तन की तंदुरुस्ती के साथ ही स्विमिंग मन को भी स्थिर करती है। मनोचिकित्सक हरीश शेट्टी बताते हैं कि स्विमिंग की तीन खासियत हैं: प्रकृति का स्पर्श, जॉय और एक्सरसाइज। ये तीनों चीजें इंसान को डिप्रेशन का शिकार होने से बचाती हैं और माइल्ड डिप्रेशन से बाहर निकालती है। ज्यादातर एक्सरसाइज कुछ खास अंगों तक सीमित होती है, जैसे: कार्डियो- हार्ट के लिए, बैक- पीठ के लिए, लेग्स- पैरों के लिए, लेकिन स्विमिंग सभी अंगों के लिए है। फिर पानी की प्रकृति शीतल है, जिससे मन को शांति मिलती है। अगर जिम जाना पसंद नहीं, दौड़ लगाना भी अच्छा नहीं लगता,
लेकिन स्विमिंग पसंद है तो आधे से एक घंटे की स्विमिंग फिट रहने के लिए
पर्याप्त है।
1. बस चलते जाना है...
स्ट्रोक का खतरा कम
जनरल फिजिशन डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि जो लोग रोजाना पैदल चलते हैं, उनमें ब्रेन स्ट्रोक का खतरा बेहद कम हो जाता है क्योंकि पैदल चलने की वजह से कैलरीज बर्न होती हैं, शरीर से बैड कॉलेस्ट्रॉल कम होते हैं। ऐसा देखा गया है कि स्ट्रोक उन लोगों को ज्यादा होता है जो पैदल नहीं चलते या कोई एक्सरसाइज नहीं करते। इससे कॉलेस्ट्रॉल बढ़ने लगता है और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है।
भागेगा मोटापा
मोटापा कई बीमारियों की वजह है और नियमित पैदल चलने से मोटापा आपसे दूर रहता है। बदलती जीवनशैली और फास्ट फूड पर बढ़ती निर्भरता के कारण तेजी से यह समस्या लोगों को अपनी चपेट में ले रही है। डॉक्टरों के अनुसार, मोटापा डायबीटीज, दिल के रोग और जोड़ों के दर्द की सबसे बड़ी वजह है। इनके अलावा, बढ़ती उम्र में अल्झाइमर तक की दिक्कत हो सकती है।
होगा ‘फील गुड’
जनरल फीजिशन डॉ. के. के. अग्रवाल बताते हैं कि जब रोजाना पैदल चलने की आदत बन जाती है तो बॉडी के भीतर एंडोर्फिन नाम के हॉर्मोन का रिसाव होता है, जिसे फील गुड हॉर्मोन कहा जाता है। इसके रिलीज होने से व्यक्ति के मूड में सुधार होता है और वह अच्छा महसूस करता है।
उम्र में होता है इजाफा
एक्सपर्ट्स मानते हैं कि व्यक्ति जितना ज्यादा पैदल चलता है, उसकी उम्र में उतना ही इजाफा होता है। पैदल चलने से बड़ी उम्र में भी इंसान शारीरिक रूप से मजबूत रहता है। इससे उम्र के साथ बढ़ने वाली समस्याओं का असर शरीर पर बेहद कम दिखता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, अगर दिन में 80 मिनट स्लो वॉक की जाए तो घुटने, कूल्हे के दर्द से राहत तो मिलेगी ही, टखनों या पैरों में आई जकड़न भी दूर होगी। कोशिश करें कि हफ्ते में 80 मिनट तेज चाल से पैदल चलें। इससे कई तरह की बीमारियां दूर होंगी। द लैंसेट में प्रकाशित एक स्टडी के अनुसार, रोजाना 2 हजार कदम चलने वाले लोगों को हार्ट अटैक का खतरा ऐसा नहीं करने वालों से 10 फीसदी कम होता है।
ये जरूर अपनाएं
- बैठकर बातें करने के बजाय टहलते हुए बातें करें।
- मोबाइल पर भी बात करते हुए
टहलते रहें।
- पास की दुकानों तक टहलते
हुए जाएं।
- इंटरकॉम या फोन पर बात करने के बजाय ऑफिस में सहयोगियों से बात करने के लिए उसके पास चलकर जाएं।
- काम के दौरान एक ब्रेक लेकर थोड़ा बाहर घूमकर आएं।
- सड़क क्रॉस करने के लिए सब-वे या ब्रिज का इस्तेमाल करें।
- सुबह के वक्त टहलें। कैलरी बर्न होगी। फिर धूप से शरीर को विटामिन डी भी मिलता है।
- वॉक के दौरान ईअर फोन न लगाएं और न ही मोबाइल से बात करें।
2. साइक्लिंग से सेहत फिट
जब लोग साइकल से मीलों का सफर तय करते थे तब ज्यादा स्वस्थ रहते थे, वजह, एक तो उनकी भरपूर एक्सरसाइज होती थी, दूसरा, उस वक्त पलूशन भी इतना नहीं था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सुविधाएं बढ़ीं, यातायात के साधन बढ़े, घर-घर गाड़ियां बढ़ीं और इसी के साथ बढ़ीं मुश्किलें, बीमारियां और प्रदूषण। यूरोप के आज भी कई देश ऐसे हैं जहां अरबपति इंसान भी साइकल से ऑफिस जाना पसंद करते हैं, लेकिन अपने देश में तमाम लोग नजदीकी बाजार से सब्जी लाने के लिए भी कार या बाइक का उपयोग करते हैं। हालांकि अब बढ़ते प्रदूषण और सेहत को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर से लोग साइकल को अपना रहे हैं। साइकल के कई फायदे हैं। इससे सेहतमंद तो रहा ही जा सकता है, पर्यावरण को स्वच्छ रखने में योगदान दिया जा सकता है और महंगे फ्यूल का पैसा भी बचता है। डॉक्टरों के अनुसार, साइकल चलाने से शरीर की तमाम मांसपेशियों को मजबूती मिलती है। साथ ही, इससे घुटनों और जोड़ों की समस्या से भी निजात मिल जाती है। दिल और दिमाग से जुड़ी कई समस्याओं को कम करने में भी साइक्लिंग कारगर है।
दिल दुरुस्त रखती है साइकल
अगर कोई हर रोज 20-30 मिनट के लिए भी साइकल चलाता है तो इससे दिल की कई बीमारियों से बचने में मदद मिलती है। इससे दिल की नलियों को मजबूती भी मिलती है। जेजे अस्पताल के हृदय रोग विभाग के प्रमुख डॉ. नरेंद्र बंसल बताते हैं कि साइक्लिंग बेहद आसान एक्सरसाइज है। नियमित रूप से साइकल चलाने से शरीर में रक्त संचार सही रहता है। इससे हार्ट अटैक की आशंका काफी कम होती है और लंग्स भी मजबूत होते हैं।
घटता है डायबीटीज का खतरा
जीवनशैली में हो रहे बदलाव के कारण मोटापा और डायबीटीज की समस्या तेजी से बढ़ रही है। डॉक्टरों के अनुसार, शरीर का भार बढ़ने से इंसान का ओवरऑल मूवमेंट कम होता है, जिससे डायबीटीज का खतरा बढ़ता है। अगर इंसान नियमित रूप से साइकल चलाता है तो इससे न सिर्फ उसका वजन नियंत्रित रहेगा बल्कि डायबीटीज होने का खतरा भी कम हो जाएगा। साइकल एक ओवरऑल एक्सरसाइज का बढ़िया विकल्प है।
अकड़न और जकड़न से राहत
साइकल चलाते समय पैर से लेकर हाथ और जोड़ों से लेकर मांसपेशियों तक, हर अंग का भरपूर उपयोग होता है। इससे पूरे शरीर की एक साथ एक्सरसाइज हो जाती है, बॉडी का स्टैमिना बढ़ता है और लोगों को जोड़ों की अकड़न और जकड़न से भी राहत मिलती है। जिम जाने की तुलना में साइकल चलाने के फायदे कहीं ज्यादा हैं। जिम में एक्सरसाइज बंद कमरे में होती है जबकि साइकल चलाते वक्त इंसान खुले वातावरण में रहता है। सुबह के वक्त साइकल चलाने से अच्छी मात्रा में शरीर को विटामिन डी भी मिलता है। साइक्लिंग से डिप्रेशन, टेंशन या दूसरे तरह की मानसिक समस्याओं को भी कम किया जा सकता है।
फायदे एक नजर में
- साइकलिंग से शरीर की इम्यूनिटी बेहतर होती है।
- कैलरी को बर्न कर मोटापा घटाने में भी कारगर है यह।
- 30 मिनट साइकल चलाने से शरीर की ओवरऑल एक्सरसाइज हो जाती है।
-रोजाना साइकल चलने से दिल से जुड़ी बीमारियों की आशंका कम हो जाती है।
- जोड़ो का दर्द और आर्थराइटिस से राहत मिलती है।
-ब्रेन को भी मिलती है मजबूती।
हेल्मेट खरीदें, सुरक्षा पाएं
अगर आप बिना हेल्मेट साइकल पर जा रहे हैं तो सड़क पर आपको कोई सीरियसली नहीं लेगा, लेकिन जरा हेल्मेट लगाकर देखिए, कुछ पल के लिए लोगों की निगाह आप पर टिक जाएगी। बाइक वाले भी आपको आगे बढ़ने का रास्ता देंगे।
3. जन-जन का जिम
जिम का मतलब सिर्फ तरह-तरह की मशीनों वाले एसी जिम से ही नहीं है। अब अमूमन ज्यादातर सोसायटीज, कम्यूनिटी सेंटर्स, पार्क में ओपन जिम मिल जाते हैं। जाहिर है, ओपन जिम की मदद से आप खुद को फिट रख सकते हैं।
इस जिम का फायदा सभी उम्र के लोग लेते हैं। ओपन में किसी पार्क या प्लॉट पर चलने वाले ऐसे जिम की खासियत होती है कि ये बंद कमरों में नहीं होते। सांस लेने के लिए फ्रेश हवा मिलती है। सच तो यह है कि पहले जहां पार्क में लोग सिर्फ टहलने के लिए जाते थे, अब वॉकिंग के साथ एक्सरसाइज भी करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि अमूमन ऐसे जिम फ्री में उपलब्ध होते हैं तो आप जरूर इनका फायदा उठाएं। अगर आप हजारों रुपये खर्च कर एसी वाले जिम में पसीना बहाते हैं तो आपको ओपन जिम के बारे में सोचना चाहिए। जिम में इस्तेमाल होने वाली मशीनों की तर्ज पर ओपन जिम में भी कई मशीनें लगी रहती हैं जहां आप पांव से लेकर कंधे तक की भरपूर एक्सरसाइज कर सकते हैं। यही नहीं, सिक्स पैक ऐब्स भी बना सकते हैं।
पैरों के दर्द का मर्ज
पैर और घुटनों का दर्द लोगों में आम होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह एक्सरसाइज न करना या शरीर को सही मात्रा में कैल्शियम का नहीं मिलना है। ओपन जिम में लगी एरियल स्ट्रोलर मशीन से पैर और घुटनों की बेहतर एक्सरसाइज की जा सकती है। रोजाना 5-10 मिनट इस मशीन का इस्तेमाल कर आप दर्द को दूर रख सकते हैं और पैरों को मजबूत बना सकते हैं।
ट्वल से मजबूत कंधे
गोलाकार चक्र जैसी दिखने वाली मशीन का नाम ट्वल है। यह मशीन 360 डिग्री पर घूमती है। इसका मुख्य रूप से इस्तेमाल कंधे और हाथों के लिए होता है। मशीन में चक्र जैसे लगे पहिए को पहले एक तरफ घुमाएं, फिर विपरीत दिशा में घुमाएं। 5-10 मिनट तक इसका इस्तेमाल करने से फायदा होता है।
चेस्ट प्रेस से मोटापा कम
मोटापा कम करने के लिए ओपन जिम में लगी चेस्ट प्रेस मशीन काफी लाभदायक है। मशीन पर बने गद्दीनुमा कुर्सी पर बैठ जाएं और फिर दोनों तरफ से लोहे की रॉड को उठाएं। इसमें ढेर सारी कैलरी खर्च होती है। नतीजा, इससे मोटापा कम होता है और शोल्डर और कॉलर को भी अच्छा लुक मिलता है।
ऐब्स के लिए ऐब्स बोर्ड
युवाओं में ऐब्स का क्रेज दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में ओपन जिम में भी युवाओं के लिए खासकर ‘ऐब्स बोर्ड’ मशीन लगाई जाती है। पीठ के बल लेटकर नीचे दिए लोहे के पाइप में पैर फंसाकर यह एक्सरसाइज की जाती है।
4. योग से भगाएं रोग
योग बीमारी से बचने या स्वस्थ रहने का सिर्फ विकल्प न होकर जीवन जीने की एक कला है। इसकी मदद से बीमारियों पर होने वाले बेवजह के खर्चों से भी बचा जा सकता है क्योंकि योग बीमारियों से निजात दिलाने में अहम भूमिका निभाता है।
हाजमा दुरुस्त
'द योग इंस्टिट्यूट' की निदेशक डॉ. हंसा योगेंद्र बताती हैं कि योग शरीर के लिए एक वरदान की तरह है, जिसकी मदद से जीवनभर बीमारियों से दूर रहा जा सकता है। हमारा जन्म स्वस्थ जीवन जीने के लिए होता है, लेकिन हममें से ज्यादातर लोग इसे बीमारियों के इलाज में ही लगा देते हैं। सेहतमंद रहने के लिए आहार, व्यवहार और आचार-विचार का संतुलित होना बेहद जरूरी है। यह सिर्फ योग की मदद से ही किया जा सकता है।
दिल की बीमारी और डायबीटीज को नियंत्रित रखने में ही योग कारगार नहीं है बल्कि कई बार सर्जरी जैसी बड़ी समस्या से बचाने में भी योग अहम साबित होता है। विशेषज्ञों के अनुसार, दिल की बीमारी रक्त संचार के सही न रहने, खानपान और बेवजह की ओवर थिंकिंग के कारण होती है। योग पाचन क्रिया सही रखकर ब्लड सर्कुलेशन को संतुलित रखता है।
हॉर्मोन्स संतुलित
हॉर्मोनल असंतुलन के कारण शरीर को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसकी शिकायत महिलाओं में ज्यादा मिलती है। योग की मदद से हॉर्मोनल असंतुलन को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
सोच पर नियंत्रण
ऐसा देखा गया है कि तनाव का अहम कारण है मन में आने वाली नकारात्मक बातें और ढेर सारे नेगेटिव खयाल। नियमित योग से इस तरह की अनचाही सोच को रोका जा सकता है। योग से तन और मन में सकारात्मक उर्जा का प्रवाह होता है ।
बढ़ाता है दौड़ने की क्षमता
सेहतमंद रहने के लिए दौड़ना बेहतर विकल्प है, लेकिन इसमें योग को शामिल कर लिया जाए तो नतीजे कई गुना बढ़ जाते हैं। योग से ब्रीदिंग कपैसिटी बढ़ जाती है। इससे फेफड़े को मजबूती मिलने के साथ, शरीर में ऑक्सिजन की मात्रा भी बढ़ती है। अमूमन हम एक-तिहाई क्षमता से ही सांस लेने में फेफड़े का उपयोग कर पाते हैं, लेकिन योग से इसे काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है।
ये हैं खास आसन
अधोमुख श्वान आसन: हाथों और पैरों को जमीन पर रखकर कमर को ऊपर उठाएं। ध्यान रहे कि ऐसा करते समय घुटने और कोहनी न मुड़े। इस आसन को करने से पूरा शरीर स्ट्रेच होता है।
जानुशिरासन: समतल जगह पर बैठ कर अपने दोनों पैरों को सीधा कर सामने की ओर फैलाएं। इसके बाद सिर को घुटनों से मिलाने की कोशिश करें। इससे मांसपेशियों में लचीलापन आता है।
बद्ध कोणासन: जमीन पर बैठ जाएं और पैरों के तलवे को मिला लें। इसके बाद घुटनों को जितना हो सके जमीन से मिलाने की कोशिश करें। मसल्स में लचीलापन आता है।
सेतुबंध आसन: जमीन पर कमर के बल लेट जाएं। इसके बाद तलवों को जमीन पर टिकाएं। कमर को ऊपर की ओर उठाएं। इससे कमर को मजबूती मिलती है और दौड़ते समय कमर झुकती नहीं।
पर्वतासन: जमीन पर पद्मासन की क्रिया में बैठ जाएं। इसके बाद सांस को अंदर भरते हुए मूलबंध करके अपने दोनों हाथों को ऊपर की तरफ सीधा खड़ा कर लें और जितना हो सके, अपनी सांस को रोक कर रखें। फिर सांस को धीरे-धीरे छोड़ते हुए अपने हाथों को नीचे की ओर ले जाएं और घुटनों पर रख दें। इस आसन को करने से पैरों को ताकत मिलती है।
फायदे एक नजर में
- योग से दिल और फेफड़े को मिलती है ताकत
- सांस लेने की क्षमता में होता है इजाफा
- योग से शरीर में रक्त संचार को बढ़ाने में मिलती है मदद
- लगातार कुर्सी पर बैठने वालों के लिए खास उपयोगी
-मन को स्थिर रखने और सकारात्मक सोच की तरफ ले जाने में मददगार
-डाइजेशन सुधारने और ूनींद के लिए असरदार
5. जो तैरा, सो पार...
स्विमिंग को कंप्लीट एक्सरसाइज कहा जाता है। इसमें अमूमन शरीर की सभी मांसपेशियों का उपयोग होता है। इसीलिए लोग इसे अब जरूरी स्किल ही नहीं बल्कि फिटनेस का सटीक फॉर्म्युला भी मानने लगे हैं। 15 दिन की क्लास लेकर आसानी से स्विमिंग सीखी जा सकती है।
सुविधाजनक और सेफ
अगर आप स्विमिंग सीख गए तो यह आपको हर एक्सरसाइज से ज्यादा सुविधाजनक और सुरक्षित लगेगी। डॉक्टरों के अनुसार, एक तरफ जिम में जहां कई बार चोट लगने की आशंका रहती है वहीं बाहर एक्सरसाइज करने से प्रदूषण और गर्मी से सामना होता है, लेकिन स्विमिंग में ऐसा नहीं है। इसमें काफी एनर्जी लगती है, लेकिन सिर्फ स्विमिंग से मोटापा खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए डाइट का सही होना भी जरूरी है। स्विमिंग से शरीर का मेटाबॉलिज्म संतुलित रहता है। मोटापे से डायबीटीज की आशंका भी ज्यादा हो जाती है। ऐसे में लगातार स्विमिंग मोटापे पर नियंत्रण रखने के अलावा डायबीटीज के खतरे से भी बचाती है।
दिल को बनाए बेहतर
देश में बढ़ती दिल की बीमारी के लिए जीवनशैली और खानपान जिम्मेदार है, लेकिन दिल का खयाल स्विमिंग की मदद से बेहतर तरीके से रखा जा सकता है। दिल को बीमारियों से दूर रखने के लिए इसकी मांसपेशियों को मजबूत करना जरूरी है और इसके लिए स्विमिंग एक बेहतर ऑप्शन हो सकता है। स्विमिंग के दौरान शरीर की लगभग हर मांसपेशी काम करती है, जिससे उसे मजबूती मिलती है। किसी भी एक्सरसाइज से दिल को 3 फायदे मिलते हैं। इसमें ब्लड सर्कुलेशन को नियंत्रित रखना, कैलरी घटाना और फेफड़ों की सांस लेने की क्षमता बढ़ाना शामिल है। स्विमिंग से सभी चीजें मिलती हैं।
दिमाग के लिए वरदान
तन की तंदुरुस्ती के साथ ही स्विमिंग मन को भी स्थिर करती है। मनोचिकित्सक हरीश शेट्टी बताते हैं कि स्विमिंग की तीन खासियत हैं: प्रकृति का स्पर्श, जॉय और एक्सरसाइज। ये तीनों चीजें इंसान को डिप्रेशन का शिकार होने से बचाती हैं और माइल्ड डिप्रेशन से बाहर निकालती है। ज्यादातर एक्सरसाइज कुछ खास अंगों तक सीमित होती है, जैसे: कार्डियो- हार्ट के लिए, बैक- पीठ के लिए, लेग्स- पैरों के लिए, लेकिन स्विमिंग सभी अंगों के लिए है। फिर पानी की प्रकृति शीतल है, जिससे मन को शांति मिलती है। अगर जिम जाना पसंद नहीं, दौड़ लगाना भी अच्छा नहीं लगता,
लेकिन स्विमिंग पसंद है तो आधे से एक घंटे की स्विमिंग फिट रहने के लिए
पर्याप्त है।
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जल का हल, पीने के पानी से जुड़ी सारी बातें, जानें यहां
10 दिन पहले नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने केंद्र सरकार से कहा है कि जिन इलाकों में पानी ज्यादा खारा नहीं है, वहां आरओ के इस्तेमाल पर बैन लगाया जाए क्योंकि इससे पानी की बहुत बर्बादी होती है और यह सेहत के लिए मुफीद भी नहीं है। खास बात यह है कि महानगरों में पानी सप्लाई करने वाली एजेंसियां भी इस बात पर जोर देती हैं कि उनका पानी सौ फीसदी शुद्ध है, लेकिन हकीकत यह है कि महानगरों में सबसे ज्यादा आरओ वॉटर प्योरिफायर ही बिक रहे हैं। क्या है शुद्ध पानी का फंडा और आरओ के इस्तेमाल में है समझदारी, एक्सपर्ट्स से बात करके ब्योरा दे रहे हैं
वीरेंद्र वर्मा:
-दिल्ली, मुंबई या लखनऊ समेत देश के ज्यादातर शहरों में पानी के स्रोत या तो नदियां हैं या फिर ग्राउंड वॉटर। इनके पानी को ही साफ करके वहां की सरकारी एजेंसियां लोगों के घरों में पानी की सप्लाई करती हैं। सरकारी एजेंसी कच्चे पानी को साफ करके पाइपलाइन के जरिए लोगों के घरों में पहुंचाती हैं। हालांकि यहां दिक्कतें पुरानी पाइपलाइनों की वजह से आती हैं या फिर फैरूल से घर तक पानी पहुंचने के दौरान पानी में अशुद्धियां मिलती हैं। अगर कहीं लीकेज होती है तो सप्लाई वाले पानी में सीवर का पानी मिलने की आशंका बढ़ जाती है क्योंकि कई जगह पीने की पाइपलाइनें और सीवर की पाइपलाइनें साथ-साथ गुजरती हैं।
-पानी की पाइपलाइन पर सीधे मोटर लगाने से भी गंदा पानी आ जाता है। कई बार हमें यह पता नहीं होता कि पाइप में सप्लाई आ रही है या नहीं। अगर नहीं आ रही है और हम मोटर चालू कर देते हैं तो मोटर बाहर की गंदगी खींच लेता है।
-सप्लाई वाले पानी में अमूमन सबसे ज्यादा अशुद्धियां फेरूल से आपके घर तक जाने वाले पाइप में मिलती हैं। ऐसे में बेहतर रहेगा कि पानी का कनेक्शन जल बोर्ड के लाइसेंसी प्लंबर से ही कराएं और अगर पानी में गड़बड़ी आ रही है तो सबसे पहले अपनी लाइन की जांच कराएं। जरूरी हो तो पाइपलाइन बदलवा लें। फैरूल वह जॉइंट होता है, जहां पर जल बोर्ड की पाइपलाइन से घरों में पानी का कनेक्शन दिया जाता है। यहां लीकेज होने पर घरों के अंदर गंदा पानी सप्लाई होने लगता है।
पानी में गड़बड़ियां
पानी में दो तरह की अशुद्धियां होती हैं: घुलनशील और अघुलनशील। ये केमिकल और बायलॉजिकल होती हैं। केमिकल अशुद्धियां कई बातों पर निर्भर करती हैं। मसलन, अगर पानी के स्रोत के पास फैक्ट्रियां हैं तो उनकी गंदगी पानी में जाएगी। इसी तरह सेनेटरी लैंडफिल की गंदगी रिसकर जमीन के नीचे के पानी को खराब कर देती है। दिल्ली में गाजीपुर और भलस्वा लैंडफिल के साथ ऐसा ही हुआ है। स्टडी के मुताबिक, इन दोनों सैनिटरी लैंडफिल के 10 किलोमीटर तक के दायरे के अंडरग्राउंड वॉटर की क्वॉलिटी काफी खराब हो चुकी है। अगर खेती में कीटनाशकों का बहुत इस्तेमाल होता है तो ये केमिकल अंडरग्राउंड वॉटर में मिलकर उसे गंदा कर देते हैं।
क्या कहा है NGT ने
एनजीटी के निर्देश पर नैशनल एन्वॉयरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट (Neeri), सेंट्रल पलूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) और IIT-Delhi ने आरओ के इस्तेमाल पर एक रिपोर्ट तैयार कर एनजीटी को सौंपी है। रिपोर्ट के आधार पर एनजीटी ने 28 मई को पर्यावरण मंत्रालय को जारी निर्देश में ये बातें कही हैं:
-देश में 16 करोड़ 30 लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता। यह संख्या पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा है।
-विकसित देशों में भी आरओ का इस्तेमाल कम करने पर जोर दिया जाता है। वहां समंदर के पानी को पीने लायक बनाने के लिए आरओ इस्तेमाल होता है क्योंकि इस पानी में TDS बहुत होता है। वहीं भारत में मौजूद पानी में टीडीएस की मात्रा कम होने के बावजूद आरओ की डिमांड दिन ब दिन बढ़ रही है।
-आरओ सिस्टम बनाने वाली कंपनियों ने पानी को लेकर लोगों में डर का माहौल बना दिया है।
-घरों में सप्लाई होने वाले पानी में अगर TDS 500mg/लीटर से कम है तो RO को बैन कर देना चाहिए।
-लोगों के घरों में जो पानी सप्लाई होता है, उसमें TDS कितना है, यह कैसे पता चले। इसके लिए सरकार को उस पानी के बारे में बिल के जरिए पूरी जानकारी दी जानी चाहिए। बिल पर लिखा रहे कि इस पानी का स्रोत क्या है और उसमें TDS कितना है।
-आरओ सिस्टम से पानी में मौजूद जरूरी मिनरल्स भी पूरी तरह निकल जाते हैं। विदेशों में आरओ के बुरे असर देखे जा रहे हैं। वहां के लोगों में कैल्शियम और मैग्निशियम की कमी होने की शिकायत आने लगी है। इसलिए भारत में आरओ सिस्टम बनाने वाली कंपनियां यह ध्यान रखें कि पानी में कम से कम 150mg/लीटर टीडीएस जरूर मौजूद रहे।
-जिन इलाकों के पानी में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे खतरनाक तत्वों की मौजूदगी है, वहां के लिए भी ऐसी तकनीक लाई जाए जिससे कि इनका स्तर कम हो सके ताकि आरओ की जरूरत वहां भी नहीं पड़े।
-आरओ से पानी साफ होने की प्रक्रिया में अमूमन 80 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है और 20 फीसदी ही पीने लायक मिलता है। आरओ कंपनियों को ऐसी मशीन बनाने के लिए कहा जाए, जिसके द्वारा कम से कम 60 फीसदी पानी पीने लायक बने और 40 फीसदी से ज्यादा पानी बर्बाद न हो। वहीं साफ पानी प्राप्त करने की क्षमता को आगे कम से कम 75 फीसदी तक बढ़ाई जाए।
क्या कहना है RO कंपनियों का
'आरओ पर पाबंदी लगाना समस्या का हल नहीं है। दरअसल, पानी में टीडीएस के साथ-साथ माइक्रोप्लास्टिक, आर्सेनिक, कीटनाशक जैसी दूसरी अशुद्धियां भी होती है, जिन्हें आरओ के जरिए हटाया जाना जरूरी है। जहां तक पानी की बर्बादी की बात है तो हमने ऐसी तकनीक विकसित की है कि 80% की जगह 50% पानी ही बर्बाद होता है। हम और रिसर्च करके इसे घटाने की कोशिश कर रहे हैं। BIS और WHO के मापदंडों में कहीं भी यह नहीं बताया है कि टीडीएस कम से कम कितना हो। फिर भी हम यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारे आरओ में कम से कम 50mg/लीटर टीडीएस पानी निकले। यह पानी स्वाद और सेहत के लिए मुफीद होता है।'
-महेश गुप्ता, चेयरमैन, केंट आरओ
क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
'अगर टीडीएस 100 तक है तो वह ठीक है। हां, किडनी के मरीजों के लिए 50 से 100 के बीच टीडीएस होना चाहिए।'
- डॉ. के. के. अग्रवाल, सीनियर कार्डियॉलजिस्ट
'सेफ वॉटर के लिए अगर बैक्टीरिया, वायरस हटाने हैं तो पानी उबालने से ये सब मर जाते हैं, लेकिन अगर उसमें हेवी मेटल्स हैं तो वे उबालने से नहीं जाएंगे। उसके लिए आरओ की जरूरत होती है।'
- डॉ. एस. के. सरीन, डायरेक्टर, इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बाइलरी साइंसेज
घर में अगर सरकारी पानी आ रहा है तो आरओ लगवाने की कोई जरूरत नहीं है। आरओ का पानी मिनरल-रहित होता है-यह बात सामने आने पर कंपनियां अब कुछ मात्रा में मिनरल मिलाने लगी हैं। पर यह कोई समाधान नहीं है। वे एक फिक्स्ड फॉर्म्युले में मिनरल मिलते हैं, पर यह फॉर्म्युले किसने तय किया है? किस आधार पर तय हुआ है? हर इलाके का जमीन का पानी अलग किस्म का होता है और पानी में करीब 140 किस्म के मिनरल होते हैं। आरओ हर तरह के वायरस का खात्मा नहीं कर पाता। मसलन: सुपरबग वायरस।
- संजय शर्मा, प्रेसिडेंट, Be Enviro Wise
TDS क्या है?
पानी में घुली हुई सभी चीजों को टीडीएस (टोटल डिसॉल्व्ड सॉलिड्स) कहते हैं। इसमें सॉल्ट, कैल्शियम, मैग्निशियम, पोटैशियम, सोडियम, कार्बोनेट्स, क्लोराइड्स आदि आते हैं। ड्रिंकिंग वॉटर को मापने के लिए टीडीएस पीएच और हार्डनेस लेवल देखा जाता है। बीआईएस (ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड) के मुताबिक, मानव शरीर अधिकतम 500 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) टीडीएस सहन कर सकता है। अगर यह लेवल 1000 पीपीएम हो जाता है तो शरीर के लिए नुकसानदेह हैं। लेकिन फिलहाल आरओ से फिल्टर्ड पानी में 18 से 25 पीपीएम टीडीएस मिल रहा है जो काफी कम है। इसे ठीक नहीं माना जा सकता। इससे शरीर में कई तरह के मिनरल नहीं मिल पाते। यहां एक सवाल और है कि हमारे घरों में जो पीने के पानी की सप्लाई सरकारी एजेंसियां करती हैं, उनकी कितनी जांच होती है?
सरकारी एजेंसियां कैसे साफ करती हैं पानी?
एजेंसियों के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में पानी नदी या नहर के जरिए आता है तो सबसे पहले पानी में मौजूद अशुद्धियों की जांच होती है। इसके बाद तय किया जाता है कि उस पानी को किस विधि से साफ किया जाना चाहिए।
1. पानी की जांच करने के बाद उसमें क्लोरीन मिलाई जाती है। उसके बाद फिटकरी, पॉली एल्युमिनियम क्लोराइड मिलाया जाता है, ताकि पानी की गंदगी साफ हो सके।
2. इसके बाद पानी क्लोरीफायर में जाता है, जहां अशुद्धियां और गाद नीचे बैठ जाती हैं। यहां पानी की दो बार टेस्टिंग होती है।
3. क्लेरीफायर से पानी फिल्टर हाउस में जाता है, जहां पानी छाना जाता है। फिर से पानी की जांच होती है। इसके बाद पानी को प्लांट में मौजूद जलाशयों में भेजा जाता है। यहां पर दोबारा से क्लोरीनेशन होता है। पानी साफ करने के बाद जितनी भी बार पानी की जांच होती है, उसमें घुलनशील और अघुलनशील अशुद्धियों की जांच की जाती है। अगर पानी में कोई भी गड़बड़ी पाई जाती है तो पानी की सप्लाई रोक दी जाती है। प्लांट से पानी साफ होने के बाद अंडर ग्राउंड रिजरवॉयरों में जाता है। यहां भी घरों में सप्लाई करने से पहले जांच की जाती है। इसके बाद भी जल बोर्ड लोगों के घरों में भी जाकर पानी के सैंपल जांच के लिए उठाता है। इसलिए आरओ कंपनियों का आरोप गलत है कि जल बोर्ड पानी की जांच सही से नहीं करता।
पीने के पानी के लिए
BIS स्टैंडर्ड
TDS: 0-500 ppm
PH level: 6.5-7.5
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WHO स्टैंडर्ड
- पानी में 300 से कम टीडीएस है तो उसे एक्सेलेंट कैटिगरी का माना जाता है।
- 300 से 600 के बीच की टीडीएस को गुड कैटिगरी में माना जाता है।
- 600 से 900 के बीच के टीडीएस को फेयर कैटिगरी में माना जाता है।
- 1200 से ज्यादा के टीडीएस वाले पानी को खराब कैटिगरी में माना जाता है।
BIS की बात
भारत में पानी की गुणवत्ता बीआईएस-10500 के तहत मापी जाती है। बीआईएस (ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स) ने ड्रिकिंग वॉटर और पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर के मानकों के लिए नियम तय किए हैं। इनके अनुसार पानी में टीडीएस की मात्रा 0 से 500 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) होनी चाहिए। साथ ही पीएच लेवल 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। इससे ज्यादा होने पर यह नुकसानदेह है। बीआईएस के मुताबिक, पानी में कुल 82 तरह की अशुद्धियों की जांच होनी चाहिए। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक पानी में 300 से 400 तरह के केमिकल्स अशुद्धियों के रूप में मौजूद हो सकते हैं। हालांकि भारत में बीआईएस मानक के मुताबिक इनकी संख्या कम बताई गई है।
घर में क्वॉलिटी चेक
मार्केट में पानी का टीडीएस मापने की एक पेन-नुमा मशीन आती है। इसे डिजिटल टीडीएस मीटर कहते हैं। यह मीटर 600 से 1500 रुपये तक की आता है। हालांकि इससे सिर्फ टीडीएस का ही पता चलेगा। दिल्ली जल बोर्ड की लैब में फोन करके भी सैंपल चेक करवा सकते हैं। जल बोर्ड की टीम सैंपल उठाने आएगी और जांच के बाद आपको पूरी रिपोर्ट देगी। ऐसा ही दूसरे शहरों की पानी सप्लाई करने वाली सरकारी एजेंसी करती है।
दिल्ली में पानी की जांच के लिए इन नंबरों पर संपर्क किया जा सकता है:
टोल फ्री: 1916
011-23634469
9650291021
-अगर सरकारी एजेंसी द्वारा पीने के पानी की सप्लाई की जा रही है तो क्या प्योरिफायर की जरूरत है?
अगर सरकारी एजेंसियों की पाइप लाइनें सही हैं। उनमें लीकेज नहीं है और पानी टैंक में स्टोर भी नहीं किया जा रहा यानी पानी सीधे घर तक पहुंच रहा है तो वह पानी पीने के लिए सेफ है। इसके लिए आरओ की जरूरत नहीं है, लेकिन अमूमन ऐसा कम ही होता है। पानी की पाइप्स में लीकेज भी होते हैं और हम उन्हें टंकी में स्टोर भी करते हैं। ऐसे में सेरमिक फिल्टर वाला प्योरिफायर इस्तेमाल करना चाहिए।
-अगर पीने के पानी का सोर्स ग्राउंड वॉटर है, तब कौन-सा प्योरिफायर इस्तेमाल करें?
इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले ग्राउंड वॉटर की जांच कराएं। अगर पानी साफ है तो सिर्फ फिल्ट्रेशन से काम चल जाता है। सच तो यह है कि ज्यादातर जगहों पर ग्राउंड वॉटर साफ है, लेकिन फैक्ट्री या डंप एरिया के करीब के ग्राउंड वॉटर में केमिकल्स मिल जाते हैं। अगर पानी में आर्सेनिक, क्लोराइड या फ्लोराइड की मौजूदगी है, तब आरओ लगाना जरूरी हो जाता है।
क्या आरओ प्यूरीफायर से मिनरल्स वाकई निकल जाते हैं?
आरओ पानी से सूक्ष्म पोषक तत्व भी निकाल देता है। इन तत्वों के निकलते ही पानी की पीएच वैल्यू गिर जाती है यानी पानी फिर ऐसिडिक बन जाता है। पीएच का स्केल 0-14 के बीच होता है। पीएच वेल्यू 7 से नीचे होने पर पानी ऐसिडिक होता है। 7 से ऊपर होने पर पानी अल्केलाइन होता है। हमारा शरीर 97 फीसदी तक अल्केलाइन है। पीने लायक पानी का पीएच वैल्यू 6.5 से 8.5 के बीच होना चाहिए।
मिनरल्स की कमी को दूर करने के लिए क्या आरओ में फिल्टर के दौरान अशुद्ध पानी भी मिलाया जाता है?
पानी साफ करते वक्त आरओ 90 फीसदी तक मिनरल्स निकाल देता है। ऐसे में पानी में मिनरल्स के स्तर को बनाए रखने के लिए अमूमन 10 फीसदी इम्प्योर वॉटर मिला दिया जाता है। इस थोड़े से गंदे पानी से सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा आरओ कंपनियों का दावा है। फिर भी कुछ आरओ कंपनियां गंदे पानी की जगह दूसरे तरीके मिनरल मिला देती हैं।
क्या आरओ का पानी पीना सेहत के लिए हानिकारक है?
हां, पानी में मौजूद हर तरह की चीजों को आरओ निकाल देता है। इसमें केमिकल्स, मिनरल्स, पल्यूटेंट्स और टीडीएस भी शामिल हैं। पानी से मिनरल्स को भी पूरी तरह निकाल देने से लंबे समय तक मिनरल रहित पानी पीना सेहत के लिए समस्या पैदा कर सकता है। एक तरफ कैल्शियम के निकल जाने से हड्डियों में कमजोरी आ सकती है तो मैग्निशियम की कमी से क्रैंप्स हो सकते हैं। हालांकि, इसमें बहुत ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है। कारण यह है कि अब ज्यादातर आरओ कंपनियां अपने आरओ के पानी में मिनरल्स मिलाने लगी हैं।
कौन-सा RO लें?
आरओ के इतने ब्रैंड्स और फीचर्स आने के बाद सबसे ध्यान रखने वाली बात यह है कि जो भी फाइनल करें, वह आपके इलाके के सप्लाई वॉटर के हिसाब से हो। मसलन, अगर मेट्रो सिटी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि वहां का पलूशन लेवल ज्यादा होगा। इसका असर सप्लाई हो रहे पानी पर भी पड़ेगा। ऐसे में प्योरीफायर वही लें जिसमें RO, UV, UF तीनों तकनीक हो। इसके साथ ही चूंकि जरूरी मिनरल्स की शरीर को जरूरत होती है, ऐसे में बाजार में आ चुकी TDS (टोटल डिसॉल्व्ड सॉल्ट) कंट्रोलर तकनीक से लैस प्योरिफायर ही लें, जिससे शरीर में बैलंस बना रहे।
RO (रिवर्स ऑस्मोसिस)
आरओ पानी साफ करने की ऐसी तकनीक है, जिसमें प्रेशर डालकर पानी को साफ किया जाता है। इस तकनीक में पानी में घुली अशुद्धियां, पार्टिकिल्स और मेटल खत्म हो जाते हैं। आरओ का इस्तेमाल उन इलाकों में करना चाहिए जहां पानी में टीडीएस (टोटल डिसॉल्व्ड सॉल्ट) ज्यादा हो यानी पानी खारा हो। मसलन बोरवेल के पानी के लिए या समुद्री इलाकों के लिए आरओ सही है।
खूबियां
- आरओ के पानी में कोई भी अशुद्धि नहीं रहती।
- बैक्टीरिया और वायरस को ब्लॉक कर बाहर करता है।
- क्लोरीन और आर्सेनिक जैसी अशुद्धियों को भी साफ करता है।
कमियां
- बिजली की जरूरत पड़ती है।
- यह नॉर्मल से ज्यादा टैप वॉटर प्रेशर में काम करता है।
- औसतन 20 से 50 फीसदी पानी आरओ के रिजेक्ट सिस्टम से बर्बाद होता है।
- कई आरओ हमारे पीने के पानी से जरूरी मिनरल्स को बाहर कर देते हैं।
UV (अल्ट्रावॉयलेट)
इस तकनीक से पानी में मौजूद बैक्टीरिया और वायरस खत्म होते हैं। यह पानी में घुली क्लोरीन और आर्सेनिक को साफ नहीं कर सकता। इसका इस्तेमाल उन इलाकों में ही होना चाहिए जहां ग्राउंड वॉटर पहले से मीठा हो और सिर्फ बैक्टरिया को खत्म किए जाने की जरूरत हो। मसलन, पहाड़ी और कम प्रदूषण वाले इलाकों के लिए ठीक है। इसे समुद्री इलाकों में या प्रदूषित शहरों में इस्तेमाल करना सही नहीं होगा।
खूबियां
- सभी बैक्टीरिया और वायरस को खत्म कर देता है।
- यह नॉर्मल टैप वॉटर प्रेशर में काम कर सकता है।
अल्ट्रा फिल्ट्रेशन (UF)
यह एक फिजिकल तकनीक है। इसे ग्रैविटी तकनीक भी कहते हैं। इसमें किसी केमिकल का उपयोग किए बिना पानी साफ हो जाता है। इसमें तकनीक अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन तरीका एक ही है और वह यह कि यह ग्रैविटी की वजह से इसमें पानी विभिन्न परतों से होते हुए नीचे पहुंचती है और इस दौरान पानी साफ हो जाता है। कुछ में इसके लिए मेंब्रेन (झिल्ली) का इस्तेमाल होता है तो कुछ में सेरेमिक का जिससे पानी छनकर साफ होकर मिलता है।
खूबियां
- बिजली की जरूरत नहीं।
- बैक्टीरिया और वायरस को मार कर पानी से बाहर करता है।
- नॉर्मल टैप वॉटर प्रेशर में काम कर सकता है।
-किसी केमिकल इस्तेमाल नहीं होता।
-यह सस्ता है।
कमियां
पानी हार्ड हो और क्लोरीन और आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा हो तो इसका कोई फायदा नहीं। यह घुली हुई अशुद्धियों को साफ नहीं कर पाता।
पोर्टेबल प्योरिफायर
यह छोटे आकार का होता है। इसमें अक्सर नैनो टेक्नॉलजी या फिर मेटल बेस्ट प्योरिफिकेशन होता है।
खूबियां
-इसमें बिजली की जरूरत नहीं होती।
-इसे कहीं भी साथ ले जाना आसान है।
-इसे सीधे टैप में लगाकर साफ पानी मिल जाता है।
कमियां
-ज्यादा गंदा पानी के लिए कारगर नहीं।
-हार्ड वॉटर या खारे पानी में काम नहीं करता।
-बैक्टीरिया और वायरस को निकालने की इसकी क्षमता कम होती है।
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पानी साफ करने के परंपरागत तरीके
पानी को उबालना: वैसे तो पानी को साफ और पीने योग्य बनाने के लिए ढेरों तरीके मौजूद हैं, लेकिन सबसे पुराना तरीका है पानी को उबालना। दुनियाभर में इस परंपरागत तरीके को लोग अपनाते हैं। पानी को कम-से-कम 20 मिनट उबालना चाहिए और उसे ऐसे साफ कंटेनर में रखना चाहिए, जिसका मुंह छोटा हो ताकि उसमें गंदगी न जाए। उबले पानी को ढक कर रखें। हालांकि उबालने से पानी साफ तो हो जाता है, लेकिन उसमें मौजूद हेवी मेटल्स नहीं निकल पाते।
कैंडल वॉटर फिल्टर: पानी को साफ करने के लिए दूसरा मुफीद तरीका है कैंडल वॉटर फिल्टर। इसमें समय-समय पर कैंडल बदलने की जरूरत होती है ताकि पानी बेहतर तरीके से साफ हो सके। सिरैमिक से बने कैंडल्स पानी से बैक्टीरिया हटाते हैं। हालांकि यह पानी में घुले हुए केमिकल को निकाल नहीं पाता। इसके कैंडल को 6 महीने या इस्तेमाल के हिसाब से बदलते रहना चाहिए। कैंडल की कीमत करीब 550 रुपये से शुरू होती है। फिल्टर के साइज के साथ-साथ कीमत बढ़ती रहती है।
क्लोरिनेशन: पानी साफ करने के लिए क्लोरिनेशन बहुत पुरानी प्रक्रिया है। पानी को हानिकारक बैक्टीरिया से बचाने के लिए नगरपालिका, अस्पताल, रेलवे आदि की टंकियों में क्लोरीन का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रक्रिया से पानी साफ होने के साथ-साथ उसके रंग और गंध में भी बदलाव आ जाता है। क्लोरिनेशन से बैक्टीरिया मर जाते हैं। हालांकि इसका इस्तेमाल सही मात्रा में किया जाना चाहिए क्योंकि ज्यादा क्लोरीन से पानी के स्वाद के साथ हमारी सेहत पर भी असर पड़ता है। घरों में इसका इस्तेमाल करना हो तो एक्सपर्ट की सलाह लें।
हैलोजन टैब्लेट: इमर्जेंसी या ट्रैकिंग के दौरान पानी साफ करने के लिए हैलोजन टैब्लेट का इस्तेमाल किया जाता है। ये गोलियां पानी में पूरी तरह घुल जाती हैं। बाजार में पोर्टेबल एक्वा वॉटर टैब्लेट्स की 50 टैब्लेट्स लगभग 500 रुपये में आती हैं। इसी तरह एक्वाटैब्स वॉटर प्योरिफिकेशन की 100 टैब्लेट्स लगभग 1100 रुपये में आती हैं।
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सवाल-जवाब
फिल्टर होने के कितने दिनों बाद तक उस पानी पी सकते हैं?
आरओ से फिल्टर होने के बाद पानी अगर सही तापमान यानी फ्रिज में रखा है तो करीब एक हफ्ते तक ठीक रहता है।
पानी साफ होने के बाद आरओ से बर्बाद हुआ पानी पौधों में डाल सकते हैं?
एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में घरों में लगे आरओ से हर दिन काफी पानी बर्बाद हो जाता है। इतने पानी से करीब 20 लाख लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है। चूंकि आरओ पानी से सारी अशुद्धियां निकाल देता है तो बर्बाद हुए पानी में प्रदूषण ज्यादा होता है। अगर इस पानी को पौधों में डालेंगे तो पानी के जरिए प्रदूषण पौधों में भी जाएगा। साथ ही, यह पानी जमीन के अंदर जाने पर जमीन के पानी को भी खराब करेगा। हालांकि, कुछ कंपनियों का यह दावा कि इस पानी को स्टोर करके गार्डनिंग कर सकते हैं। इस बेकार पानी को इस्तेमाल करने का बेस्ट तरीका है कि इसका इस्तेमाल कपड़ा धोने और साफ-सफाई में किया जाए।
कहा जाता है कि आरओ वॉटर से बाल धोने से फायदा होता है। क्या यह सही है?
चूंकि आरओ वॉटर से प्रदूषण फैलाने वाले कण निकल जाते हैं। इसलिए आरओ के पानी से बाल धोने से फायदा हो सकता है।
पानी की टंकी के लिए सबसे बेहतरीन मटीरियल कौन-सा है?
वॉटर टैंक किसी भी मैटिरियल का हो अगर उसमें पानी लगातार निकलता और भरता रहता है तो वह हानिकारक नहीं है। अगर पानी के टैंक में पानी लंबे समय तक जमा रहता है तो मटीरियल से फर्क पड़ सकता है। वैसे फूड ग्रेड प्लास्टिक का पानी टैंक सबसे अच्छा माना जाता है। इससे पानी की क्वॉलिटी खराब नहीं होती। आजकल स्टेनलेस स्टील की भी टंकियां आने लगी हैं। सीमेंट की टंकियों की परंपरा पुरानी है।
क्या स्टेनलेस स्टील का परंपरागत वॉटर फिल्टर शुद्ध पानी देता है?
स्टेनलेस स्टील का परंपरागत वॉटर फिल्टर तभी कामयाब होता है जब पानी में टीडीएस या क्लोराइड या फ्लोराइड या वायरस जैसी हानिकारक अशुद्धियां नहीं हैं। अगर ये अशुद्धियां हैं तो वह पानी शुद्ध नहीं कर पाता।
घर के अंदर पानी सप्लाई के लिए किस तरह की पाइप अच्छी मानी जाती हैं?
फूड ग्रेड प्लास्टिक की पाइपलाइनें सबसे अच्छी मानी जाती हैं। जीआई पाइप में जंग लगने की आशंका होती है।
अगर गर्मी में पानी की टंकी से बहुत गर्म पानी आ रहा है हो तो क्या आरओ को बंद कर देना चाहिए?
अगर पानी की टंकी का पानी 40 से 45 डिग्री सेल्सियस तक गर्म है तो आरओ चलाने में कोई दिक्कत नहीं है। अगर इससे ज्यादा गर्म होता है तो आरओ को बंद कर देना चाहिए।
आजकल में गली-गली में वॉटर प्यूरिफायर यूनिटें लग गई हैं। इनसे गैलन में पानी पैककर मोहल्लों, खासकर बाजारों में बेचा जाता है। क्या उस पानी की क्वॉलिटी स्तरीय होती है?
नहीं, उस पानी की क्वॉलिटी स्तरीय नहीं होती। अगर किसी ने बीआईएस से लाइसेंस लिया हो तो उसका पानी पी सकते हैं।
क्या पानी फूड कैटिगरी में शामिल है?
भारत में पानी फूड कैटिगरी में नहीं है। दुनिया के तमाम देशों में इसे फूड कैटिगरी में रखा गया है। अगर पानी फूड की कैटिगरी में आ जाता है तो उस पर 'प्रीवेंशन ऑफ फूड अडल्ट्रेशन ऐक्ट लागू होगा।' ऐसे में अगर पानी में कोई मिलावट हुई तो यह आपराधिक श्रेणी में आ जाएगा और पानी सप्लाई करने वाली एजेंसी पर केस दर्ज हो जाएगा। भारत में अधिकतर पानी की सप्लाई सरकारी एजेंसियों के पास ही है। अगर इस दायरे में पानी आता है तो लोगों को साफ पानी देने की जिम्मेदारी इन एजेंसियों की हो जाएगी।
क्या कोई प्राइवेट कंपनी भी पानी की जांच करती है? क्या इसके लिए पैसे भी लगते हैं?
अगर पानी गंदा आ रहा है तो इसकी जांच जल बोर्ड की लैबरेटरी से कराई जा सकती है। यह पूरी तरह से फ्री है। प्राइवेट कंपनियों से भी जांच कराई जा सकती है। मिनिस्ट्री ऑफ साइंस के तहत एनएबीएल प्रमाणित लैबरेटरी से पानी की जांच कराई जा सकती है।
एनएबीएल की वेबसाइट www.nabl-india.org पर जाकर, ऊपर लिखे Laboratory Search को क्लिक करने पर Accredited Laboratories का ऑप्शन आता है, इसमें जरूरी जानकारी भरने पर आपको नजदीकी लैब के बारे में पूरी जानकारी मिल जाती है। यहां से पूरे देश की लैबरेटरीज की जानकारी और उनके नंबर लिए जा सकते हैं।
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पानी की बड़ी बोतल कितनी सेफ
कई इलाकों में पानी की सप्लाई कम होने या पानी साफ न होने की वजह से लोग पानी की 20 लीटर की बोतलें खरीदते हैं। फिलहाल 20 लीटर पानी की बोतल 40-70 रुपये में आती है। इस बड़ी प्लास्टिक की बोतल को सप्लायर कई बार इस्तेमाल करते हैं और अक्सर इन्हें ढंग से साफ नहीं किया जाता। हालांकि कुछ बड़ी कंपनियां साफ-सफाई का ख्याल रखती हैं। बोतल की गंदगी के अलावा पानी की क्वॉलिटी पर भी सवाल है। दरअसल, इन बोतलों में आरओ से साफ हुए पानी को भरा जाता है जिस पर डब्ल्यूएचओ सवाल उठा चुका है। यह सच है कि आरओ से पानी के सारे मिनरल्स निकल जाते हैं। इससे लंबे समय में शरीर की इम्यूनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो सकती है।
-दिल्ली, मुंबई या लखनऊ समेत देश के ज्यादातर शहरों में पानी के स्रोत या तो नदियां हैं या फिर ग्राउंड वॉटर। इनके पानी को ही साफ करके वहां की सरकारी एजेंसियां लोगों के घरों में पानी की सप्लाई करती हैं। सरकारी एजेंसी कच्चे पानी को साफ करके पाइपलाइन के जरिए लोगों के घरों में पहुंचाती हैं। हालांकि यहां दिक्कतें पुरानी पाइपलाइनों की वजह से आती हैं या फिर फैरूल से घर तक पानी पहुंचने के दौरान पानी में अशुद्धियां मिलती हैं। अगर कहीं लीकेज होती है तो सप्लाई वाले पानी में सीवर का पानी मिलने की आशंका बढ़ जाती है क्योंकि कई जगह पीने की पाइपलाइनें और सीवर की पाइपलाइनें साथ-साथ गुजरती हैं।
-पानी की पाइपलाइन पर सीधे मोटर लगाने से भी गंदा पानी आ जाता है। कई बार हमें यह पता नहीं होता कि पाइप में सप्लाई आ रही है या नहीं। अगर नहीं आ रही है और हम मोटर चालू कर देते हैं तो मोटर बाहर की गंदगी खींच लेता है।
-सप्लाई वाले पानी में अमूमन सबसे ज्यादा अशुद्धियां फेरूल से आपके घर तक जाने वाले पाइप में मिलती हैं। ऐसे में बेहतर रहेगा कि पानी का कनेक्शन जल बोर्ड के लाइसेंसी प्लंबर से ही कराएं और अगर पानी में गड़बड़ी आ रही है तो सबसे पहले अपनी लाइन की जांच कराएं। जरूरी हो तो पाइपलाइन बदलवा लें। फैरूल वह जॉइंट होता है, जहां पर जल बोर्ड की पाइपलाइन से घरों में पानी का कनेक्शन दिया जाता है। यहां लीकेज होने पर घरों के अंदर गंदा पानी सप्लाई होने लगता है।
पानी में गड़बड़ियां
पानी में दो तरह की अशुद्धियां होती हैं: घुलनशील और अघुलनशील। ये केमिकल और बायलॉजिकल होती हैं। केमिकल अशुद्धियां कई बातों पर निर्भर करती हैं। मसलन, अगर पानी के स्रोत के पास फैक्ट्रियां हैं तो उनकी गंदगी पानी में जाएगी। इसी तरह सेनेटरी लैंडफिल की गंदगी रिसकर जमीन के नीचे के पानी को खराब कर देती है। दिल्ली में गाजीपुर और भलस्वा लैंडफिल के साथ ऐसा ही हुआ है। स्टडी के मुताबिक, इन दोनों सैनिटरी लैंडफिल के 10 किलोमीटर तक के दायरे के अंडरग्राउंड वॉटर की क्वॉलिटी काफी खराब हो चुकी है। अगर खेती में कीटनाशकों का बहुत इस्तेमाल होता है तो ये केमिकल अंडरग्राउंड वॉटर में मिलकर उसे गंदा कर देते हैं।
क्या कहा है NGT ने
एनजीटी के निर्देश पर नैशनल एन्वॉयरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट (Neeri), सेंट्रल पलूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) और IIT-Delhi ने आरओ के इस्तेमाल पर एक रिपोर्ट तैयार कर एनजीटी को सौंपी है। रिपोर्ट के आधार पर एनजीटी ने 28 मई को पर्यावरण मंत्रालय को जारी निर्देश में ये बातें कही हैं:
-देश में 16 करोड़ 30 लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता। यह संख्या पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा है।
-विकसित देशों में भी आरओ का इस्तेमाल कम करने पर जोर दिया जाता है। वहां समंदर के पानी को पीने लायक बनाने के लिए आरओ इस्तेमाल होता है क्योंकि इस पानी में TDS बहुत होता है। वहीं भारत में मौजूद पानी में टीडीएस की मात्रा कम होने के बावजूद आरओ की डिमांड दिन ब दिन बढ़ रही है।
-आरओ सिस्टम बनाने वाली कंपनियों ने पानी को लेकर लोगों में डर का माहौल बना दिया है।
-घरों में सप्लाई होने वाले पानी में अगर TDS 500mg/लीटर से कम है तो RO को बैन कर देना चाहिए।
-लोगों के घरों में जो पानी सप्लाई होता है, उसमें TDS कितना है, यह कैसे पता चले। इसके लिए सरकार को उस पानी के बारे में बिल के जरिए पूरी जानकारी दी जानी चाहिए। बिल पर लिखा रहे कि इस पानी का स्रोत क्या है और उसमें TDS कितना है।
-आरओ सिस्टम से पानी में मौजूद जरूरी मिनरल्स भी पूरी तरह निकल जाते हैं। विदेशों में आरओ के बुरे असर देखे जा रहे हैं। वहां के लोगों में कैल्शियम और मैग्निशियम की कमी होने की शिकायत आने लगी है। इसलिए भारत में आरओ सिस्टम बनाने वाली कंपनियां यह ध्यान रखें कि पानी में कम से कम 150mg/लीटर टीडीएस जरूर मौजूद रहे।
-जिन इलाकों के पानी में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे खतरनाक तत्वों की मौजूदगी है, वहां के लिए भी ऐसी तकनीक लाई जाए जिससे कि इनका स्तर कम हो सके ताकि आरओ की जरूरत वहां भी नहीं पड़े।
-आरओ से पानी साफ होने की प्रक्रिया में अमूमन 80 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है और 20 फीसदी ही पीने लायक मिलता है। आरओ कंपनियों को ऐसी मशीन बनाने के लिए कहा जाए, जिसके द्वारा कम से कम 60 फीसदी पानी पीने लायक बने और 40 फीसदी से ज्यादा पानी बर्बाद न हो। वहीं साफ पानी प्राप्त करने की क्षमता को आगे कम से कम 75 फीसदी तक बढ़ाई जाए।
क्या कहना है RO कंपनियों का
'आरओ पर पाबंदी लगाना समस्या का हल नहीं है। दरअसल, पानी में टीडीएस के साथ-साथ माइक्रोप्लास्टिक, आर्सेनिक, कीटनाशक जैसी दूसरी अशुद्धियां भी होती है, जिन्हें आरओ के जरिए हटाया जाना जरूरी है। जहां तक पानी की बर्बादी की बात है तो हमने ऐसी तकनीक विकसित की है कि 80% की जगह 50% पानी ही बर्बाद होता है। हम और रिसर्च करके इसे घटाने की कोशिश कर रहे हैं। BIS और WHO के मापदंडों में कहीं भी यह नहीं बताया है कि टीडीएस कम से कम कितना हो। फिर भी हम यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारे आरओ में कम से कम 50mg/लीटर टीडीएस पानी निकले। यह पानी स्वाद और सेहत के लिए मुफीद होता है।'
-महेश गुप्ता, चेयरमैन, केंट आरओ
क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
'अगर टीडीएस 100 तक है तो वह ठीक है। हां, किडनी के मरीजों के लिए 50 से 100 के बीच टीडीएस होना चाहिए।'
- डॉ. के. के. अग्रवाल, सीनियर कार्डियॉलजिस्ट
'सेफ वॉटर के लिए अगर बैक्टीरिया, वायरस हटाने हैं तो पानी उबालने से ये सब मर जाते हैं, लेकिन अगर उसमें हेवी मेटल्स हैं तो वे उबालने से नहीं जाएंगे। उसके लिए आरओ की जरूरत होती है।'
- डॉ. एस. के. सरीन, डायरेक्टर, इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बाइलरी साइंसेज
घर में अगर सरकारी पानी आ रहा है तो आरओ लगवाने की कोई जरूरत नहीं है। आरओ का पानी मिनरल-रहित होता है-यह बात सामने आने पर कंपनियां अब कुछ मात्रा में मिनरल मिलाने लगी हैं। पर यह कोई समाधान नहीं है। वे एक फिक्स्ड फॉर्म्युले में मिनरल मिलते हैं, पर यह फॉर्म्युले किसने तय किया है? किस आधार पर तय हुआ है? हर इलाके का जमीन का पानी अलग किस्म का होता है और पानी में करीब 140 किस्म के मिनरल होते हैं। आरओ हर तरह के वायरस का खात्मा नहीं कर पाता। मसलन: सुपरबग वायरस।
- संजय शर्मा, प्रेसिडेंट, Be Enviro Wise
TDS क्या है?
पानी में घुली हुई सभी चीजों को टीडीएस (टोटल डिसॉल्व्ड सॉलिड्स) कहते हैं। इसमें सॉल्ट, कैल्शियम, मैग्निशियम, पोटैशियम, सोडियम, कार्बोनेट्स, क्लोराइड्स आदि आते हैं। ड्रिंकिंग वॉटर को मापने के लिए टीडीएस पीएच और हार्डनेस लेवल देखा जाता है। बीआईएस (ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड) के मुताबिक, मानव शरीर अधिकतम 500 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) टीडीएस सहन कर सकता है। अगर यह लेवल 1000 पीपीएम हो जाता है तो शरीर के लिए नुकसानदेह हैं। लेकिन फिलहाल आरओ से फिल्टर्ड पानी में 18 से 25 पीपीएम टीडीएस मिल रहा है जो काफी कम है। इसे ठीक नहीं माना जा सकता। इससे शरीर में कई तरह के मिनरल नहीं मिल पाते। यहां एक सवाल और है कि हमारे घरों में जो पीने के पानी की सप्लाई सरकारी एजेंसियां करती हैं, उनकी कितनी जांच होती है?
सरकारी एजेंसियां कैसे साफ करती हैं पानी?
एजेंसियों के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में पानी नदी या नहर के जरिए आता है तो सबसे पहले पानी में मौजूद अशुद्धियों की जांच होती है। इसके बाद तय किया जाता है कि उस पानी को किस विधि से साफ किया जाना चाहिए।
1. पानी की जांच करने के बाद उसमें क्लोरीन मिलाई जाती है। उसके बाद फिटकरी, पॉली एल्युमिनियम क्लोराइड मिलाया जाता है, ताकि पानी की गंदगी साफ हो सके।
2. इसके बाद पानी क्लोरीफायर में जाता है, जहां अशुद्धियां और गाद नीचे बैठ जाती हैं। यहां पानी की दो बार टेस्टिंग होती है।
3. क्लेरीफायर से पानी फिल्टर हाउस में जाता है, जहां पानी छाना जाता है। फिर से पानी की जांच होती है। इसके बाद पानी को प्लांट में मौजूद जलाशयों में भेजा जाता है। यहां पर दोबारा से क्लोरीनेशन होता है। पानी साफ करने के बाद जितनी भी बार पानी की जांच होती है, उसमें घुलनशील और अघुलनशील अशुद्धियों की जांच की जाती है। अगर पानी में कोई भी गड़बड़ी पाई जाती है तो पानी की सप्लाई रोक दी जाती है। प्लांट से पानी साफ होने के बाद अंडर ग्राउंड रिजरवॉयरों में जाता है। यहां भी घरों में सप्लाई करने से पहले जांच की जाती है। इसके बाद भी जल बोर्ड लोगों के घरों में भी जाकर पानी के सैंपल जांच के लिए उठाता है। इसलिए आरओ कंपनियों का आरोप गलत है कि जल बोर्ड पानी की जांच सही से नहीं करता।
पीने के पानी के लिए
BIS स्टैंडर्ड
TDS: 0-500 ppm
PH level: 6.5-7.5
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WHO स्टैंडर्ड
- पानी में 300 से कम टीडीएस है तो उसे एक्सेलेंट कैटिगरी का माना जाता है।
- 300 से 600 के बीच की टीडीएस को गुड कैटिगरी में माना जाता है।
- 600 से 900 के बीच के टीडीएस को फेयर कैटिगरी में माना जाता है।
- 1200 से ज्यादा के टीडीएस वाले पानी को खराब कैटिगरी में माना जाता है।
BIS की बात
भारत में पानी की गुणवत्ता बीआईएस-10500 के तहत मापी जाती है। बीआईएस (ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स) ने ड्रिकिंग वॉटर और पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर के मानकों के लिए नियम तय किए हैं। इनके अनुसार पानी में टीडीएस की मात्रा 0 से 500 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) होनी चाहिए। साथ ही पीएच लेवल 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। इससे ज्यादा होने पर यह नुकसानदेह है। बीआईएस के मुताबिक, पानी में कुल 82 तरह की अशुद्धियों की जांच होनी चाहिए। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक पानी में 300 से 400 तरह के केमिकल्स अशुद्धियों के रूप में मौजूद हो सकते हैं। हालांकि भारत में बीआईएस मानक के मुताबिक इनकी संख्या कम बताई गई है।
घर में क्वॉलिटी चेक
मार्केट में पानी का टीडीएस मापने की एक पेन-नुमा मशीन आती है। इसे डिजिटल टीडीएस मीटर कहते हैं। यह मीटर 600 से 1500 रुपये तक की आता है। हालांकि इससे सिर्फ टीडीएस का ही पता चलेगा। दिल्ली जल बोर्ड की लैब में फोन करके भी सैंपल चेक करवा सकते हैं। जल बोर्ड की टीम सैंपल उठाने आएगी और जांच के बाद आपको पूरी रिपोर्ट देगी। ऐसा ही दूसरे शहरों की पानी सप्लाई करने वाली सरकारी एजेंसी करती है।
दिल्ली में पानी की जांच के लिए इन नंबरों पर संपर्क किया जा सकता है:
टोल फ्री: 1916
011-23634469
9650291021
-अगर सरकारी एजेंसी द्वारा पीने के पानी की सप्लाई की जा रही है तो क्या प्योरिफायर की जरूरत है?
अगर सरकारी एजेंसियों की पाइप लाइनें सही हैं। उनमें लीकेज नहीं है और पानी टैंक में स्टोर भी नहीं किया जा रहा यानी पानी सीधे घर तक पहुंच रहा है तो वह पानी पीने के लिए सेफ है। इसके लिए आरओ की जरूरत नहीं है, लेकिन अमूमन ऐसा कम ही होता है। पानी की पाइप्स में लीकेज भी होते हैं और हम उन्हें टंकी में स्टोर भी करते हैं। ऐसे में सेरमिक फिल्टर वाला प्योरिफायर इस्तेमाल करना चाहिए।
-अगर पीने के पानी का सोर्स ग्राउंड वॉटर है, तब कौन-सा प्योरिफायर इस्तेमाल करें?
इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले ग्राउंड वॉटर की जांच कराएं। अगर पानी साफ है तो सिर्फ फिल्ट्रेशन से काम चल जाता है। सच तो यह है कि ज्यादातर जगहों पर ग्राउंड वॉटर साफ है, लेकिन फैक्ट्री या डंप एरिया के करीब के ग्राउंड वॉटर में केमिकल्स मिल जाते हैं। अगर पानी में आर्सेनिक, क्लोराइड या फ्लोराइड की मौजूदगी है, तब आरओ लगाना जरूरी हो जाता है।
क्या आरओ प्यूरीफायर से मिनरल्स वाकई निकल जाते हैं?
आरओ पानी से सूक्ष्म पोषक तत्व भी निकाल देता है। इन तत्वों के निकलते ही पानी की पीएच वैल्यू गिर जाती है यानी पानी फिर ऐसिडिक बन जाता है। पीएच का स्केल 0-14 के बीच होता है। पीएच वेल्यू 7 से नीचे होने पर पानी ऐसिडिक होता है। 7 से ऊपर होने पर पानी अल्केलाइन होता है। हमारा शरीर 97 फीसदी तक अल्केलाइन है। पीने लायक पानी का पीएच वैल्यू 6.5 से 8.5 के बीच होना चाहिए।
मिनरल्स की कमी को दूर करने के लिए क्या आरओ में फिल्टर के दौरान अशुद्ध पानी भी मिलाया जाता है?
पानी साफ करते वक्त आरओ 90 फीसदी तक मिनरल्स निकाल देता है। ऐसे में पानी में मिनरल्स के स्तर को बनाए रखने के लिए अमूमन 10 फीसदी इम्प्योर वॉटर मिला दिया जाता है। इस थोड़े से गंदे पानी से सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा आरओ कंपनियों का दावा है। फिर भी कुछ आरओ कंपनियां गंदे पानी की जगह दूसरे तरीके मिनरल मिला देती हैं।
क्या आरओ का पानी पीना सेहत के लिए हानिकारक है?
हां, पानी में मौजूद हर तरह की चीजों को आरओ निकाल देता है। इसमें केमिकल्स, मिनरल्स, पल्यूटेंट्स और टीडीएस भी शामिल हैं। पानी से मिनरल्स को भी पूरी तरह निकाल देने से लंबे समय तक मिनरल रहित पानी पीना सेहत के लिए समस्या पैदा कर सकता है। एक तरफ कैल्शियम के निकल जाने से हड्डियों में कमजोरी आ सकती है तो मैग्निशियम की कमी से क्रैंप्स हो सकते हैं। हालांकि, इसमें बहुत ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है। कारण यह है कि अब ज्यादातर आरओ कंपनियां अपने आरओ के पानी में मिनरल्स मिलाने लगी हैं।
कौन-सा RO लें?
आरओ के इतने ब्रैंड्स और फीचर्स आने के बाद सबसे ध्यान रखने वाली बात यह है कि जो भी फाइनल करें, वह आपके इलाके के सप्लाई वॉटर के हिसाब से हो। मसलन, अगर मेट्रो सिटी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि वहां का पलूशन लेवल ज्यादा होगा। इसका असर सप्लाई हो रहे पानी पर भी पड़ेगा। ऐसे में प्योरीफायर वही लें जिसमें RO, UV, UF तीनों तकनीक हो। इसके साथ ही चूंकि जरूरी मिनरल्स की शरीर को जरूरत होती है, ऐसे में बाजार में आ चुकी TDS (टोटल डिसॉल्व्ड सॉल्ट) कंट्रोलर तकनीक से लैस प्योरिफायर ही लें, जिससे शरीर में बैलंस बना रहे।
RO (रिवर्स ऑस्मोसिस)
आरओ पानी साफ करने की ऐसी तकनीक है, जिसमें प्रेशर डालकर पानी को साफ किया जाता है। इस तकनीक में पानी में घुली अशुद्धियां, पार्टिकिल्स और मेटल खत्म हो जाते हैं। आरओ का इस्तेमाल उन इलाकों में करना चाहिए जहां पानी में टीडीएस (टोटल डिसॉल्व्ड सॉल्ट) ज्यादा हो यानी पानी खारा हो। मसलन बोरवेल के पानी के लिए या समुद्री इलाकों के लिए आरओ सही है।
खूबियां
- आरओ के पानी में कोई भी अशुद्धि नहीं रहती।
- बैक्टीरिया और वायरस को ब्लॉक कर बाहर करता है।
- क्लोरीन और आर्सेनिक जैसी अशुद्धियों को भी साफ करता है।
कमियां
- बिजली की जरूरत पड़ती है।
- यह नॉर्मल से ज्यादा टैप वॉटर प्रेशर में काम करता है।
- औसतन 20 से 50 फीसदी पानी आरओ के रिजेक्ट सिस्टम से बर्बाद होता है।
- कई आरओ हमारे पीने के पानी से जरूरी मिनरल्स को बाहर कर देते हैं।
UV (अल्ट्रावॉयलेट)
इस तकनीक से पानी में मौजूद बैक्टीरिया और वायरस खत्म होते हैं। यह पानी में घुली क्लोरीन और आर्सेनिक को साफ नहीं कर सकता। इसका इस्तेमाल उन इलाकों में ही होना चाहिए जहां ग्राउंड वॉटर पहले से मीठा हो और सिर्फ बैक्टरिया को खत्म किए जाने की जरूरत हो। मसलन, पहाड़ी और कम प्रदूषण वाले इलाकों के लिए ठीक है। इसे समुद्री इलाकों में या प्रदूषित शहरों में इस्तेमाल करना सही नहीं होगा।
खूबियां
- सभी बैक्टीरिया और वायरस को खत्म कर देता है।
- यह नॉर्मल टैप वॉटर प्रेशर में काम कर सकता है।
अल्ट्रा फिल्ट्रेशन (UF)
यह एक फिजिकल तकनीक है। इसे ग्रैविटी तकनीक भी कहते हैं। इसमें किसी केमिकल का उपयोग किए बिना पानी साफ हो जाता है। इसमें तकनीक अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन तरीका एक ही है और वह यह कि यह ग्रैविटी की वजह से इसमें पानी विभिन्न परतों से होते हुए नीचे पहुंचती है और इस दौरान पानी साफ हो जाता है। कुछ में इसके लिए मेंब्रेन (झिल्ली) का इस्तेमाल होता है तो कुछ में सेरेमिक का जिससे पानी छनकर साफ होकर मिलता है।
खूबियां
- बिजली की जरूरत नहीं।
- बैक्टीरिया और वायरस को मार कर पानी से बाहर करता है।
- नॉर्मल टैप वॉटर प्रेशर में काम कर सकता है।
-किसी केमिकल इस्तेमाल नहीं होता।
-यह सस्ता है।
कमियां
पानी हार्ड हो और क्लोरीन और आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा हो तो इसका कोई फायदा नहीं। यह घुली हुई अशुद्धियों को साफ नहीं कर पाता।
पोर्टेबल प्योरिफायर
यह छोटे आकार का होता है। इसमें अक्सर नैनो टेक्नॉलजी या फिर मेटल बेस्ट प्योरिफिकेशन होता है।
खूबियां
-इसमें बिजली की जरूरत नहीं होती।
-इसे कहीं भी साथ ले जाना आसान है।
-इसे सीधे टैप में लगाकर साफ पानी मिल जाता है।
कमियां
-ज्यादा गंदा पानी के लिए कारगर नहीं।
-हार्ड वॉटर या खारे पानी में काम नहीं करता।
-बैक्टीरिया और वायरस को निकालने की इसकी क्षमता कम होती है।
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पानी साफ करने के परंपरागत तरीके
पानी को उबालना: वैसे तो पानी को साफ और पीने योग्य बनाने के लिए ढेरों तरीके मौजूद हैं, लेकिन सबसे पुराना तरीका है पानी को उबालना। दुनियाभर में इस परंपरागत तरीके को लोग अपनाते हैं। पानी को कम-से-कम 20 मिनट उबालना चाहिए और उसे ऐसे साफ कंटेनर में रखना चाहिए, जिसका मुंह छोटा हो ताकि उसमें गंदगी न जाए। उबले पानी को ढक कर रखें। हालांकि उबालने से पानी साफ तो हो जाता है, लेकिन उसमें मौजूद हेवी मेटल्स नहीं निकल पाते।
कैंडल वॉटर फिल्टर: पानी को साफ करने के लिए दूसरा मुफीद तरीका है कैंडल वॉटर फिल्टर। इसमें समय-समय पर कैंडल बदलने की जरूरत होती है ताकि पानी बेहतर तरीके से साफ हो सके। सिरैमिक से बने कैंडल्स पानी से बैक्टीरिया हटाते हैं। हालांकि यह पानी में घुले हुए केमिकल को निकाल नहीं पाता। इसके कैंडल को 6 महीने या इस्तेमाल के हिसाब से बदलते रहना चाहिए। कैंडल की कीमत करीब 550 रुपये से शुरू होती है। फिल्टर के साइज के साथ-साथ कीमत बढ़ती रहती है।
क्लोरिनेशन: पानी साफ करने के लिए क्लोरिनेशन बहुत पुरानी प्रक्रिया है। पानी को हानिकारक बैक्टीरिया से बचाने के लिए नगरपालिका, अस्पताल, रेलवे आदि की टंकियों में क्लोरीन का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रक्रिया से पानी साफ होने के साथ-साथ उसके रंग और गंध में भी बदलाव आ जाता है। क्लोरिनेशन से बैक्टीरिया मर जाते हैं। हालांकि इसका इस्तेमाल सही मात्रा में किया जाना चाहिए क्योंकि ज्यादा क्लोरीन से पानी के स्वाद के साथ हमारी सेहत पर भी असर पड़ता है। घरों में इसका इस्तेमाल करना हो तो एक्सपर्ट की सलाह लें।
हैलोजन टैब्लेट: इमर्जेंसी या ट्रैकिंग के दौरान पानी साफ करने के लिए हैलोजन टैब्लेट का इस्तेमाल किया जाता है। ये गोलियां पानी में पूरी तरह घुल जाती हैं। बाजार में पोर्टेबल एक्वा वॉटर टैब्लेट्स की 50 टैब्लेट्स लगभग 500 रुपये में आती हैं। इसी तरह एक्वाटैब्स वॉटर प्योरिफिकेशन की 100 टैब्लेट्स लगभग 1100 रुपये में आती हैं।
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सवाल-जवाब
फिल्टर होने के कितने दिनों बाद तक उस पानी पी सकते हैं?
आरओ से फिल्टर होने के बाद पानी अगर सही तापमान यानी फ्रिज में रखा है तो करीब एक हफ्ते तक ठीक रहता है।
पानी साफ होने के बाद आरओ से बर्बाद हुआ पानी पौधों में डाल सकते हैं?
एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में घरों में लगे आरओ से हर दिन काफी पानी बर्बाद हो जाता है। इतने पानी से करीब 20 लाख लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है। चूंकि आरओ पानी से सारी अशुद्धियां निकाल देता है तो बर्बाद हुए पानी में प्रदूषण ज्यादा होता है। अगर इस पानी को पौधों में डालेंगे तो पानी के जरिए प्रदूषण पौधों में भी जाएगा। साथ ही, यह पानी जमीन के अंदर जाने पर जमीन के पानी को भी खराब करेगा। हालांकि, कुछ कंपनियों का यह दावा कि इस पानी को स्टोर करके गार्डनिंग कर सकते हैं। इस बेकार पानी को इस्तेमाल करने का बेस्ट तरीका है कि इसका इस्तेमाल कपड़ा धोने और साफ-सफाई में किया जाए।
कहा जाता है कि आरओ वॉटर से बाल धोने से फायदा होता है। क्या यह सही है?
चूंकि आरओ वॉटर से प्रदूषण फैलाने वाले कण निकल जाते हैं। इसलिए आरओ के पानी से बाल धोने से फायदा हो सकता है।
पानी की टंकी के लिए सबसे बेहतरीन मटीरियल कौन-सा है?
वॉटर टैंक किसी भी मैटिरियल का हो अगर उसमें पानी लगातार निकलता और भरता रहता है तो वह हानिकारक नहीं है। अगर पानी के टैंक में पानी लंबे समय तक जमा रहता है तो मटीरियल से फर्क पड़ सकता है। वैसे फूड ग्रेड प्लास्टिक का पानी टैंक सबसे अच्छा माना जाता है। इससे पानी की क्वॉलिटी खराब नहीं होती। आजकल स्टेनलेस स्टील की भी टंकियां आने लगी हैं। सीमेंट की टंकियों की परंपरा पुरानी है।
क्या स्टेनलेस स्टील का परंपरागत वॉटर फिल्टर शुद्ध पानी देता है?
स्टेनलेस स्टील का परंपरागत वॉटर फिल्टर तभी कामयाब होता है जब पानी में टीडीएस या क्लोराइड या फ्लोराइड या वायरस जैसी हानिकारक अशुद्धियां नहीं हैं। अगर ये अशुद्धियां हैं तो वह पानी शुद्ध नहीं कर पाता।
घर के अंदर पानी सप्लाई के लिए किस तरह की पाइप अच्छी मानी जाती हैं?
फूड ग्रेड प्लास्टिक की पाइपलाइनें सबसे अच्छी मानी जाती हैं। जीआई पाइप में जंग लगने की आशंका होती है।
अगर गर्मी में पानी की टंकी से बहुत गर्म पानी आ रहा है हो तो क्या आरओ को बंद कर देना चाहिए?
अगर पानी की टंकी का पानी 40 से 45 डिग्री सेल्सियस तक गर्म है तो आरओ चलाने में कोई दिक्कत नहीं है। अगर इससे ज्यादा गर्म होता है तो आरओ को बंद कर देना चाहिए।
आजकल में गली-गली में वॉटर प्यूरिफायर यूनिटें लग गई हैं। इनसे गैलन में पानी पैककर मोहल्लों, खासकर बाजारों में बेचा जाता है। क्या उस पानी की क्वॉलिटी स्तरीय होती है?
नहीं, उस पानी की क्वॉलिटी स्तरीय नहीं होती। अगर किसी ने बीआईएस से लाइसेंस लिया हो तो उसका पानी पी सकते हैं।
क्या पानी फूड कैटिगरी में शामिल है?
भारत में पानी फूड कैटिगरी में नहीं है। दुनिया के तमाम देशों में इसे फूड कैटिगरी में रखा गया है। अगर पानी फूड की कैटिगरी में आ जाता है तो उस पर 'प्रीवेंशन ऑफ फूड अडल्ट्रेशन ऐक्ट लागू होगा।' ऐसे में अगर पानी में कोई मिलावट हुई तो यह आपराधिक श्रेणी में आ जाएगा और पानी सप्लाई करने वाली एजेंसी पर केस दर्ज हो जाएगा। भारत में अधिकतर पानी की सप्लाई सरकारी एजेंसियों के पास ही है। अगर इस दायरे में पानी आता है तो लोगों को साफ पानी देने की जिम्मेदारी इन एजेंसियों की हो जाएगी।
क्या कोई प्राइवेट कंपनी भी पानी की जांच करती है? क्या इसके लिए पैसे भी लगते हैं?
अगर पानी गंदा आ रहा है तो इसकी जांच जल बोर्ड की लैबरेटरी से कराई जा सकती है। यह पूरी तरह से फ्री है। प्राइवेट कंपनियों से भी जांच कराई जा सकती है। मिनिस्ट्री ऑफ साइंस के तहत एनएबीएल प्रमाणित लैबरेटरी से पानी की जांच कराई जा सकती है।
एनएबीएल की वेबसाइट www.nabl-india.org पर जाकर, ऊपर लिखे Laboratory Search को क्लिक करने पर Accredited Laboratories का ऑप्शन आता है, इसमें जरूरी जानकारी भरने पर आपको नजदीकी लैब के बारे में पूरी जानकारी मिल जाती है। यहां से पूरे देश की लैबरेटरीज की जानकारी और उनके नंबर लिए जा सकते हैं।
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पानी की बड़ी बोतल कितनी सेफ
कई इलाकों में पानी की सप्लाई कम होने या पानी साफ न होने की वजह से लोग पानी की 20 लीटर की बोतलें खरीदते हैं। फिलहाल 20 लीटर पानी की बोतल 40-70 रुपये में आती है। इस बड़ी प्लास्टिक की बोतल को सप्लायर कई बार इस्तेमाल करते हैं और अक्सर इन्हें ढंग से साफ नहीं किया जाता। हालांकि कुछ बड़ी कंपनियां साफ-सफाई का ख्याल रखती हैं। बोतल की गंदगी के अलावा पानी की क्वॉलिटी पर भी सवाल है। दरअसल, इन बोतलों में आरओ से साफ हुए पानी को भरा जाता है जिस पर डब्ल्यूएचओ सवाल उठा चुका है। यह सच है कि आरओ से पानी के सारे मिनरल्स निकल जाते हैं। इससे लंबे समय में शरीर की इम्यूनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो सकती है।
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मौसमी फल खाने से पहले जान लें ये जरूरी बातें
जब भी हम फल खाते हैं तो उसके फल की चिंता भी साथ में हो जाती है। फल यानी उसे खाने का शरीर पर कोई उलटा असर तो नहीं होगा? ऐसे ही सवालों और चिंताओं के बारे में हमने कई एक्सपर्ट से बात की। नतीजा आया कि अगर हम कुछ एहतियात बरतें तो फल खाने पर फल की चिंता करने की जरूरत नहीं रहेगी। इन्हीं एहतियातों के बारे में जानकारी दे रहे हैं,
राजेश भारती :-
एक्सपर्ट पैनल
1. डॉ. आर. आर. शर्मा
चीफ साइंटिस्ट
पूसा इंस्टिट्यूट
2. डॉ. अशोक झिंगन
डायबीटीज एक्सपर्ट
3. स्कंद शुक्ल
सीनियर फिजिशन
4. इशी खोसला
न्यूट्रिशनिस्ट ऐंड डाइट एक्सपर्ट
5. नीलांजना सिंह
सीनियर डाइटिशन
6. एस. सी. शुक्ला
आम उत्पादक, लखनऊ
7. संजय वत्नानी
प्रमुख आम व्यापारी
8. राम गोपाल मिश्रा
प्रमुख फल व्यापारी
तरबूज के लिए मई-जून है आदर्श मौसम
तरबूज के लिए हर साल मई-जून का मौसम आदर्श माना जाता है। जिला बुलंदशहर में तरबूज और खरबूजा के उत्पादक किसान सुरेंद्र पाल सिंह के मुताबिक ज्यादा गर्मी वाला मौसम तरबूज और खरबूजा के लिए अच्छा माना जाता है, क्योंकि अधिक गर्मी से इनमें मीठापन ज्यादा आता है। यह जुलाई तक मार्केट में रहते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी मिठास कम हो जाती है और फिर इनका पीक सीजन भी खत्म हो जाता है।
तरबूज के भी हैं कई रूप
मार्केट में आपको कई प्रकार के तरबूज मिल जाएंगे। ये आपको बाहर से हरे और अंदर से लाल नजर आएंगे। वहीं अब ऐसे भी तरबूज आ रहे हैं जो अंदर से पीले निकलते हैं। तरबूज की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं:
माधुरी: यह तरबूज आकार में लंबा होता है। इसमें बाहर की ओर हरे रंग की धारियां होती हैं। यह तरबूज खाने में काफी मीठा होता है। इसकी अधिकतर खेती नदी के किनारे रेतीले स्थान पर होती है। यह तरबूज अब मार्केट में कम ही दिखाई देता है। इस वैरायटी का एक तरबूज 6 से 15 किलो का होता है। इसकी कीमत करीब 20 रुपये प्रति किलो है।
शुगर बेबी: यह भी गोलाकार और बाहर से गहरे हरे रंग का होता है। इसका आकार दूसरे तरबूजों की अपेक्षा छोटा और खाने में काफी मीठा होता है। इसी कारण इसे शुगर बेबी कहते हैं। आजकल मार्केट में ये तरबूज ही अधिक हैं। एक तरबूज का वजन 1.5 किलो से 4 किलो तक का होता है। यह थोक मार्केट में 4 से 7 रुपये प्रति किलो और रिटेल में 10 से 50 रुपये किलो तक मिल जाता है।
अनमोल: यह तरबूज बाहर से हरा, लेकिन अंदर से हल्के पीले रंग का होता है। इसका स्वाद शहद जैसा मीठा होता है। यह मार्केट में 15 से 20 रुपये प्रति किलो की दर से मिल जाता है। हालांकि दिल्ली-एनसीआर में यह कम बेचा जाता है।
ऐसे करें सही तरबूज की पहचान
तरबूज को उठाकर चारों ओर से देखें। अगर उसमें कोई निशान या कहीं से गला नजर आए तो न खरीदें। हो सकता है कि दुकानदार उस तरबूज को बेचने के लिए कुछ बहाने लगाए, लेकिन उसकी एक न सुनें।
अगर तरबूज के एक हिस्से पर गहरे पीले रंग का बड़ा धब्बा है तो वह प्राकृतिक रूप से पका हुआ होता है।
तरबूज को हथेलियों के बीच रखें और फिर धीरे-धीरे दबाकर देखें। अगर तरबूज टाइट है और दबने पर चुर्र की आवाज करता है तो समझ लें कि वह पका हुआ है।
तरबूज को हाथ से बजाकर देखें। अगर भारी और किसी धातु के बजने जैसी आवाज (टन-टन) आए तो समझिए कि वह पका हुआ है। वहीं अगर थप-थप या डब-डब की आवाज आए तो वह ज्यादा पका हुआ होता है। ऐसे तरबूज को न खरीदें।
तरबूज को उठाकर देखें। अगर वह वजन में हलका है तो उसे खरीदने से बचें। चूंकि तरबूज में पानी होता है, इसलिए उसका वजन आकार की अपेक्षा भारी होना चाहिए।
बारिश होने के बाद तरबूज में से मिठास कम हो जाती है। ऐसे में बारिश के बाद तरबूज/खरबूजा ध्यान से खाएं।
सेहत ये भरपूर तरबूज
भरपूर पानी
92% पानी
8% शुगर और कार्ब्स
न्यूट्रिशन भी कम नहीं
विटामिन: A, B, B1, B6, C, D आदि
मिनरल: आयरन, कैल्शियम, कॉपर, बायोटिन, पोटेशियम और मैग्नेशियम।
एसिड: पैंटोथेनिक और अमीनो एसिड।
फैक्ट (100 ग्राम तरबूज में)
कैलरी: 30
पानी: 92%
प्रोटीन: 0.6 ग्राम
कार्ब्स: 7.6 ग्राम
शुगर: 6.2 ग्राम
फाइबर: 0.4 ग्राम
फैट: 0.2 ग्राम
गर्मी में आती है खरबूजा में मिठास
खरबूजा के लिए भी अधिक गर्मी का मौसम आदर्श माना जाता है। जितनी ज्यादा गर्मी पड़ती है, बेल पर लगे खरबूजा उतने ही मीठे होते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी भी मिठास कम हो जाती है और धीरे-धीरे पीक सीजन खत्म हो जाता है।
खरबूजा एक रंग अनेक
वैसे तो मार्केट में कई किस्म के खरबूजा मौजूद हैं, लेकिन कुछ प्रमुख वैराइटी इस प्रकार हैं : -
नामधारी: यह खरबूजा मुख्यत: पंजाब से आता है। यह मई-जून तक मार्केट में मिलता है। इसका छिलका सफेद सा और खुरदरा होता है। वहीं यह अंदर से संतरी रंग का और काफी मीठा होता है।
कीमत
थोक मार्केट: 7 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 20 रुपये प्रति किलो
लाल परी: यह खरबूजा मुख्यत: राजस्थान और यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई-जून तक रहता है। यह बाहर से दिखने में ईंट जैसा गहरा लाल होता है। वहीं इसमें बीच-बीच में पीली और हरी धारियां होती हैं।
कीमत
थोक मार्केट: 15-17 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 40-20 रुपये प्रति किलो
मधुरस: यह खरबूजा मुख्यत: यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई से जून तक रहता है। इसका ऊपरी हिस्सा चिकना और हरे-सफेद रंग का होता है। साथ ही इसमें इसमें बीच-बीच में हरे रंग की धारियां होती हैं।
कीमत
थोक मार्केट: 15-20 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 40-50 रुपये प्रति किलो
लखनऊ पट्टी: इस खरबूजा की पैदावार लखनऊ में ही होती है। इसकी कारण यह लखनऊ में काफी मिलता है। हालांकि दिल्ली में भी यह खरबूजाा मिल जाता है, लेकिन कम मात्रा में। इसका सीजन भी मई-जून का होता है।
कीमत
थोक मार्केट: 15-17 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 20-25 रुपये प्रति किलो
ऐसे करें सही खरबूजा की पहचान
खरबूजा को उठाकर हर तरफ से चेक करें। अगर कहीं से गला दिखाई दे तो उसे न खरीदें।
अगर खरबूजा दबाने पर मुलायम लग रहा है तो उसे खरीदने से बचें। हो सकता है कि दुकानदार आपको ऐसे खरबूजा को अधिक पका या कुछ और बहाना लगाकर बेचने की कोशिश करे, लेकिन दुकानदार को ना कह दें।
खरबूजा को सूंघकर देखें। उसमें से मीठी-मीठी खुशबू आए तो वह पका हुआ और मीठा होता है।
सेहत से भरपूर खरबूज
भरपूर पानी
90% पानी
10% शुगर और कार्ब्स
न्यूट्रिशन भी कम नहीं
विटामिन: A, B1, B3, B6, C, K आदि
मिनरल: आयरन, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस, जिंक, कॉपर।
एसिड: पैंटोथेनिक, फैटी और अमीनो एसिड।
फैक्ट (150 ग्राम तरबूज में)
कैलरी: 53
पानी: 90%
प्रोटीन: 0.9 ग्राम
कार्ब्स: 12.8 ग्राम
शुगर: 12 ग्राम
फाइबर: 1.9 ग्राम
फैट: 0.3 ग्राम
पेस्टिसाइड का होता है प्रयोग
तरबूज और खरबूजा के बीच की बुवाई के समय काफी जगह खतरनाक पेस्टिसाइड का प्रयोग किया जाता है। यही नहीं, तरबूज और खरबूजा की बेल की ग्रोथ के लिए काफी जगह ड्रॉप सिंचाई का प्रयोग करते हैं, लेकिन इसके लिए पेस्टिसाइड मिले पानी का प्रयोग होता है। जब तरबूज और खरबूजा बड़ा होता है तो पेस्टिसाइड का काफी हिस्सा इनमें चला जाता है और ऐसे तरबूज/खरबूजा खाने से सेहत पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
दावा और सचाई
दावा किया जाता है कि तरबूज और खरबूजा में उनका आकार बढ़ाने, मीठापन लाने और पकाने के लिए इंजेक्शन के जरिए कुछ दवा का प्रयोग किया जाता है। इन दावों के बीच हमने भी तरबूज और खरबूजा को लेकर एक एक्सपेरिमेंट किया। हमने दोनों फलों में इंजेक्शन की एक खाली निडल डाली और करीब 10 सेकेंड बाद निकाल ली। इसके बाद हमने दोनों फलों को कमरे के सामान्य तापमान पर तीन दिन के लिए छोड़ दिया। तीन दिन बाद जब हमने दोनों फलों को देखा तो उनकी स्थिति बुरी थी। खरबूजा का न केवल रंग बदल गया था, बल्कि वह बहुत ज्यादा सॉफ्ट हो गया था। जब उसे काटा गया, तो अंदर से भी खराब निकला। वहीं तरबूज के जिस जगह निडल डाली गई थी, वह हिस्सा अंदर से गल गया था। तरबूज का बाकी हिस्सा भी खाने लायक नहीं बचा था। इससे पता चलता है कि अगर इन फलों में किसी भी प्रकार का इंजेक्शन लगाया जाता है, तो वह दो-तीन दिन में ही खराब हो जाएगा। तरबूज/खरबूजा में इंजेक्शन के बारे में हमने पूसा के वैज्ञानिकों, उत्पादकों और थोक विक्रेताओं से इस बारे में पूछा तो उन्होंने इनकी पुष्टि नहीं की। इसलिए हम भी यह दावा नहीं करते कि तरबूज या खरबूजा में इस तरह की मिलावटें की जाती हैं, लेकिन इन्हें खरीदते समय सावधानी जरूर बरतें।
कब और कितना खाएं
तरबूज रोजाना 300 से 400 ग्राम और खरबूजा 150 से 200 ग्राम खाना काफी रहता है। इन्हें खाने का कोई निश्चित समय नहीं है। खाना खाने से पहले या खाना खाने के बाद। अगर तरबूज-खरबूजा को मिक्स करके भी खाएं तो भी कोई परेशानी नहीं है। आम धारणा है कि तरबूज में नमक (काला या सफेद) मिलाकर खाना चाहिए। दरअसल, चुटकी भर नमक मिलाने से इन फलों में कुछ एक्स्ट्रा मिनरल जुड़ जाते हैं, जो हमारे शरीर के लिए अच्छे रहते हैं। हालांकि तरबूज में नमक मिलाकर उन्हीं लोगों को खाना चाहिए जिनका अधिक पसीना निकलता है।
कैसे और कहां रखें तरबूज/खरबूजा
सबसे पहले तो तरबूज और खरबूजा उतने ही खरीदें, जितने आप एक बार में खा सकें। अगर किसी कारण से तरबूज/खरबूजा बच गए हैं तो उन्हें कटा हुआ या टुकड़ों में काटकर न छोड़ें। अगर मजबूरी में कटा हुआ छोड़ना पड़े तो उन्हें एयरटाइट ढक्कन वाले कंटेनर या पॉलीथीन से ढककर फ्रिज में रख दें। यहां ध्यान रहे कि कटे हुए तरबूज/खरबूजा को दो घंटे से ज्यादा समय तक फ्रीज में न रखें। काटकर ठंडा करने के लिए फ्रिज में रखने से बेहतर है कि जब खाना हो, साबुत ही दो घंटे पहले फ्रिज में रख दें। अगर तरबूज/खरबूजा कटे हुए नहीं हैं तो उन्हें फ्रिज में रखने के बजाय सामान्य तापमान पर ही घर में छांव में रखें।
तरबूज को बिना काटे गर्मी के मौसम में घर पर छांव में 5 से 7 दिन तक रखा जा सकता है।
खरबूजा को बिना काटे गर्मी के मौसम में दो दिन तक घर में रख सकते हैं। ध्यान रखें कि इस दौरान खरबूजा छांव और ठंडी जगह पर रखा हो।
डायबीटीज और किडनी के मरीज ध्यान दें...
डायबीटीज के हर मरीज को कोई भी फल खाने में परेशानी नहीं है। हर फल का ग्लाइसेमिक इंडेक्स (Glycemic Index) होता है। जिन फलों का GI 40 से 90 के बीच होता है, उन फलों की 100 ग्राम मात्रा डायबीटीज के मरीज रोजाना खा सकते हैं। हालांकि इस दौरान उन्हें वह चीज कुछ कम खानी होगी जिनमें शुगर होता है। यहां तरबूज का GI 72 और खरबूजा का GI 65 है। ऐसे में इन दोनों फलों को 100 ग्राम तक डायबीटीज के मरीज खा सकते हैं। वहीं किडनी के मरीजों को तरबूज या खरबूजा खाने को लेकर मिली-जुली प्रक्रिया है। चूंकि दोनों फलों में पोटेशियम होता है। ऐसे में किडनी के मरीज इन दोनों फलों को डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।
आम पर भी दें ध्यान
आम का सीजन शुरू हो चुका है। मार्केट में कई वैरायटी के आम आ भी चुके हैं। लेकिन अभी डाल के पके आम मार्केट में काफी कम मात्रा में आ रहे हैं। दरअसल, इन आमों को कच्चा ही पेड़ से तोड़ लिया जाता है और आर्टिफिशल तरीके से पकाया जाता है। अगर ये आम सही तरीके से पकाए नहीं गए हैं, तो इन्हें खाने से सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है।
आम का असली सीजन अब हुआ है शुरू
हो सकता है कि आपको मार्केट में आम कुछ समय पहले से ही दिखाई देने लगे हों, लेकिन इसका असली सीजन अब शुरू हुआ है। चाहे सफेदा आम हो या दशहरी या लंगड़ा या चौसा, ये सभी आम जून के आखिरी महीने से मार्केट में आने शुरू होंगे जो जुलाई-अगस्त तक रहेंगे। इनमें दशहरी और चौसा आम मुख्यत: यूपी से आना शुरू होगा।
डाल का पका आम होता है बेस्ट
पका हुआ बेस्ट आम डाल का ही माना जाता है। यह आम न केवल सेहत के लिए अच्छे होते हैं, बल्कि काफी मीठे भी होते हैं। ये आम पकने पर अपने-आप डाल से टूटकर गिर जाते हैं। हालांकि इस तरह के पके हुए आम मार्केट में काफी कम मिलते हैं, क्योंकि पेड़ पर इन्हें पकने में कुछ समय लगता है।
कच्चे आमों को घर पर ऐसे पकाएं
कच्चे आमों को घर पर कई तरह से पकाया जा सकता है। इन्हें पकाने के लिए सबसे पहले कच्चे आम पूरी तरह परिपक्व होने चाहिए। यानी वे आकार में बड़े हों और दबाने पर कड़े हों। घर पर कच्चे आमों को इस तरह पका सकते हैं:
देसी तरीका: कच्चे आमों को टिश्यू पेपर या अखबार में लपेटकर 3-4 दिन के लिए किसी ऐसी जगह रख दें जो घर के बाकी हिस्सों की अपेक्षा कुछ गर्म हो। यहां ध्यान रहे कि आम रखने की जगह पर अंधेरा भी होना चाहिए। 3-4 दिन पर आम को थोड़ा दबाकर देंगे। अगर वह दब जाए तो समझ लें कि आम पक गया है।
इथरेल दवा से: इस दवा को पानी में मिलाकर उनमें कच्चे आमों को डुबोया जाता है। करीब पांच मिनट बाद आमों को निकालकर अलग किसी बड़े बर्तन में रख देते हैं। इसके बाद उन आमों को ऐसे ही करीब रातभर छोड़ दिया जाता है। सुबह आम पके हुए मिलते हैं। इस तरह से पके आमों को खाने से सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। इथरेल की 100 ml की शीशी करीब 250 रुपये में आती है।
इन बातों का रखें ध्यान
इथरेल दवा और पानी का घोल इतना होना चाहिए कि आम उसमें डूब जाएं।
इथरेल दवा की 500 ml मात्रा के लीटर पानी के लिए काफी होती है। इसलिए दवा और पानी का रेश्यो इसी अनुपात में रहे। अगर आपके पास एक किलो कच्चे आम हैं और आपको लगता है कि ये दो लीटर पानी में पूरी तरह डूब जाएंगे तो दो लीटर पानी में इथरेल दवा की 1000 ml मात्रा मिलाएं।
3. पुड़िया (Ethylene Ripener)
यह मार्केट में पुड़िया के रूप में आती है। इसमें एक केमिकल पाउडर के रूप में होता है। इसे पानी से भिगोकर कच्चे आमों के बीच में रख दिया जाता है और फिर करीब 20 घंटे के लिए आमों को छोड़ दिया जाता है। इस दौरान ध्यान रहे कि आम पूरी तरह से किसी पुराने अखबार से ढके हों और एसी के संपर्क में न हों। इससे निकलने वाली गैस से आम पूरी तरह पक जाते हैं। इस तरीके से पके आम सेहत के लिए हानिकारक नहीं होते।
कमर्शल रूप से ऐसे पकाए जाते हैं आम
एथिलीन गैस का प्रयोग: कदर डेयरी के सफल प्लांट में आम पकाने के लिए एथिलीन राइपनिंग चैंबर का प्रयोग किया जाता है। इस दौरान कच्चे आमों को एक चैंबर में रखा जाता है। इस चैंबर का तापमान 20 से 22 डिग्री सेल्सियस रखा जाता है और इसमें ऐथिलीन गैस का इस्तेमाल किया जाता है। इस गैस के कारण आम रातभर में ही पक जाते हैं। इस तरह से पके आम सेहत के लिए नुकसानदायक नहीं होते।
कैल्शियम कार्बाइड: आमों को पेड़ से कच्चा तोड़ने के बाद उन्हें कैल्शियम कार्बाइड से भी पकाया जाता है। आम पकाने का यह तरीका सेहत के लिए काफी खतरनाक होता है। कैल्शियम कार्बाइड से आर्सेनिक जैसी घातक गैसें निकलती हैं। इस तरीके में कैल्शियम कार्बाइड को एक छोटी पुड़िया में रखकर उसे आमों के बीच में रख देते हैं। इसके बाद इन आमों को करीब 24 घंटे के लिए अंधेरी और सामान्य तापमान वाली जगह रख दिया जाता है। 24 घंटे बाद आम पक जाते हैं। बाद में इस पुड़िया को फेंक दिया जाता है और आमों को मार्केट में बेचने के लिए भेज दिया जाता है।
ऐसे करें पके आम की पहचान
आम के ऊपर सफेद धब्बे या पाउडर जैसा कुछ न हो।
पका हुआ आम पूरी तरह से मैच्योर नजर आएगा।
आम के डाल वाले और उसके निचले हिस्से को थोड़ा दबाकर देखें। अगर ऊपर का हिस्सा सॉफ्ट और निचला हिस्सा ज्यादा टाइट तो इसका मतलब कि उसे सही तरह से पकाया नहीं गया है।
सही तरह से पके आम का रंग एक जैसा और थोड़ा सुनहरा होता है।
अच्छी तरह से पका आम थोड़ा सॉफ्ट होता है। अधपका आम कहीं से सॉफ्ट और कहीं से ठोस होगा जबकि कच्चा आम पूरा ही ठोस होगा।
ऐसे खाएं आम
आमों को नमक मिले गुनगुने पानी में एक-दो घंटे के लिए छोड़ दें।
अब आम को साथ से रगड़े और फिर से साफ पानी से धो लें। इसके बाद साफ आम को कपड़े से पौछ लें।
इसके बाद आम का डंठल वाला हिस्सा हल्का-सा काट कर कुछ बूदें रस निकाल दें और आम को खा लें।
कई बार लोग आम को छिलके समेत काट लेते हैं और फिर उसे खाते हैं। कई बार खाने का तरीका ऐसा होता है कि आम का छिलका भी मुंह में आ जाता है। इससे बचें, क्योंकि अक्सर आमों पर खतरनाक पेस्टिसाइड का छिड़काव होता है।
डायबीटीज और किडनी के मरीज ध्यान दें
आम में तरबूज और खरबूजा की अपेक्षा अधिक शुगर होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि डायबीटीज के मरीज आम नहीं खा सकते। आम का ग्लाइसेमिक इंडेक्स (GI) 51 से 55 के बीच होता है। ऐसे में डायबीटीज वाला मरीज एक दिन में 50 से 60 ग्राम आम खा सकता है। हालांकि मरीज को इस दौरान ऐसी दूसरी चीजें खाने की मात्रा कम करनी पड़ेगी। आम में भी पोटेशियम होता है। ऐसे में किडनी के मरीज डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।
एक दिन में इतने खाएं आम
आम खाना काफी हद तक आपके रुटीन पर निर्भर करता है। अगर मान लें कि एक आम का वजन 300 से 400 ग्राम है और अगर आप बहुत ऐक्टिव नहीं हैं और एक्सरसाइज नहीं करते हैं तो दिन भर में 2 से ज्यादा आम न खाएं। अगर आप ज्यादा आम खाना चाहते हैं तो बाकी चीजें जैसे कि कार्बोहइड्रेट (रोटी, चावल, मैदा, बेसन आदि) कम कर दें। वैसे, अगर कोई बीमारी नहीं है, वजन भी ज्यादा नहीं है और कसरत भी करते हैं तो दिन भर में 3-4 आम तक खा सकते हैं। इससे ज्यादा आम खाना सही नहीं है।
आम को बनाएं खास
सवाल: घर पर आम कितने दिनों तक खाने लायक रहते हैं?
जवाब: आम को घर में बिना फ्रिज के तीन दिन तक रख सकते हैं। वहीं फ्रिज में आम को 10 दिन तक रखा जा सकता है।
सवाल: आम को खाने का सही समय कौन-सा है?
जवाब: आम को किसी भी समय खाया जा सकता है। साथ ही आम को खाली पेट या खाने के बाद कैसे भी खा सकते हैं। हालांकि बेहतर समय रात का माना जाता है। रात को आम खाकर बिना चीनी के एक गिलास गुनगुना दूध पीना सेहत के लिए काफी लाभदायक माना गया है।
सवाल: आम खाने के क्या फायदे हैं?
जवाब: आम में विटामिन, बीटा कैरोटीन और फाइबर होते हैं। इससे हमारा इम्युनिटी सिस्टम ठीक बना रहता है। विटामिन ए की भरपूर मात्रा होने के कारण यह हमारी आंखों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। साथ ही इसे खाने से तुरंत एनर्जी मिलती है।
सवाल: आम खाने से फुंसियां हो जाती हैं। फुंसियां न हों, इसके लिए क्या करें?
जवाब: आम गर्मी के कारण पकता है। ऐसे में हो सकता है कि आम खाने से उसकी गर्मी के कारण कुछ लोगों को फुंसियां हो जाती हों। कई बार कुछ लोगों को आम से एलर्जी भी होती है। इनसे बचने के लिए आम को धोकर उसके ऊपरी हिस्से को पहले ही थोड़ा ज्यादा काट दें, जिससे कि ऊपर का जो अम्ल होगा, वह निकल जाएगा क्योंकि उससे भी कई बार फोड़े-फुंसी होने की संभावना होती है। अगर फिर भी फुंसियां होती हैं तो डॉक्टर से संपर्क करें।
लीची खाएं, लेकिन ध्यान से
बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार यानी एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एसईएस) से करीब 72 बच्चों की मौत हो गई है। वहीं इसकी वजह से 200 बच्चे बीमार हो गए हैं।
70 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है। वहीं इसकी चपेट में 200 से ज्यादा बच्चे आ गए हैं। इन मौतों की वजह हाइपोग्लाइसीमिया और अन्य अज्ञात बीमारी है। कुछ रिपोर्ट में इन मौतों की वजह को लीची भी बताया गया है। रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि लीची में पाए जाने वाले एक जहरीले तत्व की वजह से यह मौतें हो रही हैं। अगर आप खुद या बच्चे को लीची खिला रहे हैं तो इन बातों का ध्यान रखें:
कुपोषित बच्चों को लीची न खाने दें
चमकी बुखार का असर 10 साल तक के कुपोषित बच्चों पर ही पड़ रहा है। एक्सपर्ट के मुताबिक इन बच्चों को ठीक ढंग से खाना और जरूरी पोषक तत्व नहीं मिल पाता है। इस कारण इन बच्चों के शरीर की इम्युनिटी कम होती है। सुबह को ये बच्चे खाली पेट ही लीची को बिना ढंग से साफ किए खा लेते हैं। इसके बाद बच्चों के शरीर में शुगर का लेवल गिरना शुरू हो जाता है और बच्चा बीमार पड़ जाता है।
कुपोषित बच्चों की पहचान
बच्चा पतला-दुबला होता है और उसकी हड्डियां दिखाई देती रहती हैं।
बच्चे का शरीर पतला और पेट बाहर की ओर निकला रहता है।
बच्चे के बाल कुछ सुनहरी हो जाते हैं।
बच्चा शारीरिक रूप से ऐक्टिव नहीं होता है और अधिकतर समय एक ही जगह बैठा-बैठा रोता रहता है।
उम्र के अनुसार बच्चे की लंबाई और वजन का अनुपात सही नहीं होता है।
घाव भरने में अधिक समय लगता है।
बच्चे को सांस लेने में परेशानी होती है और वह चिड़चिड़ा रहता है।
अधपकी या कच्ची लीची न खाएं
लीची कभी भी अधपकी या कच्ची और खाली पेट नहीं खानी चाहिए। पकी और बिना कीड़े वाली लीची को पहले छील लें। अब उसके खाने वाले हिस्से (गूदा) को उसकी गुठली से अलग कर लें। गूदा को भी गौर से देखें कि कहीं उसमें भी कीड़े तो नहीं हैं। अगर गूदा में कीड़े नहीं हैं तो उसे किसी बर्तन में इकट्ठे कर लें। इकट्ठे उतने ही करें जितना आप खा सकें। इसके बाद गूदा को फिर से साफ पीने वाले पानी से दो बार धोएं। अब इस गूदे को खा सकते हैं। यह तरीका आपको लंबा जरूर लग सकता है, लेकिन सेहत के लिए जरूरी है।
कीड़ों का रखें ध्यान
इस फल में कीड़े मिलने की भी आशंका ज्यादा होती है। लीची का वह हिस्सा जो डंठल से लगा होता है, वहां कीड़े अधिक मिलते हैं। इन कीड़ों का रंग लीची के रंग जैसा होता है, इसलिए ये कई बार दिखाई भी नहीं देते। लीची खाते समय कीड़ों का ध्यान रखें। अगर कीड़े दिखाई दें तो उस लीची को फेंक दें।
एक्सपर्ट पैनल
1. डॉ. आर. आर. शर्मा
चीफ साइंटिस्ट
पूसा इंस्टिट्यूट
2. डॉ. अशोक झिंगन
डायबीटीज एक्सपर्ट
3. स्कंद शुक्ल
सीनियर फिजिशन
4. इशी खोसला
न्यूट्रिशनिस्ट ऐंड डाइट एक्सपर्ट
5. नीलांजना सिंह
सीनियर डाइटिशन
6. एस. सी. शुक्ला
आम उत्पादक, लखनऊ
7. संजय वत्नानी
प्रमुख आम व्यापारी
8. राम गोपाल मिश्रा
प्रमुख फल व्यापारी
तरबूज के लिए मई-जून है आदर्श मौसम
तरबूज के लिए हर साल मई-जून का मौसम आदर्श माना जाता है। जिला बुलंदशहर में तरबूज और खरबूजा के उत्पादक किसान सुरेंद्र पाल सिंह के मुताबिक ज्यादा गर्मी वाला मौसम तरबूज और खरबूजा के लिए अच्छा माना जाता है, क्योंकि अधिक गर्मी से इनमें मीठापन ज्यादा आता है। यह जुलाई तक मार्केट में रहते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी मिठास कम हो जाती है और फिर इनका पीक सीजन भी खत्म हो जाता है।
तरबूज के भी हैं कई रूप
मार्केट में आपको कई प्रकार के तरबूज मिल जाएंगे। ये आपको बाहर से हरे और अंदर से लाल नजर आएंगे। वहीं अब ऐसे भी तरबूज आ रहे हैं जो अंदर से पीले निकलते हैं। तरबूज की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं:
माधुरी: यह तरबूज आकार में लंबा होता है। इसमें बाहर की ओर हरे रंग की धारियां होती हैं। यह तरबूज खाने में काफी मीठा होता है। इसकी अधिकतर खेती नदी के किनारे रेतीले स्थान पर होती है। यह तरबूज अब मार्केट में कम ही दिखाई देता है। इस वैरायटी का एक तरबूज 6 से 15 किलो का होता है। इसकी कीमत करीब 20 रुपये प्रति किलो है।
शुगर बेबी: यह भी गोलाकार और बाहर से गहरे हरे रंग का होता है। इसका आकार दूसरे तरबूजों की अपेक्षा छोटा और खाने में काफी मीठा होता है। इसी कारण इसे शुगर बेबी कहते हैं। आजकल मार्केट में ये तरबूज ही अधिक हैं। एक तरबूज का वजन 1.5 किलो से 4 किलो तक का होता है। यह थोक मार्केट में 4 से 7 रुपये प्रति किलो और रिटेल में 10 से 50 रुपये किलो तक मिल जाता है।
अनमोल: यह तरबूज बाहर से हरा, लेकिन अंदर से हल्के पीले रंग का होता है। इसका स्वाद शहद जैसा मीठा होता है। यह मार्केट में 15 से 20 रुपये प्रति किलो की दर से मिल जाता है। हालांकि दिल्ली-एनसीआर में यह कम बेचा जाता है।
ऐसे करें सही तरबूज की पहचान
तरबूज को उठाकर चारों ओर से देखें। अगर उसमें कोई निशान या कहीं से गला नजर आए तो न खरीदें। हो सकता है कि दुकानदार उस तरबूज को बेचने के लिए कुछ बहाने लगाए, लेकिन उसकी एक न सुनें।
अगर तरबूज के एक हिस्से पर गहरे पीले रंग का बड़ा धब्बा है तो वह प्राकृतिक रूप से पका हुआ होता है।
तरबूज को हथेलियों के बीच रखें और फिर धीरे-धीरे दबाकर देखें। अगर तरबूज टाइट है और दबने पर चुर्र की आवाज करता है तो समझ लें कि वह पका हुआ है।
तरबूज को हाथ से बजाकर देखें। अगर भारी और किसी धातु के बजने जैसी आवाज (टन-टन) आए तो समझिए कि वह पका हुआ है। वहीं अगर थप-थप या डब-डब की आवाज आए तो वह ज्यादा पका हुआ होता है। ऐसे तरबूज को न खरीदें।
तरबूज को उठाकर देखें। अगर वह वजन में हलका है तो उसे खरीदने से बचें। चूंकि तरबूज में पानी होता है, इसलिए उसका वजन आकार की अपेक्षा भारी होना चाहिए।
बारिश होने के बाद तरबूज में से मिठास कम हो जाती है। ऐसे में बारिश के बाद तरबूज/खरबूजा ध्यान से खाएं।
सेहत ये भरपूर तरबूज
भरपूर पानी
92% पानी
8% शुगर और कार्ब्स
न्यूट्रिशन भी कम नहीं
विटामिन: A, B, B1, B6, C, D आदि
मिनरल: आयरन, कैल्शियम, कॉपर, बायोटिन, पोटेशियम और मैग्नेशियम।
एसिड: पैंटोथेनिक और अमीनो एसिड।
फैक्ट (100 ग्राम तरबूज में)
कैलरी: 30
पानी: 92%
प्रोटीन: 0.6 ग्राम
कार्ब्स: 7.6 ग्राम
शुगर: 6.2 ग्राम
फाइबर: 0.4 ग्राम
फैट: 0.2 ग्राम
गर्मी में आती है खरबूजा में मिठास
खरबूजा के लिए भी अधिक गर्मी का मौसम आदर्श माना जाता है। जितनी ज्यादा गर्मी पड़ती है, बेल पर लगे खरबूजा उतने ही मीठे होते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी भी मिठास कम हो जाती है और धीरे-धीरे पीक सीजन खत्म हो जाता है।
खरबूजा एक रंग अनेक
वैसे तो मार्केट में कई किस्म के खरबूजा मौजूद हैं, लेकिन कुछ प्रमुख वैराइटी इस प्रकार हैं : -
नामधारी: यह खरबूजा मुख्यत: पंजाब से आता है। यह मई-जून तक मार्केट में मिलता है। इसका छिलका सफेद सा और खुरदरा होता है। वहीं यह अंदर से संतरी रंग का और काफी मीठा होता है।
कीमत
थोक मार्केट: 7 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 20 रुपये प्रति किलो
लाल परी: यह खरबूजा मुख्यत: राजस्थान और यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई-जून तक रहता है। यह बाहर से दिखने में ईंट जैसा गहरा लाल होता है। वहीं इसमें बीच-बीच में पीली और हरी धारियां होती हैं।
कीमत
थोक मार्केट: 15-17 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 40-20 रुपये प्रति किलो
मधुरस: यह खरबूजा मुख्यत: यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई से जून तक रहता है। इसका ऊपरी हिस्सा चिकना और हरे-सफेद रंग का होता है। साथ ही इसमें इसमें बीच-बीच में हरे रंग की धारियां होती हैं।
कीमत
थोक मार्केट: 15-20 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 40-50 रुपये प्रति किलो
लखनऊ पट्टी: इस खरबूजा की पैदावार लखनऊ में ही होती है। इसकी कारण यह लखनऊ में काफी मिलता है। हालांकि दिल्ली में भी यह खरबूजाा मिल जाता है, लेकिन कम मात्रा में। इसका सीजन भी मई-जून का होता है।
कीमत
थोक मार्केट: 15-17 रुपये प्रति किलो
रिटेलर: 20-25 रुपये प्रति किलो
ऐसे करें सही खरबूजा की पहचान
खरबूजा को उठाकर हर तरफ से चेक करें। अगर कहीं से गला दिखाई दे तो उसे न खरीदें।
अगर खरबूजा दबाने पर मुलायम लग रहा है तो उसे खरीदने से बचें। हो सकता है कि दुकानदार आपको ऐसे खरबूजा को अधिक पका या कुछ और बहाना लगाकर बेचने की कोशिश करे, लेकिन दुकानदार को ना कह दें।
खरबूजा को सूंघकर देखें। उसमें से मीठी-मीठी खुशबू आए तो वह पका हुआ और मीठा होता है।
सेहत से भरपूर खरबूज
भरपूर पानी
90% पानी
10% शुगर और कार्ब्स
न्यूट्रिशन भी कम नहीं
विटामिन: A, B1, B3, B6, C, K आदि
मिनरल: आयरन, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस, जिंक, कॉपर।
एसिड: पैंटोथेनिक, फैटी और अमीनो एसिड।
फैक्ट (150 ग्राम तरबूज में)
कैलरी: 53
पानी: 90%
प्रोटीन: 0.9 ग्राम
कार्ब्स: 12.8 ग्राम
शुगर: 12 ग्राम
फाइबर: 1.9 ग्राम
फैट: 0.3 ग्राम
पेस्टिसाइड का होता है प्रयोग
तरबूज और खरबूजा के बीच की बुवाई के समय काफी जगह खतरनाक पेस्टिसाइड का प्रयोग किया जाता है। यही नहीं, तरबूज और खरबूजा की बेल की ग्रोथ के लिए काफी जगह ड्रॉप सिंचाई का प्रयोग करते हैं, लेकिन इसके लिए पेस्टिसाइड मिले पानी का प्रयोग होता है। जब तरबूज और खरबूजा बड़ा होता है तो पेस्टिसाइड का काफी हिस्सा इनमें चला जाता है और ऐसे तरबूज/खरबूजा खाने से सेहत पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
दावा और सचाई
दावा किया जाता है कि तरबूज और खरबूजा में उनका आकार बढ़ाने, मीठापन लाने और पकाने के लिए इंजेक्शन के जरिए कुछ दवा का प्रयोग किया जाता है। इन दावों के बीच हमने भी तरबूज और खरबूजा को लेकर एक एक्सपेरिमेंट किया। हमने दोनों फलों में इंजेक्शन की एक खाली निडल डाली और करीब 10 सेकेंड बाद निकाल ली। इसके बाद हमने दोनों फलों को कमरे के सामान्य तापमान पर तीन दिन के लिए छोड़ दिया। तीन दिन बाद जब हमने दोनों फलों को देखा तो उनकी स्थिति बुरी थी। खरबूजा का न केवल रंग बदल गया था, बल्कि वह बहुत ज्यादा सॉफ्ट हो गया था। जब उसे काटा गया, तो अंदर से भी खराब निकला। वहीं तरबूज के जिस जगह निडल डाली गई थी, वह हिस्सा अंदर से गल गया था। तरबूज का बाकी हिस्सा भी खाने लायक नहीं बचा था। इससे पता चलता है कि अगर इन फलों में किसी भी प्रकार का इंजेक्शन लगाया जाता है, तो वह दो-तीन दिन में ही खराब हो जाएगा। तरबूज/खरबूजा में इंजेक्शन के बारे में हमने पूसा के वैज्ञानिकों, उत्पादकों और थोक विक्रेताओं से इस बारे में पूछा तो उन्होंने इनकी पुष्टि नहीं की। इसलिए हम भी यह दावा नहीं करते कि तरबूज या खरबूजा में इस तरह की मिलावटें की जाती हैं, लेकिन इन्हें खरीदते समय सावधानी जरूर बरतें।
कब और कितना खाएं
तरबूज रोजाना 300 से 400 ग्राम और खरबूजा 150 से 200 ग्राम खाना काफी रहता है। इन्हें खाने का कोई निश्चित समय नहीं है। खाना खाने से पहले या खाना खाने के बाद। अगर तरबूज-खरबूजा को मिक्स करके भी खाएं तो भी कोई परेशानी नहीं है। आम धारणा है कि तरबूज में नमक (काला या सफेद) मिलाकर खाना चाहिए। दरअसल, चुटकी भर नमक मिलाने से इन फलों में कुछ एक्स्ट्रा मिनरल जुड़ जाते हैं, जो हमारे शरीर के लिए अच्छे रहते हैं। हालांकि तरबूज में नमक मिलाकर उन्हीं लोगों को खाना चाहिए जिनका अधिक पसीना निकलता है।
कैसे और कहां रखें तरबूज/खरबूजा
सबसे पहले तो तरबूज और खरबूजा उतने ही खरीदें, जितने आप एक बार में खा सकें। अगर किसी कारण से तरबूज/खरबूजा बच गए हैं तो उन्हें कटा हुआ या टुकड़ों में काटकर न छोड़ें। अगर मजबूरी में कटा हुआ छोड़ना पड़े तो उन्हें एयरटाइट ढक्कन वाले कंटेनर या पॉलीथीन से ढककर फ्रिज में रख दें। यहां ध्यान रहे कि कटे हुए तरबूज/खरबूजा को दो घंटे से ज्यादा समय तक फ्रीज में न रखें। काटकर ठंडा करने के लिए फ्रिज में रखने से बेहतर है कि जब खाना हो, साबुत ही दो घंटे पहले फ्रिज में रख दें। अगर तरबूज/खरबूजा कटे हुए नहीं हैं तो उन्हें फ्रिज में रखने के बजाय सामान्य तापमान पर ही घर में छांव में रखें।
तरबूज को बिना काटे गर्मी के मौसम में घर पर छांव में 5 से 7 दिन तक रखा जा सकता है।
खरबूजा को बिना काटे गर्मी के मौसम में दो दिन तक घर में रख सकते हैं। ध्यान रखें कि इस दौरान खरबूजा छांव और ठंडी जगह पर रखा हो।
डायबीटीज और किडनी के मरीज ध्यान दें...
डायबीटीज के हर मरीज को कोई भी फल खाने में परेशानी नहीं है। हर फल का ग्लाइसेमिक इंडेक्स (Glycemic Index) होता है। जिन फलों का GI 40 से 90 के बीच होता है, उन फलों की 100 ग्राम मात्रा डायबीटीज के मरीज रोजाना खा सकते हैं। हालांकि इस दौरान उन्हें वह चीज कुछ कम खानी होगी जिनमें शुगर होता है। यहां तरबूज का GI 72 और खरबूजा का GI 65 है। ऐसे में इन दोनों फलों को 100 ग्राम तक डायबीटीज के मरीज खा सकते हैं। वहीं किडनी के मरीजों को तरबूज या खरबूजा खाने को लेकर मिली-जुली प्रक्रिया है। चूंकि दोनों फलों में पोटेशियम होता है। ऐसे में किडनी के मरीज इन दोनों फलों को डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।
आम पर भी दें ध्यान
आम का सीजन शुरू हो चुका है। मार्केट में कई वैरायटी के आम आ भी चुके हैं। लेकिन अभी डाल के पके आम मार्केट में काफी कम मात्रा में आ रहे हैं। दरअसल, इन आमों को कच्चा ही पेड़ से तोड़ लिया जाता है और आर्टिफिशल तरीके से पकाया जाता है। अगर ये आम सही तरीके से पकाए नहीं गए हैं, तो इन्हें खाने से सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है।
आम का असली सीजन अब हुआ है शुरू
हो सकता है कि आपको मार्केट में आम कुछ समय पहले से ही दिखाई देने लगे हों, लेकिन इसका असली सीजन अब शुरू हुआ है। चाहे सफेदा आम हो या दशहरी या लंगड़ा या चौसा, ये सभी आम जून के आखिरी महीने से मार्केट में आने शुरू होंगे जो जुलाई-अगस्त तक रहेंगे। इनमें दशहरी और चौसा आम मुख्यत: यूपी से आना शुरू होगा।
डाल का पका आम होता है बेस्ट
पका हुआ बेस्ट आम डाल का ही माना जाता है। यह आम न केवल सेहत के लिए अच्छे होते हैं, बल्कि काफी मीठे भी होते हैं। ये आम पकने पर अपने-आप डाल से टूटकर गिर जाते हैं। हालांकि इस तरह के पके हुए आम मार्केट में काफी कम मिलते हैं, क्योंकि पेड़ पर इन्हें पकने में कुछ समय लगता है।
कच्चे आमों को घर पर ऐसे पकाएं
कच्चे आमों को घर पर कई तरह से पकाया जा सकता है। इन्हें पकाने के लिए सबसे पहले कच्चे आम पूरी तरह परिपक्व होने चाहिए। यानी वे आकार में बड़े हों और दबाने पर कड़े हों। घर पर कच्चे आमों को इस तरह पका सकते हैं:
देसी तरीका: कच्चे आमों को टिश्यू पेपर या अखबार में लपेटकर 3-4 दिन के लिए किसी ऐसी जगह रख दें जो घर के बाकी हिस्सों की अपेक्षा कुछ गर्म हो। यहां ध्यान रहे कि आम रखने की जगह पर अंधेरा भी होना चाहिए। 3-4 दिन पर आम को थोड़ा दबाकर देंगे। अगर वह दब जाए तो समझ लें कि आम पक गया है।
इथरेल दवा से: इस दवा को पानी में मिलाकर उनमें कच्चे आमों को डुबोया जाता है। करीब पांच मिनट बाद आमों को निकालकर अलग किसी बड़े बर्तन में रख देते हैं। इसके बाद उन आमों को ऐसे ही करीब रातभर छोड़ दिया जाता है। सुबह आम पके हुए मिलते हैं। इस तरह से पके आमों को खाने से सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। इथरेल की 100 ml की शीशी करीब 250 रुपये में आती है।
इन बातों का रखें ध्यान
इथरेल दवा और पानी का घोल इतना होना चाहिए कि आम उसमें डूब जाएं।
इथरेल दवा की 500 ml मात्रा के लीटर पानी के लिए काफी होती है। इसलिए दवा और पानी का रेश्यो इसी अनुपात में रहे। अगर आपके पास एक किलो कच्चे आम हैं और आपको लगता है कि ये दो लीटर पानी में पूरी तरह डूब जाएंगे तो दो लीटर पानी में इथरेल दवा की 1000 ml मात्रा मिलाएं।
3. पुड़िया (Ethylene Ripener)
यह मार्केट में पुड़िया के रूप में आती है। इसमें एक केमिकल पाउडर के रूप में होता है। इसे पानी से भिगोकर कच्चे आमों के बीच में रख दिया जाता है और फिर करीब 20 घंटे के लिए आमों को छोड़ दिया जाता है। इस दौरान ध्यान रहे कि आम पूरी तरह से किसी पुराने अखबार से ढके हों और एसी के संपर्क में न हों। इससे निकलने वाली गैस से आम पूरी तरह पक जाते हैं। इस तरीके से पके आम सेहत के लिए हानिकारक नहीं होते।
कमर्शल रूप से ऐसे पकाए जाते हैं आम
एथिलीन गैस का प्रयोग: कदर डेयरी के सफल प्लांट में आम पकाने के लिए एथिलीन राइपनिंग चैंबर का प्रयोग किया जाता है। इस दौरान कच्चे आमों को एक चैंबर में रखा जाता है। इस चैंबर का तापमान 20 से 22 डिग्री सेल्सियस रखा जाता है और इसमें ऐथिलीन गैस का इस्तेमाल किया जाता है। इस गैस के कारण आम रातभर में ही पक जाते हैं। इस तरह से पके आम सेहत के लिए नुकसानदायक नहीं होते।
कैल्शियम कार्बाइड: आमों को पेड़ से कच्चा तोड़ने के बाद उन्हें कैल्शियम कार्बाइड से भी पकाया जाता है। आम पकाने का यह तरीका सेहत के लिए काफी खतरनाक होता है। कैल्शियम कार्बाइड से आर्सेनिक जैसी घातक गैसें निकलती हैं। इस तरीके में कैल्शियम कार्बाइड को एक छोटी पुड़िया में रखकर उसे आमों के बीच में रख देते हैं। इसके बाद इन आमों को करीब 24 घंटे के लिए अंधेरी और सामान्य तापमान वाली जगह रख दिया जाता है। 24 घंटे बाद आम पक जाते हैं। बाद में इस पुड़िया को फेंक दिया जाता है और आमों को मार्केट में बेचने के लिए भेज दिया जाता है।
ऐसे करें पके आम की पहचान
आम के ऊपर सफेद धब्बे या पाउडर जैसा कुछ न हो।
पका हुआ आम पूरी तरह से मैच्योर नजर आएगा।
आम के डाल वाले और उसके निचले हिस्से को थोड़ा दबाकर देखें। अगर ऊपर का हिस्सा सॉफ्ट और निचला हिस्सा ज्यादा टाइट तो इसका मतलब कि उसे सही तरह से पकाया नहीं गया है।
सही तरह से पके आम का रंग एक जैसा और थोड़ा सुनहरा होता है।
अच्छी तरह से पका आम थोड़ा सॉफ्ट होता है। अधपका आम कहीं से सॉफ्ट और कहीं से ठोस होगा जबकि कच्चा आम पूरा ही ठोस होगा।
ऐसे खाएं आम
आमों को नमक मिले गुनगुने पानी में एक-दो घंटे के लिए छोड़ दें।
अब आम को साथ से रगड़े और फिर से साफ पानी से धो लें। इसके बाद साफ आम को कपड़े से पौछ लें।
इसके बाद आम का डंठल वाला हिस्सा हल्का-सा काट कर कुछ बूदें रस निकाल दें और आम को खा लें।
कई बार लोग आम को छिलके समेत काट लेते हैं और फिर उसे खाते हैं। कई बार खाने का तरीका ऐसा होता है कि आम का छिलका भी मुंह में आ जाता है। इससे बचें, क्योंकि अक्सर आमों पर खतरनाक पेस्टिसाइड का छिड़काव होता है।
डायबीटीज और किडनी के मरीज ध्यान दें
आम में तरबूज और खरबूजा की अपेक्षा अधिक शुगर होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि डायबीटीज के मरीज आम नहीं खा सकते। आम का ग्लाइसेमिक इंडेक्स (GI) 51 से 55 के बीच होता है। ऐसे में डायबीटीज वाला मरीज एक दिन में 50 से 60 ग्राम आम खा सकता है। हालांकि मरीज को इस दौरान ऐसी दूसरी चीजें खाने की मात्रा कम करनी पड़ेगी। आम में भी पोटेशियम होता है। ऐसे में किडनी के मरीज डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।
एक दिन में इतने खाएं आम
आम खाना काफी हद तक आपके रुटीन पर निर्भर करता है। अगर मान लें कि एक आम का वजन 300 से 400 ग्राम है और अगर आप बहुत ऐक्टिव नहीं हैं और एक्सरसाइज नहीं करते हैं तो दिन भर में 2 से ज्यादा आम न खाएं। अगर आप ज्यादा आम खाना चाहते हैं तो बाकी चीजें जैसे कि कार्बोहइड्रेट (रोटी, चावल, मैदा, बेसन आदि) कम कर दें। वैसे, अगर कोई बीमारी नहीं है, वजन भी ज्यादा नहीं है और कसरत भी करते हैं तो दिन भर में 3-4 आम तक खा सकते हैं। इससे ज्यादा आम खाना सही नहीं है।
आम को बनाएं खास
सवाल: घर पर आम कितने दिनों तक खाने लायक रहते हैं?
जवाब: आम को घर में बिना फ्रिज के तीन दिन तक रख सकते हैं। वहीं फ्रिज में आम को 10 दिन तक रखा जा सकता है।
सवाल: आम को खाने का सही समय कौन-सा है?
जवाब: आम को किसी भी समय खाया जा सकता है। साथ ही आम को खाली पेट या खाने के बाद कैसे भी खा सकते हैं। हालांकि बेहतर समय रात का माना जाता है। रात को आम खाकर बिना चीनी के एक गिलास गुनगुना दूध पीना सेहत के लिए काफी लाभदायक माना गया है।
सवाल: आम खाने के क्या फायदे हैं?
जवाब: आम में विटामिन, बीटा कैरोटीन और फाइबर होते हैं। इससे हमारा इम्युनिटी सिस्टम ठीक बना रहता है। विटामिन ए की भरपूर मात्रा होने के कारण यह हमारी आंखों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। साथ ही इसे खाने से तुरंत एनर्जी मिलती है।
सवाल: आम खाने से फुंसियां हो जाती हैं। फुंसियां न हों, इसके लिए क्या करें?
जवाब: आम गर्मी के कारण पकता है। ऐसे में हो सकता है कि आम खाने से उसकी गर्मी के कारण कुछ लोगों को फुंसियां हो जाती हों। कई बार कुछ लोगों को आम से एलर्जी भी होती है। इनसे बचने के लिए आम को धोकर उसके ऊपरी हिस्से को पहले ही थोड़ा ज्यादा काट दें, जिससे कि ऊपर का जो अम्ल होगा, वह निकल जाएगा क्योंकि उससे भी कई बार फोड़े-फुंसी होने की संभावना होती है। अगर फिर भी फुंसियां होती हैं तो डॉक्टर से संपर्क करें।
लीची खाएं, लेकिन ध्यान से
बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार यानी एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एसईएस) से करीब 72 बच्चों की मौत हो गई है। वहीं इसकी वजह से 200 बच्चे बीमार हो गए हैं।
70 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है। वहीं इसकी चपेट में 200 से ज्यादा बच्चे आ गए हैं। इन मौतों की वजह हाइपोग्लाइसीमिया और अन्य अज्ञात बीमारी है। कुछ रिपोर्ट में इन मौतों की वजह को लीची भी बताया गया है। रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि लीची में पाए जाने वाले एक जहरीले तत्व की वजह से यह मौतें हो रही हैं। अगर आप खुद या बच्चे को लीची खिला रहे हैं तो इन बातों का ध्यान रखें:
कुपोषित बच्चों को लीची न खाने दें
चमकी बुखार का असर 10 साल तक के कुपोषित बच्चों पर ही पड़ रहा है। एक्सपर्ट के मुताबिक इन बच्चों को ठीक ढंग से खाना और जरूरी पोषक तत्व नहीं मिल पाता है। इस कारण इन बच्चों के शरीर की इम्युनिटी कम होती है। सुबह को ये बच्चे खाली पेट ही लीची को बिना ढंग से साफ किए खा लेते हैं। इसके बाद बच्चों के शरीर में शुगर का लेवल गिरना शुरू हो जाता है और बच्चा बीमार पड़ जाता है।
कुपोषित बच्चों की पहचान
बच्चा पतला-दुबला होता है और उसकी हड्डियां दिखाई देती रहती हैं।
बच्चे का शरीर पतला और पेट बाहर की ओर निकला रहता है।
बच्चे के बाल कुछ सुनहरी हो जाते हैं।
बच्चा शारीरिक रूप से ऐक्टिव नहीं होता है और अधिकतर समय एक ही जगह बैठा-बैठा रोता रहता है।
उम्र के अनुसार बच्चे की लंबाई और वजन का अनुपात सही नहीं होता है।
घाव भरने में अधिक समय लगता है।
बच्चे को सांस लेने में परेशानी होती है और वह चिड़चिड़ा रहता है।
अधपकी या कच्ची लीची न खाएं
लीची कभी भी अधपकी या कच्ची और खाली पेट नहीं खानी चाहिए। पकी और बिना कीड़े वाली लीची को पहले छील लें। अब उसके खाने वाले हिस्से (गूदा) को उसकी गुठली से अलग कर लें। गूदा को भी गौर से देखें कि कहीं उसमें भी कीड़े तो नहीं हैं। अगर गूदा में कीड़े नहीं हैं तो उसे किसी बर्तन में इकट्ठे कर लें। इकट्ठे उतने ही करें जितना आप खा सकें। इसके बाद गूदा को फिर से साफ पीने वाले पानी से दो बार धोएं। अब इस गूदे को खा सकते हैं। यह तरीका आपको लंबा जरूर लग सकता है, लेकिन सेहत के लिए जरूरी है।
कीड़ों का रखें ध्यान
इस फल में कीड़े मिलने की भी आशंका ज्यादा होती है। लीची का वह हिस्सा जो डंठल से लगा होता है, वहां कीड़े अधिक मिलते हैं। इन कीड़ों का रंग लीची के रंग जैसा होता है, इसलिए ये कई बार दिखाई भी नहीं देते। लीची खाते समय कीड़ों का ध्यान रखें। अगर कीड़े दिखाई दें तो उस लीची को फेंक दें।
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आयुर्वेद में भी होती है सर्जरी
कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है। सुश्रुत संहिता में स्पेशलिटी के आधार पर आयुर्वेद को 8 हिस्सों में बांटा गया है।कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है। सुश्रुत संहिता में स्पेशलिटी के आधार पर आयुर्वेद को 8 हिस्सों में बांटा गया है।
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